क्यों बढ़ती हैं सिर्फ जरूरी सामानों की कीतमतें?

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– अश्विनी कुमार ‘सुकरात –

Why the rise of just Kitmten groceriesपहले प्याज, फिर दाल, अब तेल ऐसा लग रहा है कि इस त्योहारी मौसम में इनसब जरूरी खाद्य पदार्थों के माध्यम सेबाजार आम आदमी को निचोड़ने का कोई भी मोर्चा छोडना नहीं चाहता है । एक खबर के अनुसार सिर्फ दाल ही नहीं सभी खाद्य पदार्थ, शिक्षा, स्वास्थय, आम जरूरत की हर एक चीज महंगी हो रही है । यह खबर उद्योग मंडल एसोचेम की रिपोर्ट पर आधारित है । अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमते में जबर्दस्त गिरावट आयी है । पर वह गिरावट घरेलू बाजार में देखने को नहीं मिलती ।“सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा और स्वस्थय सुविधाओं की भारी तंगी के चलते मध्यम  वर्ग के लोगों को निजी विद्यालयों, कालेजों अस्पतालों पर निर्भर रहना पड़ता है ।जिसकी लागत काफी ऊंची है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओ का आधारमूल्य ही इतना ऊँचा है कि इन सेवाओं को खरीद पाना हर एक  के बुते की  बात नहीं।” अर्थात जरूरी पदार्थों के बाजार की ये तमाम संस्थाएं अपने ग्राहकों को इतना निचोडना चाहती है जितना अधिकतम संभव है । पर क्या आपकों कीमतों में ये उच्छाल गैर-जरूरी विलासता एवं आरामदायक पदार्थों जैसे कोल्डड्रिंक, चोकलेट, मोबाईल आदि की कीमतों में भी देखने को मिलता है ?

जब से भारत सरकार ने ‘कल्याणकारी’ होने का चोलाबहुराष्ट्रीय कंपनियों के संरक्षक वर्ल्ड बैंक आई.एम.एफ के दबाव में उतार फैंका है, तब से अति जरूरी पदार्थों और सेवाओं, जैसे आटा-दाल, डीजल-पेट्रोल, शिक्षा-स्वास्थ्य आदि के औसत दाम बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं । जबकि आरामदायक यानी विलासिता की वस्तुओं जैसे टेलीविजन, फ्रिज, ए.सी., कार आदि के दामों में तुलनात्मक वृद्धी जरूरी पदार्थों से बहुत कम है। इलेक्ट्रोनिक, कंप्यूटर ,मोबाइल आदि के क्षेत्र में तो तकनिकी प्रगति की वजह से मूल्य कम भी हुए है ।

कार, बाईक, मोबाईल आदि के दाम में पिछले 20 सालों में हुई वृद्धि/कमी तथा इस दौरान आटा-दाल,दवा-दारू की कीमत में हुई वृद्धि की तुलना कर पाठक स्वयं पता कर सकते हैं कि किसमें कितना परिवर्तन हुआ है।इसी तरह अन्य जरूरी वस्तुओं एवं विलास-आराम वस्तुओं की कीमतों की तुलना पाठक स्वयं कर सकते है। स्पष्ट है, सरकार की भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीतियों को अपनाने के बाद से आरामदायक और विलासिता की वस्तुओं की कीमतें कमोबेश स्थिर रखने में सफल रही हैं, जबकि जीने के लिए अति आवश्यक जरूरीपदार्थों की कीमत को बाजार की शक्तियों की गिरफ्त में छोड़ने के साथ ही, इन सभी के मूल्य सुरसा के मुहं से भी तेजी से बढ़े है । इस नीति को अपनाने के बाद कृषि क्षेत्र से तो सरकारों ने पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। फलस्वरूपकृषि-उत्पादन की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। पिछली ढाई दशक में कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर कम ही नहीं अनेकों बार ऋणात्मक भी रहे है । राजनीतिक पार्टियाँ किसानों को बरगलाती तो बहुत है, पर सत्ता में आने के बाद उन पार्टियों की सरकारे किसानों को कोई प्रोत्साहन भी प्रदान नहीं करती । कृषि पदार्थों के विपणन के माध्यम से अब असल मुद्दा कृषि उत्पादों की सट्टेबाजी ही रह गया है । जिसका फायदा सिर्फ सट्टोरियों के अगुआ बहुराष्ट्रीय निगमों को ही हो रहा है। इन कम्पनियों की रूचि उत्पादन बढ़ाने में नहीं अपितु उत्पादन को नियंत्रित करने हेतू बीजों की किसमों को नियंत्रित करने में है ।

चूकिं भूमंडलीकरण का अर्थ ही होता है देसी अर्थव्यवस्था को अंतराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था  के साथ जोडों । अतः इन जरूरी पदार्थों को लेकर विश्व नेताओं की क्या स्थिती है इस बात को भी स्पष्ट करना जरूरी है। कुछ साल पहले यह खबर सुर्खियों में थी कि दुनिया का रहनूमा अमेरिका (युएसए) अपना लाखों टन अनाज समुद्र में बहा देता है। आजकल खाद्य फसलों की अपेक्षा बायो-डीजल उत्पन्न करने वाली फसलों के उत्पादन पर जोर दे रहा है।यहाँ के नेताओं ने खाद्य वस्तुओं की बढ़ती कीमतों का ठीकरा दक्षिण एशिया के देशों पर फोड़ा था। कहा जा रहा था कि दक्षिण एशिया के लोगों ने आय बढने पर अधिक खाना शुरू कर दिया, इसलिए दुनिया में अनाज की कमी हो गई है। यह पूर्णतः बेतुकी बात हैं क्योकि दक्षिण एशिया में प्रति व्यक्ति अनाजों एवं दालों की खपत कम हुई है ना की बढ़ी है । सबसे ज्यादा भुख और कुपोषण इन्हीं इलाकों में है ।जरूरी खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के लिए न तो दक्षिण एशिया के गरीब लोगों की बढ़ती हुई आय जि़म्मेवार है और न ही संसाधनों की कमी। हां, संसाधनों का अन्यायपूर्ण असमान आवंटन जरूर जि़म्मेदार है।

जहाँ तक बात भारत की है तो यहाँ, एक तरफ जहाँ खाद्य पदार्थों की कीमतों में आग लगी हुई हो तो उसी आग में घी डालने का काम तब होता है, जब सरकार द्वारा खरीदे गये अनाज को सरकारी खाद्य एजेंसियां खुले में सडने के लिए छोड़ दे। एक अनुमान के अनुसार हर साल भारत में 56,474 टन आनाज फ़ूड कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया के गोदाम में बर्बाद हो गया । और इन सड़ते अनाज की सुध लेने की फुर्सत न तो पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को थी और न बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को ही है । 18 करोड़ भुखे है और19.5 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार है । युपीए सरकार के कृषी मंत्री श्री शरद पवार नेतब हद पार कर दी थी जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी पूरी अडिगता के साथ कह दिया था कि अनाज खुले में सड़ते हों तो सड़ें, इसे सस्ते दामों पर गरीबों को उपलब्ध नहीं कराया जा सकता। सदन में खीचाई केबाद में खाद्य सुरक्षा बिल का शिगूफा छोड़ा गया, जिसके तहत गरीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की वकालत की गयी । वर्तमानएनडीए सरकार के खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने महंगाई रोकने और भंडारण व्यवस्था सुधारने पर मंत्री बनने के बाद जोर देने की बात तो कही, पर सरकार बने डेढ़ साल से अधिक हो गया है, इस दिशा में कोई ठोस कार्यवाही नहीं की । नतिजा खाद्य पदार्थों के सड़ने का सीलसीला थमा नहीं, बढ़ा ही । अब शरद पवार एनडीए सरकार पर आरोप लगा रहे कि सरकार महंगाई को कम करना ही नहीं चाहती । सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी सबकी अन्दर और बाहर की नीति एक ही है पहले खाद्य पदार्थों को सड़ाओं फिर ओने पोने दाम पर शराब और इथनोल बनाने वाली कम्पनियों को बेचों । गरीबों को सस्ती दरों पर आनाज उपलब्ध  कराने से सरकारी खजाने पर सब्सिडी का बोझ बढ़ता है । पर सड़े आनाज को औने पौने दाम पर बेचने से सरकारी खजाने पर क्या फर्क पडता है. इसका कही जिक्र तक नहीं होता ।

कांग्रेस के नेतृत्व वाली युपीए के शासन काल में उस वक्त विपक्ष में बैठी बीजेपी ने महँगाई के विरोध में बिगुल बजाया था । चुनावी नारा दिया, “बहुत हुई देश में महँगाई की मार इस  बार मोदी सरकार” ।जनता ने अच्छे दिनों की उम्मीद  में मोदी जी को प्रधानमंत्री तो बना दिया, लेकिन उनके शासन काल  ने सिद्ध कर दिया की महँगाई के खिलाफ नारेबाजी अंतः चुनावी जुमलेबाजी भर थी । माननीय मोदी जी अब अपनी चुनावी सभाओं में बहुत ही महंगाई की मार की बात नहीं करते अब वे विकास की बात करते है।पर विकास किसका? अब महंगाई की जुमलेबाजी कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी पार्टियाँ के पाले में है । बीजेपी के बहुत से अगुआओं को अब यह महंगाई विकास का इंजन लगती है । वे अब इस बढ़ती महंगाई का ठीकरा कभी दिल्ली की तो कभी बिहार की गैर-भाजपा की राज्य सरकारों पर फोड अपना पल्ला झाड़ने का प्रयास कर रहे है । आम जनता ने भी कही न कही मन मारकर स्वीकार कर लिया है कि महंगाई के खिलाफ जुमलेबाजी तो हो सकती है, कार्यवाही नहीं । जनता भी समझ चुकी है कि राजनैतिक पार्टियां महज अपनी रोटियाँ सेकने के लिए ही ये नारे बाजी करती है । परिणाम महंगाई के खिलाफ हुए हालिया प्रदर्शनों में राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता हीशामिल हुए, जनता नहीं । जनता त्रस्त है पर वह यह भी समझ चुकी है कि महंगाई इन राजनीतिक पार्टियों के लिए रोटिया सेकने के इंधन से ज्यादा कुछ और नहीं ।

महंगाई को लेकर जुमलेबाजी तो खुब हो रही है पर खाद्य जैसे जरूरी पदार्थों की कीमतें बढ़ी ही क्यों? इस पर विचार कही होता नहीं दिख रहा ।अमेरिका जैसे देश में अनाज को समुन्द्र में बहाने और भारत मे इसे खुले में सड़ाने में कोई रिश्ता है ?इस पर कांग्रेस और बीजेपी समेत तमाम राजनैतिक पार्टियाँ मौन है । खाद्य पदार्थों की उत्पादन-लागत कैसे कम हो सकती है, इस पर भी कहीं कोई विचार नहीं हुआ है । बहरहाल, खाद्य सुरक्षा जैसे मुद्दों को किसानों की जीवन-सुरक्षा के साथ जोड़ा जायेगा या आम गरीब जनता को इसके तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली से सड़ा हुआ अनाज ही मिलेगा, यह प्रश्न अभी शेष है। वैसे भी अच्छी गुणवत्ता वाला अनाज तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गोदामों में जमा है जो मेहनतकश गरीबों के लिए नहीं, चंद अमीरों के लिए है।

कर्ज में डूबा हुआ किसान अपने उत्पाद यानी खाद्य पदार्थों को औने-पौने दामों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचने पर मजबूर है। किसानों को इतनी भी आय नहीं हो पाती कि वे अपनी लागत की भरपायी भी कर पायें। किसान कर्ज के जाल में फंस कर लगातार आत्महत्या कर रहे हैं और सरकार को फिक्र है तो सिर्फ बहुराष्ट्रीय निगमों की। सरकार का मेक इन इंडिया कार्यक्रम इन निगमों के लिए ही है । किसी जमाने में स्वदेशी का झंडा बुलंद करने वाले आरएसएस के प्रचारकों की सरकार को हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं निवेश-प्रोत्साहन नहीं मिलने की स्थिती में ये बहुराष्ट्रीय संस्थान देश छोड़ कर ही नचली जायें।

किसानों से औने-पौने दामों पर खरीदे गये अनाज की कीमतें देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथ लगते ऐसे बढ़ती हैं जैसे मोटर गाड़ी गांवों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से निकल कर शहर की सडकों पर सरपट दौड़ती है। कभी दूध, कभी दाल, कभी प्याज…हर खाद्य पदार्थ को कभी सड़ाने, कभी निर्यात, कालाबबाजारी के बहाने इन पदार्थों का कृत्रिम अभाव पैदा किया जाता है। फिर बाजार की बेलगाम शक्तियां आम जनता को बढ़ी कीमतों के माध्यम से जम कर लूटती हैं। जब से खाद्य पदार्थों के व्यवसाय में कार्गील,आइटीसी और रिलायंस आदि जैसी दैत्याकार कंपनियां आई हैं और फ्यूचर ट्रेडिंग के नाम पर खाद्य पदार्थों की सट्टेबाजी को खुली छूट मिली है, लाखों टन खाद्य पदार्थ किस सुरसा के मुंह में समा जाते हैं, पता भी नहीं चलता। आज कुल खाद्य तेलों का 80% पर चंद बड़ी कम्पनियों का कबजा है । जिसमें प्रमुख बहुराष्ट्रीय कम्पनी कार्गील है । ये इन बड़ी कम्पनियों की चिंगारी है कि जिस  सरसों के तेल को कोई पूछता नहीं था उस सरसों के तेल ने बाजार में आग लगा रखी है ।

साथ ही, अनाज को सस्ते में निर्यात तथा महंगा होने पर आयात, जमाखोरी जैसे शातिराना कदम उठाये जाते हैं जिसमें उच्चे स्तर पर जम कर कमीशनखोरी की जाती है। जब  तक जमा स्टॉक को निकालने का खेल खेला जाता है तब तक व्यापारी मुनाफा पेर चुके होते है । अपनने हिस्से का कमीशन भी राजनीतिक पार्टियों तक पहुच चुका होता है । ऐसे में कभी भी कीमत वापस उस स्तर  पर नहीं आती जहाँ से बढ़ना बढ़ना शुरू हुई थी । पेट्रोल  के दाम इसका सबसे बड़ा उदाहरण है । अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों के बहाने कीमत बढ़ी तो पर अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कमी आने के साथ कम नहीं हुई ।कारण आम आदमी भाग्य की तरह ऊँची को भी स्वीकार कर चुका होता है ।

जरूरी खाद्य पदार्थों की बढ़ती हुई कीमतों का असली कारण बड़े-बड़े देशी-विदेशी पूंजीपतियों की आय एवं मुनाफा अधिकाधिक करने के साथ ही अर्थव्यवस्था पर एकाधिकार स्थापित करने की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीति है।महंगाई इसी वर्ग की पाली-पोसी हुई डायन है। सतही तौर पर भले ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था प्रतियोगिता के सिद्धांत पर कार्य करती दिखाई पड़ती हो, पर गहराई में उतरने पर हकीकत कुछ और ही नजर आती है। प्रतियोगिता का सिद्धांत तो सिर्फ छोटे व्यापारियों पर ही लागू होता है, जिन्हें बड़े देशी-विदेशी पूंजीपतियों अर्थात् बड़े दैत्याकारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुकाबला करना पड़ता है। मतलब स्पष्ट है कि एक दुबले-पतले कमजोर आदमी का मुकाबला सूमो पहलवान से हो! इन बड़े देशी-विदेशी पूंजीपतियों अर्थात् बहुराष्ट्रीय निगमों का सशक्त एवं संगठित ‘कार्टेल’ है जिनकी सीधी पहुच वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ तक है। अपने धन बल एवं एकाधिकारी शक्ति के जोर पर ये भारत जैसे देशों की सरकारों को अपने वश में रखती हैं। इन कंपनियों के बजट में भी मंत्रियों एवं उच्चाधिकारियों को प्रभावित करने के लिए विशेष प्रावधान रहता है।

1950 के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में उभरी अल्पतंत्रात्मक पूंजीवाद की प्रवृत्ति ने एक संगठित ‘कार्टेल’ का रूप धारण कर लिया और इसने दुनिया के बाजारों में वस्तुओं की कीमत का निर्धारण करना शुरू कर दिया। इनके वर्चस्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्व अर्थव्यवस्था के 80 प्रतिशत हिस्से पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर महज 200 बहुराष्ट्रीय निगमों का नियंत्रण है। सिर्फ 200 बहुराष्ट्रीय निगम प्रत्यक्ष तौर पर 7.1 ट्रिलियन डॉलर के उत्पादन को नियंत्रित करते हैं जो दुनिया की शीर्ष नौ देशों की अर्थव्यवस्थाओं को छोड़ कर शेष 182 देशों के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 6.9 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक है। ये आंकड़े 1998 के हैं, अब तो स्थिति और भी भयावह हो चुकी है। अल्पतंत्रात्मक पूंजीवाद की इस प्रवृत्ति ने 1980 के दशक के आरंभ से ही उदारीकरण की नीतियों के रूप में भारत में अपने पांव पसारना शुरू कर दिया था। आज देशी औद्योगिक घरानों तथा नये उभरते उच्च मध्यम वर्ग का हित भी इन बहुराष्ट्रीय निगमों से जुड़ गया है, पर पिस तो रही है देश की 85 प्रतिशत आबादी जिसके हाथ से रोजगार के अवसर छिनते ही चले जा रहे हैं, उसे महंगाई की भी जबरदस्त मार झेलनी पड़ रही है। कृषि क्षेत्र की विकास दर भी लगातार कम होती जा रही है। सिर्फ कृषि ही नही, कृषि के बाद सर्वाधिक रोजगार जुटाने वाली कुटीर एवं लघु औद्योगिक इकाइयां भी इस मार से दम तोड़ती जा रही हैं। इस विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट है कि विश्व और देशी, दोनों बाजारों पर चंद पूंजीपतियों का राज है।

यह आर्थिक विश्लेषण दो सर्वविदित तथ्यों को उजागर करता है – 1. आज विश्व अर्थव्यवस्था पर अल्पतांत्रिक बहुराष्ट्रीय निगमों का नियंत्रण है और इस व्यवस्था में प्रतियोगिता के स्थान पर पूंजीवादी व्यवस्था के समग्र लाभ को बढ़ाने के लिए काम हो रहा है (80 प्रतिशत विश्व अर्थव्यवस्था पर मात्र 200 बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण है)। 2. ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां अल्पविकसित और विकासशील देशों की सरकारों के साथ सांठगांठ कर वहां की सरकारी नीतियों को अपने अनुकूल ढालती हैं। इन कंपनियों को विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष एवं विश्व बैंक का संरक्षण प्राप्त है।3 अपने वर्चस्व का इस्तेमाल वे संसाधनों को जरुरी से गैर जरुरी पदार्थो के उत्पादन में झोक रही है और समाज में उन पदार्थो के अनुकूल संस्कृति(पेप्सी कोका आदि संसकृति ) भी पैदा कर रही है । पर ऐसा क्यों ? जानने के लिए पढ़े ।

अब प्रश्न उठता है कि संगठित कार्टेल का फायदा जरूरी पदाथों की कीमतों को बढ़ाने तथा गैरजरूरी पदार्थों की कीमतों को कम अथवा स्थिर रखने में कैसे है? पूंजीवादी व्यवस्था में वस्तु एवं सेवाओं की कीमत मांग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा तय की जाती है। पूर्ति पर जहां पूंजीपतियों का नियंत्रण होता है, वहीं मांग उपभोक्ता की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है। यदि उपभोक्ता अपनी मांग को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है तो कीमत बढ़ा कर कम्पनियों आय में वृद्धि करने की नीति बेकार साबित हो जायेगी। उत्पादक कीमत बढ़ा कर आय में वृद्धि करने की नीति तभी अपनायेगा जब वह आश्वस्त हो जाये कि कीमत बढ़ाने के बावजूद मांग की मात्रा में कमी नहीं होगी। ऐसा सिर्फ अति आवश्यक वस्तुओं के साथ ही हो सकता है। अगर उत्पादक आरामदायक व विलासिता की वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि करता है तो उनकी मांग की मात्रा में भारी कमी हो सकती है।इसलिए इनआरामदायक व विलासिता की वस्तुओं के लिए सरकार पर अपनी संगठित शक्ति का प्रयोग कर लागतों को घटाने वाली छुट हासिल करती है ।खाद्य पदार्थों, ईंधन, दवाई जैसी वस्तुओं और  चिकित्सा, शिक्षा जैसी सेवाओं की कीमत बढ़ाने के बावजूद इनकी मांग में विशेष कमी नहीं आयेगी। इससे उत्पादक की आय बढ़ेगी और उसे अधिक मुनाफा होगा। अतः इस क्षेत्र मेंआगतों को नियंत्रण कर लागत को ज्यादा दिखा कर कीमत ज्यादा करने का प्रयास करती है । उदाहरण निजी दिल्ली में बिजली की सप्लाई करने वाली टाटा ग्रुप की एनडीपीएल और रिलायंस ग्रुप की बीएसइएस अपने  ही ग्रुप की अन्य कम्पनियों से कच्चा माल को खरीदती है तथा ठेकों को देती है ।

एक उपभोक्ता दाल की कीमत बढने पर भी उसे खरीदने को मजबूर होगा, पर शीतल पेय के साथ यह बात नहीं है। इस तरह हम पाते हैं कि पूंजीपति मुनाफा में वृद्धि के लिए दाल की कीमत तो बढ़ाना चाहेगा, पर शीतल पेय की नहीं। शीतल पेय के मामले में वह प्रचार की नीति अपनायेगा ताकि उपभोक्ता प्रचार से प्रभावित हो कर उस वस्तु की ज्यादा से ज्यादा मात्रा खरीदे । यदि शीतल पेय की कीमत भी उसी तेजी से बढ़ती है जिस तेजी से खाद्य तेल और दालों की तो उसकी मांग में भारी गिरावट आएगी । पाठक इस बात को इस तरह समझ सकते है कि निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गी इलाकों में कोल्डड्रिंक की 10 रू वाली बोटल ही बिकती है 15 रू वाली नहीं । यदि इन इलाकों के दूकानदार 10 रू की जगह 15 रू वाली बोटल बिक्री के लिए रखते है तो मांग की मात्रा सीधे घट कर आधी से कम या नगण्य ही रह जाएगी । इसलिए इन इलाकों में 15 रू वाली बोटल की स्पलाई ही नहीं होती है । मान ले दाल की कीमत 50 रू होने पर कोई परिवार 5 किलों महीने में दाल खरीदता है । 200 रू होने पर भी परिवार मांग को एक आध किलो ही कम कर सकता है ।

प्याज , दाल , तेल के बात अब जरूरी दवाईयों के रेट की बारी है । चूंकि हर कोई बीमार नहीं पडता ,अतः इस पर हो-हल्ला कम है । पर बीमार पड़ जाये तो घर का सारा बजट बिगड़ जाता है । एक जानकारी के अनुसार हर साल दस लाख लोग बीमारियों की वजह से अपने घर बेच देते है । कोई श़ौख से दवाई नहीं खाता पर पर बीमार पड़ जाये तो उसको उतनी दवा लेनी ही पडती है जितना डॉक्टर बोलता है । अतः दवाईयों के केस में उसी अनुपात में दवाई कम्पनी की बिक्री से प्राप्त धनराशि बढ़ जाती है जिस अनुपात में दवाई के मूल्य । कारण दवाई की मांग भी बेलोच होती है । आटे दाल की तरह इसमें भी कटोती नहीं की जा सकती है । एक खबर के अनुसार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हालिया अमेरिकी दौरे के दौरान निवेश की शर्त के रूप में  बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ दवाई, पेस्टिसाईड, बीजों के रेट बढ़वाने में सफल रहीं है ।

जरूरी पदार्थों की मांग में कमी उपभोक्ता की मजबूरी है न कि ऐक्छिक ।अतः अर्थशास्त्र के मांग की लोच के सिद्धान्त के अनुसार कम लोच वाले जरूरी पदार्थोंदाल, खाद्य तेल, ईंधन, दवाई आदि की कीमत बढ़ने पर कम्पनियों  एवं सट्टा व्यापारियों की बिक्री से प्राप्त आय बढ़ती है जबकि अधिक लोच की आरामदायक-विलासिता की वस्तुऔ जैसे कोल्डड्रिंक,  चोकलेट  मोबाईल आदि की कीमत बढ़ने पर बिक्री से प्राप्त आय कम हो जाती है ।अब समझ में आ सकता है कि क्रिकेटरों और फिल्म स्टारों पर पेप्सी और कोका कोला जैसी कंपनियां अरबों रुपया क्यों फूंकती है। सिर्फ उपभोक्ता की आदत में परिवर्तन कर उपभोक्ता की मांग की लोच को कम करने हेतू । अब इनबड़ी कंपनियों ने तो बड़े पैमाने पर प्रचार को साधन बना कर छोटे-मोटे उत्पादकों के इस क्षेत्र में प्रवेश की संभावना ही खत्म कर दी है।

जब इन दैत्यकारी कम्पनियों को जब फ़ूड मार्केट में लाया गया था तब यही तर्क रखा गया था कि इससे कीमते कम होगी । हाँ ! शरुआत में छोटे व्यापारियों को बाजार से धकेलने के लिए कुछ कीमतें कम हुई होगी पर एक बार एकक्षत्र राज कायम होने के बाद कीमते लगाता बढ़ रही है । अब कीमत भी उनकी विलास-उपभोग संसकृति भी उनकी ………..। पाठकों को इस बात से ही स्पष्ट हो जाना चाहिए कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरी पदार्थों के क्षेत्र में कौन सी चैरटी करने देशी-विदेश के बड़े बड़े ब्रांड क्यों आतुर है ?

और! नेताओं और कम्पनियों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग कुपोषण और भूख से मरते हैं, किसान आत्महत्या करते हैं, लोगों की स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी जरूरतें पूरी होती हैं या नहीं। पूंजीपतियों की चिंता का विषय है उनका लाभ बढ़ता हैऔर नेताओं की चिंता का विषय है कि लाभ में उनका कमीशन मिलता है की नहीं । चुनाव जनता के वोट से ही जीता जाता है । पर चुनाव लड़ने के लिए प्रचार प्रसार का खर्च धना सेठों की तिजोरी से  ही आता है ।  अतः चुनाव में वोट मिले इसके लिए जम कर जुमलेबाजी होती । कमीशन मिले इसके लिए ऩीतियाँ धन्ना सेठों और बडी बडी कम्पनियों के हिसाब से बनती है ।

पाठक समझ ही गये होगे कि मेक इन इंडिया जैसे ‘राष्ट्रीय गरिमा’ के कार्यक्रमों द्वारा एवं तथाकथित तौर पर राष्ट्रोद्धार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए रेड कारपेट बिछाने में व्यस्त हमारी ‘जन कल्याणकारी’ राष्ट्रवादी सरकार को बढ़ती कीमतों की सुध लेने की फुर्सत अब क्यों नहीं है?

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अश्विनी कुमार 'सुकरात'परिचय -:

अश्विनी कुमार ‘सुकरात’

शिक्षक, लेखक व् सामाजिक कार्यकर्त्ता

परिचय क्या है मेरा … मैं एक शिक्षक हूँ… जनभाषा जनशिक्षा के  विषय को लेकर जन चेतना के अभियान को आगे बढ़ाने के समाजिक कार्य में संलग्न हूँ । क्योकि जन-भाषाा में परिवेश आधारित शिक्षा बिना समाजिक वैज्ञानिक चेतना नहीं जगेगी और उसके बिना किसी भी प्रकार की समाजिक क्रांति संभंव नहीं.! अर्थशास्त्र के गुढ़ राहस्यों को समझने के लिए भी जनभाषा की ताकत चाहिए । आज हमारी बहुसंख्य आबादी इस मुद्दे पर किमकर्तव्यविमुढ़ है क्यों कि अंग्रेजी में  चलती व्यवस्था भ्रम का पर्दा बनाए रखती है । और अंग्रेजी की आड़ में चंद  समाएदोरों का भला करती है ।

संपर्क -: मो.न. 9210473599, 9990210469 – ईमेल -:ashwini.economics@gmail.com

शैक्षिक योग्यता : एम. ए. (अर्थशास्त्र), एम. कॉम., एम. एड. नेट.
वर्तमान में मेवाड इंस्टिट्यूट गाजियाबाद में अस्सिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत.

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