हनुमंत किशोर की कविताएँ

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हनुमंत किशोर की कविताएँ

 

वे रेजा है जो दिल्ली जा रही हैं

वे टिड्डी दल की तरह
गोंडवाना एक्सप्रेस की जनरल बोगी में धावा बोलती है ।
अपनी चीकट गठरियों और बसाते लुन्गाड़े में
चीखती आवाज़ के साथ जब एक भभूका घुसता है ,
बोगी की नाक सिकुड़ जाती है ।
वे रीठी,हरदुआ ,गिरवर, गनेश गंज की
कोलिन, काछन ,चम्न्नी, कुम्हारन ,बसोरिन हैं ।
वे औरत नहीं है,
वे रेजा है जो दिल्ली जा रही हैं ।
माघ के जाड़े में जब लोग रजाई के भीतर काँपते हैं
वे अपनी उकड़ी टांगो और हाथो से से अपनी छाती गरमाती हैं ।
मटमैले खुरदुरे हाथों और फटी बिवाइयों वाला उनका बुढ़ापा
महानगर में सड़क बिछायेगा , इमारते उठायेगा ।
होटलों में घरो में बर्तन मलेगा कचरा उठायेगा ।
वे रेजा ना होती, हमारे घर की माँ बेटी होती
तो इस उमर में वे भी बहू के हाथ के पराठे खाती
लाडले लड़के से पाँव में तेल मलवाती ।
पर वे तो रेजा है और जब तक उनकी पीठ से पेट लगा है
वे अपने हाड़ को तोड़ती रहेगी ।
वे सीट खाली होने पर भी
अपने बहनापे के साथ फर्श पर ही बैठती है ।
और तनिक देर में घेरे के गोल होते ही
उनके बदबदार मुँह से खुशबूदार गप्प झरने लगती है ।
मुड़ी तुड़ी पोटलियों से साग रोटी और चटनी बाँटकर
चुहुलबाजी के बीच जब वे निवाले तोड़ती है
तो बोगी मेरे बचपन के छूटे हुये आँगन में बदलने लगती है ।
मै खुद को परिचित सी गंधों से घिरा पाता हूँ ।
औ माँ ….
तुम्हारा यह सफ़र शायद आगरा या दिल्ली में समाप्त हो जाये ,
लेकिन रेजा से मनुष्य होने के लिये सभ्यता को अभी लम्बा सफ़र तय करना है ।
अभी तो उसे अपनी पीछे लौटती चाल ठीक करनी है । । । ।

 जामुन  तीन कविताएँ 

आरामतलब, ऐय्याश राजे महाराजों को नहीं भायेगा इसका स्वाद
निठल्ले देवता नही पचा पायेंगे इसे
जिसके माथे से चुआ पसीना
बुझायेगा घरती की प्यास
उसके हिस्से में आयेगा रसीली श्यामा जामुन का सुख ।
जो कारी बदरी आसमान से बरस नहीं पाती
रसीली श्यामा जामुन बनकर वही
मेहनतकश के दामन में बरस जाती है । । ।

जामुन ..  

कितनी भी काली हुई ..कितनी भी रसीली हुई
लेकिन सौ बटा सौ मीठी कभी ना हुई
जरा सा ही सही ..
जमुनाई कसैलापन बचाकर रखे ही रही…
इसीलिये ,
औरों की तरह ‘रियल जूस’ होने से बची रही । ।
सुनो साधो
‘सर्वग्रासी सत्ता’ से यदि खुद को बचाये रखना चाहो
तो थोड़ा सा कसैलापन
हमेशा अपने भीतर बचाये रखना ..
सत्ता को सिर्फ ‘मीठा’ पसंद है
सिर्फ ‘मीठा’ ही पचा सकती है । । । ।

 स्लीमनाबाद के जामुन  

साहब….
स्लीमनाबाद कभी जायें
तो वहाँ की जामुन जरुर खायें ।
किताबों में स्लीमनाबाद एक इतिहास है ,
लेकिन मंझा बाई की जामुन भरी टोकरी में
स्लीमनाबाद एक स्वाद है ,स्मृति है ,अहसास है ।
हरे हरे पत्तों का दोना
हरे हरे बिछौने पर काली काली जामुन का ढेर
काली काली जामुन पर उजला उजला नमक …
साहब ..
रूप रस स्वाद की इस त्रिवेणी में एक डुबकी जरुर लगायें ।
इन्हें मुँह के भीतर रखते ही लगेगा
हिमनद से उठा बादल मुँह के भीतर धीरे धीरे घुल रहा हो
और तब आप देव या दानव जो भी हों
आपका मनुष्य योनी में जन्म शर्तिया तय है ।
मेरे एक सहकर्मी हैं ,जो विधुर है
वे इन जामुनो के देखकर नास्टेल्जिक हो जाते हैं
उन्हें स्वर्गीय पत्नी के कुचाग्र याद आने लगते हैं ।
मै तो विधुर नहीं हूँ
इसलिये शायद ऐसी ‘A’ मार्का कल्पनाओं से अब तक मुक्त हूँ ।
लेकिन इतना सच है कि इन जामुनो को देखकर मेरी लार चूने लगती है ,
इसे मै ‘ग्लूटोमी’ नहीं,
बल्कि अपने जीवित होने का प्रमाण मानता हूँ ।
हाँ जीवित होने का प्रमाण मंझा बाई में बड़ी मुश्किल से दिखता है
वो जामुन की टोकरी के पीछे
सूखी करिया गयी,गुठलियों का एक ढेर लगती है
रह रहकर जामुनो को कभी हाथ का कभी आँचल का पंखा झालती हुई ।
उसे जीवित करने की गरज से ,
जामुन चट करने के बाद
अपनी जामुनी जीभ दिखाते हुए मै उससे ठिठोली करता हूँ
“ अम्मा देख ये क्या हो गया …??”
और मंझा बाई के दंतहीन मुँह से हँसी की पिचकारी फूट पड़ती है |
हँसी में सौ सौ जामुन टपक रहे होते है ।
हँसी में पगे जामुन सिर्फ स्लीमनाबाद में मिलते हैं
कभी स्लीमनाबाद जाओ तो वे जामुन ज़रुर खाना । । ।

 अतुल्य भारत !!!!! 

किसी न्यूज़ चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ नही है यह
ना ही ‘ नयी दुनिया संभव है’ का गरमागरम मंच..
मेरे शहर के ओवर ब्रिज के नीचे
कचरे का दानवी ठीहा है यह
जिसमे बजबजाती बच्चियाँ अपनी ज़िंदगी बिन रही हैं.. ।
कचरे के डमफर को आते हुए देखकर
उनकी आँखों में वही चमक होती है
जो भूखे की आँखों में होती है
पकवान से सजी थाली को देखकर… ।
एक सिरे से दूसरे सिरे को खंगालती
कचरे के ठीहे में वे लिपट लिथड जाती हैं
माँ के स्तनों को झींझोड़ता
जैसे लिथड़ जाता है भूखा बच्चा.. ।
कचरे का यह ठीहा
इन बच्चियों का मदरसा है,घर है , म.न.रे.गा. है
तीर्थ है ,मुक्तिधाम है…
संविधान प्रदत्त जीने का अधिकार है… ।
अगर सभी आश्वासन हिंद महासागर में फेंक दिये जाय
तो भी बहुत है अगर हर नागरिक के पास कचरे का एक ठीहा हो.. ।
ठीहे के उपर विशाल होर्डिंग है ‘अतुल्य भारत’ की
जिसमे प्रोटीन विटामिन से लबालब अश्लील मुस्कान चू रही है
‘इनक्रेडिबल इंडिया देट इज अतुल्य भारत
हम खाये पिए अघाये लोग
भारत को एक कचरा संपन्न गणराज बनाने के लिये कृत संकल्प हैं..’
कचरे के ठीहे के ऊपर ओवर ब्रिज पर
सनसनाती कारे हैं एक मिनट में ३७ ..
लगभग उतनी ही दूसरी तरफ से भी
ब्रिज पर सिर्फ कारें है
जीवित चीजें सिर्फ होर्डिंग पर नज़र आती हैं ..
सच कहते हैं प्रो सहस्त्र बुद्धि
‘ये दुनिया एक रेस है
यदि तुम तेज नहीं दौड़ोगे तो
कोई दूसरा तुम्हे कुचलकर आगे बढ़ जायेगा ।’
ओवर ब्रिज के नीचे एक रेस है
ओवर ब्रिज पर एक रेस है ।
रेस नहीं एक छलाँग है
अँधेरे से अँधेरे में अँधेरे के लिए ….
कोई सहस्त्र बुद्धि बतायेगा कि कैसे छलाँग लगा सकती हैं
कचरे वाली बच्चियाँ ओवर ब्रिज पर ???…
या कैसे मै ही छलाँग लगा सकता हूँ ऐसी किसी जगह पर
जहाँ किसी कचरे में बजबजाती बच्चियाँ ना हो ???
लेकिन अभी तो ये कचरे का ठीहा
शहर की सुदर्शन देह पर बदसूरत कूबड़ की तरह बढ़ता जाता है..
जब भी देखता हूँ
इसे काटकर कुत्तों को खिला देने का मन करता है । । ।

पिता के नाम 

चाहकर भी नहीं लिख सका कविता तुम पर
तुम कविता के नहीं व्याकरण के विषय हो…
संज्ञा सर्वनाम से संपन्न
छंदबद्ध अनुशासन से शासित |
मेरी स्मृतियों में नहीं है
तुम्हारी उँगलियाँ ,तुम्हारे कन्धे ,तुम्हारी गोद
तुम्हारी दहाड़ती आवाज़ और घूरती आँखों
पीछा करती हैं आज भी…
तुम्हे देखता हूँ
तो रेगिस्तान के ढूह याद आते हैं
अपनी शुष्कता में छीजते
अपने ही भार से अभिशप्त….
किन्तु उनके पाताल में भी तो कोई नमी छुपी होगी
कुछ खारा सा रिसता रहता होगा चुपचाप
पर कौन है जो धँस पाता हैं उस गहराई तक
किसके पास है वे आँखे जो देख पाती है नर्गिस का नूर |
तुम हलवाहे की तरह
तोड़ते रहे है परत,
पलटते रहे बंजर की काया
परती को बनाते रहे खेत
पर मैं अभागा…
खेत जितना भी नहीं हो पाया कृतज्ञ..|
तुम मुझमे अपने छूटे हुये सपने देखते रहे
और मैं स्वयं में अपने होने को ढूंढता रहा….|
आज उम्र के इस मोड़ पर
पिता बनने के बाद पाता हूँ
कि तुम ही रिसते रहे हो मेरे भीतर..
बच्चियों के बड़े होने के साथ
बड़ा होता गया मेरे भीतर का पिता भी
और आज इसी बिना पर कहता हूँ,
कि पिता होकर ही जाना जा सकता है पिता को…
तुम आज भी जब सिर पर हाथ रखते हो
तो खुद आसमान छाते की तरह खुल जाता है ..
यूँ तो तुम्हारे खिलाफ शिकायतों कि लंबी फेरिस्त है
पर ईमान की अदालत में आता हूँ
तो खुद को कठघरे में खड़ा पाता हूँ..|||

 

प्रस्तुति :
 नित्यानन्द गायेन
Assitant Editor
International News and Views Corporation

invc newsपरिचय :

 

 हनुमंत किशोर आत्मज राम करण

जन्म स्थान डीही जिला रीवा (म.प्र.) २७ जून १९६९ ….

शिक्षा पिपरिया रीवा और जबलपुर में

सप्रति  : गृह पुलिस विभाग के अधीन अभियोजन सेवा में जिला अभियोजन अधिकारी जबलपुर।

 

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4 COMMENTS

  1. सभी कविताएं अच्छी…जामुन शीर्षिक से कविताओं ने अलग ही स्वाद दिया…बधाई के साथ आभार

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