राष्ट्रवाद के सु्रदरदर्शन थे सुदर्शन**

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प्रभात झा**,,
वे मलयाली थे। वे तेलगु, तमिल, क्रनड़ थे या असमिया थे, बंगाली थे या पंजाबी थे या फिर मराठी थे, या हिंदी बोली जाने वाली प्रांत के थे या अंग्रेजीसंस्कृत के साथसाथ वे छत्तीसगढ  या मध्यप्रदेश के थे, इसका पता कोई लगा नहीं सकता ङ्कयोंकि इन सभी भाषाओं पर उनका नियंत्रण था। उ्रहोंने भारत की आत्मा को अपनी आत्मा से जोड  लिया था। भारत माता उनके रोमरोम में थी। सुदर्शन जी को भी भारत माता ने अपनी गोद में पालपोसकर हर अंचल की आंचल का अमृत पिलाया। उनका ‘कुल’ मातृभूमि की माटी थी। उ्रहोंने भारत को स्वयं अपने नेत्रों से एक नहीं अनेक बार देखने का अनथक प्रयास किया। ६२ वर्ष तक अनवरत्‌ सं्रयासी भाव से देह को देश के लिए अर्पित कर उसकी रखवाली की भूमिका निभाने वाले व्यङ्कितत्व का नाम सुदर्शन जी है।
देश उनकी देह में धारण करता था, जिनके देह में राष्ट्रवाद की अखंड ज्योति सदैव जलती रहती थी और वह ”तमसो मां ज्योतिर्गमय” की भाव से यायावर की तरह मां भारती की माटी को अपने माथे पर लगाकर प्रकृति की अर्पण में रातदिन लगे रहते थी। सुदर्शन जी के देह में मां का वात्सल्य था, पिता की सुरक्षा थी, गंगाजल की पवित्रता थी, हिमालयीन भाव सी ऊंचाईयां थी, वे कर्ण की तरह दानी थे, दधीचि की तरह उ्रहें देह दान करने का असीम सामर्थ्य था। वे जमीनी थे। वे यथार्थ थे। वे सच थे। वे तप थे। वे यज्ञ् थे। वे समिधा थे। वे अर्चना, आराधना, राष्ट्रोत्थान के संगसंग ‘माधव’ की संतान थे। उनमें गोवर्धन पहाड  उठाने की क्षमता थी, वहीं वे संधान के प्रति सदैव जागरूक रहते थे।
सुदर्शन जी, ‘स्वदेश’ थे। सुदर्शन जी ‘सिख संगत’ थे। सुदर्शन जी ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ थे। सुदर्शन जी आरोङ्गय और खेल के भी प्रतीक थे। वे शारीरिक थे। वे बौद्धिक थे। वे स्वदेशी थे। वे योगी थे। वे प्रयोगधर्मी थे। प्रयोग का प्रयास उनका मूल स्वभाव था। मूल में वे इंजीनियर होने के नाते रचनाधर्मी थे। वे नूतन के हामी थे पर पुरातन के संरक्षक भी थे। वे कावेरी, ताप्ती, नर्मदा सहित चंबल शिप्रा के साथसाथ सभी नदियों के पुजारी थे। वैसे तो वे प्रकृति के पुजारी थे। सामा्रय नहीं होता है स्वयं के प्रति वज्र होना। उनमें हनुमान सा साहस था तो वहीं भगवान श्रीराम की मर्यादा भी उनमें देखी जा सकती थी। वे मानवता के पुजारी थे। उनमें मानवों की पीड़ा पीने का अदम्य साहस था। वे समाज को अमृत व स्वयं के लिए जहर की अपेक्षा रखते थे।
आज इस भौतिकवादी युग में जब सत्ता और अधिकार के लिए मानवसंहार तक लोग करने में पीछे नहीं हटते, ऐसे दौर में भारत की धरा पर एक मानुष ऐसा भी आया जिसने अमानुषता के द्घोरतम कालिमा में एक मानुषता की ज्योति जलाने का ऐतिहासिक फैसला किया। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संद्घ के ”सरसंद्घचालक” थे। विश्व की सबसे बड़ी सांस्कृतिक संगठन के मुखिया थे। विश्व में भी संद्घ की शाखाएं लगती हैं। वे ऐसे संगठन के प्रमुख थे, जिसे संगठन ने देश को ह्रिदू होने का गौरव बताया। वे उस संगठन के प्रमुख थे जिसने भारत की सांस्कृतिक चेतनाओं को विश्व के पटल पर जाग्रत रखने का और विश्व को भारत का महत्व समझाने के प्रयास में रातदिन लगे रहे हैं। वे लाखों स्वयंसेवकों के प्रमुख थे। ‘वे’ आदेश थे। वे प्रश्न नहीं उत्तर थे। वे समस्या नहीं समाधान थे। खासकर वे सरसंद्घचालक उस समय थे जब देश में प्रधानमंत्री सहित अनेक मंत्री उनकी विचारधारा के थे। उ्रहें उस दौरान की सत्ता का ऋषि भी कहा जा सकता है, पर वे सत्ता के प्रभाव से सदैव मुक्त रहे। वे चाहते थे कि सत्ता किसी की हो लेकिन वह ”राष्ट्रधर्म” पर चले। ‘भारत’ ओझल नहीं हो। सत्ता के के्रद्रब्रिदु में भारत रहता है तो भारतीय और भारतमाता पर कभी आंच नहीं आ सकती। वे कहते थे सत्ता यदि अनुकूलता वाली है तो राष्ट्रीय यज्ञ् में यज्ञ् करने में सुविधा हो जाती है, और प्रतिकूलता वाली होती है तो थोड ी बहुत कठिनाई होती है। उनकी स्पष्ट मा्रयता थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संद्घ एक ‘राष्ट्रीय मार्ग’ है, जिस पर आज नहीं तो कल सभी को चलना है, चाहे वह भाजपा हो, कांग्रेस हो, सपा हो, बसपा हो, ङ्कयोंकि पूजा पद्धति अलगअलग हो सकती है, पर ईश्वर तो एक है। वो कहते हैं कि हमें हमारा राष्ट्रीय, भारतीय, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मार्ग कभी नहीं छोड ना है, ङ्कयोंकि अगर मनुष्य है, या मनुष्यों का समाज है तो वह इन तत्वों के बिना नहीं रह सकता। अतः हमें हमारे मार्ग पर, जिसे हमने ;विजयादशमीद्ध सन्‌ १९२५ में अपनाया था, उसे किसी भी परिस्थितियों में नहीं छोड ना है। अंततः सभी को संद्घ के राष्ट्रीय मार्ग पर आना ही है।
सुदर्शन जी ‘स्पष्ट’ थे। वे कर्म और विचार के सम्रवयक थे। वे केवल विचार नहीं बल्कि ‘विचार’ के व्यावहारिक ज्ञता भी थे। वे समय काल परिस्थितियों के ‘जनक’ थे। वे ज्योतिषी शास्त्र के जहां ज्ञता थे, वहीं वे अपनी ‘छठवीं ज्ञन’ की परीक्षा भी ज्योतिषियों के माध्यम से करते रहते थे।
वे जिज्ञसु थे। वे उत्सुकता के प्रतीक थे। वे आशा थे। वे प्रायोजित जीवन के नहीं नियोजित जीवन के धनी थे। वे बालबोध थे। उनकी जीवन की रस्सी या डोर में गठानें नहीं आती थीं। वे खुले उदार चित्त के स्वयंसेवक थे।
यह आसान नहीं होता कि जो राजा की स्थिति में हो, और वह राजा रहते हुए प्रजा रूपी जीवन जीने का अचानक निर्णय ले ले। वे भारत के ऐसे सरसंद्घचालक हुए, ज्रिहोंने क्राउन (ताज) के लिए संगठन और राष्ट्र को दांव पर नहीं लगाया बल्कि उपयुक्त समय आने पर उसे सुयोङ्गय व्यक्तित्व को सौंप दिया। अतः जब उनके मन में यह बात आ गई कि ‘ताज’ उसके सिर पर, जो ‘शतप्रतिशत’ कार्य कर सके, तो उसे तत्काल सौंप दिया। आज राष्ट्रहित में यह है कि ‘ताज’ छोड़ दो, राजा का पद छोड  दो और प्रजा बनकर जियो। यह अतुलनीय निर्णय वही कर सकता है जिस आत्मा में परमात्मा का भाव हो और भारत माता को परम वैभव पर ले जाने की जिजीविषा हो। इस युग में यह कैसे संभव हुआ।
वे ‘राजा’ थे, पर उ्रहोंने ”धर दी्रही चदरिया” के भाव को जीवित रहते हुए सार्थक किया। हर गुरु सुयोङ्गय नेतृत्व को तराशता है। चाहे वह रामकृष्ण परमहंस हो, जब उ्रहें युवा नरे्रद्र मिला तो उ्रहोंने उसे तराशा और स्वामी विवेकानंद बना दिया। वहीं समर्थ रामदास को एक सच्चे राष्ट्रभङ्कत की तलाश थी, जब उ्रहें जीजाबाई का बेटा मिला तो उ्रहोंने उसे छत्रपति शिवाजी बनाने में देर नहीं की। उसी तरह राष्ट्रवाद के सु्रदर दर्शन को जब ‘मोहन’ रुपी स्वयंसेवक मिले तो उ्रहोंने उ्रहें छत्रपति शिवाजी और स्वामी विवेकानंद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
ईश्वर ने उ्रहें परमपूज्य बनने का अवसर दिया और जब उ्रहें लगा कि अब नया परम पूज्य मिल गया तो उ्रहोंने अपने को भूतपूर्व बनाने में एक क्षण नहीं लगाया।
वे प्रजा के रूप में भी बैठे नहीं रहे। उ्रहोंने संद्घ कार्य को जारी रखा। प्रवास चलता रहा। सामा्रय व्यङ्कित की तरह वे सभी से चर्चा करने लगे। यह विलक्षण गुण उ्रहें ईश्वर ने प्रसाद के रूप में दिया था। ‘राजा’ के ताज को उतार कर ‘प्रजा’ के जीवन चरित्र धारण कर सबके बीच प्रजाभाव से काम करते रहना यह बिना ईश्वरीय व्यङ्कितत्व के संभव नहीं। इ्रहीं कारणों से लगता है कि उनमें देवांश था। अगर देवांश नहीं होता तो प्रजा के रूप में अपने राजा के कार्य को देखने के लिए वे अखंड प्रवास नहीं करते। वे मूल में ‘समाज प्रवर्तक’ थे। यह ईश्वर की कृपा ही थी कि वे वहां भी गए, जहां उनके भाई का परिवार यानि मैसूर स्थित उनका पैतृक गांव है। फिर उ्रहोंने प्राणायाम करते हुए अपना शरीर वहां छोड ा जिस रायपुर में उनका ज्रम हुआ था।
मजेदार मामला है कि वे एकडेढ़ माह पूर्व वहां भी गए थे जिस जबलपुर में उ्रहोंने इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की थी। यह संयोग नहीं बल्कि देवांश था परिणाम था कि वे अपने पैतृक गांव भी गए। सबसे मिले भी। उसके बाद शिक्षा स्थान पर भी गए और जिस परिवार का एकएक सदस्य संद्घ कार्य में लगा था, उनके कार्यक्रम में गए। वहां पर भी सभी नए पुराने लोग उ्रहें मिले। फिर वे वहां गए जहां रायपुर में उनका ज्रम हुआ था। उ्रहोंने शरीर वहीं छोड ा, जहां ईश्वर ने उ्रहें शरीर दिया था। यह सामा्रय द्घटना नहीं है यह तब होता है जब कोई असामा्रय होता है। सच में वे असामा्रय थे।
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*प्रभात झा
*लेखक सांसद व भाजपा मध्य प्रदेश के अध्यक्ष हैं
*दावा अस्‍वीकरण – इस लेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के अपने हैं और यह जरूरी नहीं कि आई.एन.वी.सी उनसे सहमत हो।

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