डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी की कविताएँ

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कविताएँ

…….. द्रोणाचार्य

तुम्हीं ने-
‘अर्जुन’ को सर्वश्रेष्ठ ‘धनुर्धर’
की संज्ञा दी थी
और
‘एकलब्य’ का अंगूठा मांगकर
अपनी जीत
सुनिश्चित किया था।
तुम-
आज के परिवेश में भी
ठीक उसी तरह हो
जैसे-
द्वापर में ‘महाभारत’ के ‘द्रोण’।।
यह भी सुनिश्चित है कि-
जीत तुम्हारी ही होगी
भले ही तुम
हारने वाले के पक्षधर हो।
तुम-
कलयुगी मानव हो
फिर भी-
सतयुगी घोषणाएँ करते हो।।
नित्य के चीत्कार एवं चिग्घाड़ों को
नहीं सुनते हो।
तुम-
सब कुछ जानते हुए भी
अनजान बने रहते हो।
‘अश्वत्थामा’ मारा गया
यह तुम लोगों को
समझा देते हो।
इस कूटनीति के सहारे तुम
जीत जाते हो
वही जीत
जिसके लिए तुमने
‘कौरवों’ का साथ
देने की स्वीकृति दी।।
तुम-
इस हार को
अस्वीकार भी कर सकते हो,
लेकिन जीतना
तुम्हारी नियति बन चुकी है,
इसलिए-
हर बार किसी न किसी
कर्ण का कवच
‘कुरूक्षेत्र’ में
तुम्हारी रक्षा का प्रमाण
बन जाता है।।।।।

आदमी

मानव
एक पथिक है।
चलता है अपनी मंजिल की ओर-
धूप में, छांव मे
अंधेरे में, प्रकाश में।
वह-
तलाशता है
छांव, किरण, पेड़ और जल।
इन्हीें के सहारे वह
अपनी मंजिल तक पहुंचता है।।
आदमी-
जो मानव है
चाहता है प्यार-स्नेह
आश्वासन और सान्त्वना।
आदमी-
जब अकेलापन महसूस
करता है तब-
अपनों की तस्वीरों
के सहारे जीने का प्रयास
करता है।
आदमी-
मित्रों से अपेक्षा करता है-
आश्वासन, सान्त्वना
और प्यार-दुलार, और
उत्साह वर्धन की।
आदमी-
इन्हींे सबको देख/महसूस कर
बन जाता है धैर्यवान।
और अपनी
मंजिल तक आसानी से
पहुंच जाता है।
यह सब पाने के लिए सभीं
को मानव बनना पड़ेगा।
तभीं-
प्यार-दुलार, आश्वासन
जैसे जिन्दगी जीने के सहारे
प्राप्त हो सकेंगे।।।

अभिशप्त आत्मा का रचनाकार
सामने वाले का
प्रश्न-
आखिर मैं
रचनाकार/लेखक क्यों बना-?
क्या मैं-महापुरूष,
बड़ा शासक या देवतुल्य
महामानव सदृश बनकर भावी
पीढ़ी को अपने पद चिन्हों
पर चलने का मिशाल
बना रहा हूँ
आने वाली पीढ़ी मुझे
आदर्श मानकर मेरे पदचिन्हों
पर चले।।
उत्तर में मैं कहता हूँ-
नहीं ! मेरी कोई ऐसी
इच्छा नहीं है।
मैं महापुरूष, ‘आदर्श-मानव’
और बड़ा शासक नहीं
बनना चाहता।।
मैं, मात्र एक लेखक/रचनाकार
ही बना रहना चाहता हूँ।
महत्वाकांक्षी तो हूँ ,
परन्तु यह नहीं चाहता
कि भावी पीढ़ी के लोग मेरे
पदचिन्हों पर चलें।
इसलिए कि-
भविष्य का क्या? कब पलट जाये
लोगों की संवेदनाएँ
समाप्त हो जाएं लोग संज्ञाहीन होकर
आपसी राग-द्वेष के प्रभाव
में आ जायें
भविष्य का क्या???
मैंने भी किसी को अपना
आदर्श नहीं माना है।
तब लोग मुझे आदर्श मानने की
गलती क्यों करेंगे?
लेखन मेरा शगल है मैं मानव
सभ्यता और उसके चरित्र
का तटस्थ आलोचक हूँ।
भूत-भविष्य और वर्तमान पर
दृष्टि रखता हूँ।
मैं पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश
और जल
के साथ रहता हूँ।
चूंकि मानव की रचना
इन्हीं पाँच तत्वों को
मिलाकर किया है।
इसलिए मैं एक सम्पूर्ण
मानव बनकर ही लेखन कार्य करता हूँ।
अनगिनत आयामों और
भंगिमाओं से भरपूर विरोधाभासों
के साथ महापुरूष ही जीते है।
मैं ऐसा नहीं बन सकता
मुझमें ऐसे कोई गुण नहीं
जो- इनमें होते हैं,
वे महान हैं, और मै-
महान नहीं हूँ। ऐसा बन भीं
नहीं सकता हूँ।।।
मैं चिन्तक-विचारक दार्शनिक
भीं नहीं हूँ। मानव के
सभीं गुण मुझमें मौजूद हैं।
हर्ष-विषाद, राग-द्वेष सभीं तो है
मेरे व्यक्तित्व के अन्दर।
मैं कोई अवतार-पुरूष भीं नहीं
बनना चाहता। शायद चाहकर भीं
ऐसा हो पाना असंभव ही होगा।
जब मुझे क्रोध आता है
और मैं दुःखी हो उठता हूँ-
मेरा लेखन प्रखर होता है।
तनावों से घिरने पर
लेखनी चलती है,
वह बोल उठता है-
अनन्त तनावों और चिन्ताओं
से भरी हुई अपनी
‘अभिशप्त आत्मा’ के रचनाकार
तुम्हीं तो हो।।।

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Bhupendra-Singh-Gargvanshiडॉ.-भूपेन्द्र-सिंह-गर्गवंशी1परिचय :

डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

वरिष्ठ पत्रकार/टिप्पणीकार

रेनबोन्यूज प्रकाशन में प्रबंध संपादक

संपर्क – bhupendra.rainbownews@gmail.com

अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.) मो.नं. 9454908400

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