हमें तेज आवाज से बचना चाहिए

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डेसी बल ध्वनि की तीब्रता नापने की इकाई है। इसका अविष्कार ‘ग्राहमबेल’ बैज्ञानिक ने किया था। आधुनिक वैज्ञानिकों का कहना है कि 150 डेसीबल की ध्वनि बहरा भी बना सकती है। 160 डेसीबल की ध्वनि त्वचा जला देती है। 180 डेसीबल की ध्वनि मौत की नींद सुला सकती है। 120 डेसीबल की ध्वनि ह्रदयगति बढ़ना प्रारंभ हो जाती है। जिससे ह्रदय रोग एवं उच्च रक्त चाप की बीमारी जन्म लेती है। हर मानव को 60 डेसीबल तक की ध्वनि वाले वातावरण में रहना चाहिए प्रदूषण की श्रेणी में 75 डेसीबल से अधिक की ध्वनि शोर आता है। ध्वनि प्रदुषण से आंखों की पुतली का मध्य छिद्र फैल जाता है, आमाशय और ऑतों पर घातक प्रभाव से पाचन क्रिया बिगड़ जाती है। इससे शरीर की प्रति रोधी क्षमता घट जाती है, ग्रनथियों से हार्मोन्स का श्राव अनियमित हो जाता है, स्नायु खिच जाते है, शरीर में थकान, मानसि तनाव, चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती अत: हमें तेज ध्वनि से बचना चाहिए।

यह जानकर खुश होगें की ध्वनि का प्रभाव प्रत्येक जीव के शरीर पर पड़ता है। वर्तमान औधोगिकी करण और तकनीकि से ध्वनि प्रदूषण अधिक मात्रा में बढ़ रहा है। इस ध्वनि प्रदूषण के परिणाम देखते हुये नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. राबर्ट कॉक ने सन् 1925-26 में एक बात कही थी एक दिन ऐसा आयेगा, जब पूरे विश्व में स्वस्थ्य का सबसे बड़ा शत्रु ध्वनि प्रदूषण होगा। यह ध्वनि प्रदुषण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। मानव का मन, मस्तिष्क और शरीर बहुत संवेदन शील हैं। यह ध्वनि तरगों के प्रति भी बेहद संवेदन शील है। जैसे जब कोई संगीत सहित, गीत गाता है,या वाद्य बजाता है तो मन अपने आप उस पर केन्द्रित हो जाता है उसे सुनते ही अंग-अंग थिरकने लगता है, मन प्रसन्रता से भर जाता है, शरीर में आनंद की लहर छा जाती है। इसके विपरीत कानो को अप्रिय लगने वाली तेज ध्वनि सुनाई देती है तब मानव को शारीरिक और मानसिक दोनो तरह की परेशानी होती है। जिससे व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है एवं स्वस्थ्य खराब हो जाता है। वह बहरा और पागल भी हो सकता है। पीएलसी।PLC.

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