वीरू सोनकर की कविताएँ

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वीरू सोनकर की कविताएँ 

1

वह नुकीली नोंक पर सधा रहेगा
और नृत्य करेगा
अपने पैरो को नश्वरवाद रटाते हुए कहेगा,
न पैर रहेगा एक दिन
और न ही मैं
न ही ये दर्द भरी नोंक !
यह दर्द रात के निवाले से नींद में बदल जायेगा
पैर आदेश का गुलाम है
कटता रहेगा
और सहता रहेगा,
हालाँकि पैर चाहता था पूछना,
कटे हुए पैरो पर
खुशबूदार गेहूं की रोटियों के स्वप्न आएंगे न ?
पर पैर चुप रहा,
पैर जानता है नश्वरता से भी बड़ा होता है
व्यक्तिवाद का सिद्धांत,
पैर घूँट-घूँट सहता है
नृत्य करता है
और, वह जानता है
रात की रोटियों का सच
उसके पैर ने कभी भरोसा नहीं तोड़ा
नृत्य लीन सधे पैरो के ऊपर जो सर है
वह स्वप्न से तर है
और
जीभ आश्वस्त है
खुशबूदार गेहूँ की रोटियों के स्वप्न में,
वह नुकीली नोंक पर सधा रहेगा,
नश्वरवाद के प्रलाप पर व्यक्तिवाद को सांसे देता हुआ !
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2..

सरोवर सा था वह,
सरोवर सा ही गहरा, रहस्यमयी
चुप-योग में लीन बुद्ध सा !
सरोवर में
कुछ खोजता था वह
सरोवर के किनारे खड़े-खड़े ही डूबता था वह
किसी मौन संवाद में निर्लिप्त था वह
जो प्रश्न स्वयं से करता था
बाद में, याद से
वही प्रश्न सरोवर से भी करता था वह
सरोवर से मिले उत्तर को
किसी रहस्य सा समेटे था वह
गहरे सरोवर ने जाने क्या बता दिया था उसे !
किनारे होकर भी
सरोवर में रहता था वह
सरोवर सा था वह
सरोवर को खुद में सहेजे था वह !
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3..

ओ बादल,
जब तुम मेरे तटस्थ शरीर से लज्जित हुई
मरुभूमि से गुजर जाना
और
किसी हरे देश तक पहुँचना
तो जरूर कहना
पीछे छूटे मेरे देश की पराजय-गाथा !
कहना,
जब बोल पड़ना था
तब वहाँ के लोग चुप थे
ओ बादल,
हो सके तो
तुम वहीँ बरस पड़ना
उस देश से निकली अभिव्यक्ति की नदी
शायद
मेरे देश को भी हरा कर जाये
बादल,
तुम वहीँ बरस पड़ना
पीले चेहरों वाले
मेरे मौन देश की तुमसे यही गुहार है !
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4..

पुनर्वास चाहिए
सभी-सभी आत्मद्वंद्वो का,
और चाहिए मुक्ति सभी-सभी आत्मविलापो से
मुझे वापस तल में जाना ही होगा
यह जो उत्कर्ष है
जो छन कर निकला है
यह जो आकाश में जगमगा रहा है
यह वह नहीं है !
वह, तो बस वहीँ है
गहरी आत्मविवेचनाओ के घेरे में,
वहीँ तो वह कविता है
जो प्रसव-काल से गुजर रही है
उसका जन्म आकाश पर नहीं होगा
आत्मद्वंद्व तय करेंगे उसका असली चेहरा
और तय करेंगे
उसका सामूहिक विलाप !
ये विलाप जन्मेंगे एक नया उत्कर्ष,
खुद को खोज चुके हँसते हुए चेहरों का एक नया समूह !
आत्मद्वंद्व इनके लिए कोई पीड़ा नहीं होगी,
ये इसी पृथ्वी पर होगा,
इसीलिए गहन अंधेरो वाले तल चाहिए मुझे !
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5..

ताकि
कवच टूट जाये कछुए का,
और सर
शर्म से छुप न सके
घोघें की चाल चलने से “चलते रहने” का भ्रम भी टूट जाये.
जान जाये ये कि,
ये आगे नहीं पीछे लौट रहे है
और खुल सके
इनके रीढ़विहीन होने का सच,
पक्षधरिता का नंगा सच सामने आ सके,
और फिर से,
स्थापित हो सके
उस निर्मम कहावत का सच,
जहाँ चोर-चोर मौसेरे भाई हुए थे !
जैसे
साबित किया गया था कभी
सौ झूठ मिल कर एक सच पर भारी होते है
चाहूँगा कि
उन सौ झूठ का पर्दा गिरे
और एक तेज़ रौशनी फ़ैल जाये
जहाँ
इन्हें दिख सके
इनका खुद का असली सच !
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verru-sonkarpoet-veru-sonkar-poem-of-veeru-sonkar1परिचय -:

वीरू सोनकर

कवि व् लेखक

शिक्षा- : क्राइस्ट चर्च कॉलेज कानपूर से स्नातक   उपाधि (कॉलेज के छात्र संघ कवि व्म लेखक हामंत्री भी रहे )
डी ए वी कॉलेज कानपूर से बीएड

संपर्क – : क्वार्टर न. 2/17,  78/296, लाटूश रोड,   अनवर गंज कालोनी, कानपूर
veeru_sonker@yahoo.com, 7275302077

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