हिजाब विवाद: धार्मिक जड़ता बनाम संवैधानिक अधिकारों का असमंजस

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– जावेद अनीस – 


लेखक , रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता


साम्प्रदायिक विभाजन की आग अब तालीमों-इदारों तक पहुंच चुकी है. देश में साम्प्रदायिक राजनीति और समाज की धार्मिक कट्टरता अब हमारे शैक्षणिक परिसर जैसे सावर्जनिक स्थानों को भी अपने ज़हर में डुबो लेने को आतुर नजर आ रही हैं. स्कूल और कालेज के परिसर जहां पढ़ने वाले छात्रों को अपने “विद्यार्थी” पहचान के साथ एक साथ मिलकर शिक्षा पर ध्यान करना था वे एक दूसरे के खिलाफ “जय श्री राम” और “अल्लाह-हू-अकबर” का नारा लगा रहे हैं. कर्नाटक के हालिया घटनाक्रम से शैक्षणिक परिसर जैसे सावर्जनिक और संवेदनशील स्थानों के साम्प्रदायिक नूरा कुश्ती के नये केंद्र बनने का खतरा पैदा हो गया है. इस मामले में कोई भी पक्ष दूध का धुला हुआ नहीं है सभी देश की एकता और सौहार्द की कीमत पर अपने साम्प्रदायिक व बुनियाद-परस्त मंसूबों को पूरा करना चाहते हैं. इस पूरे मामले में देश के दो सबसे बड़े धार्मिक समुदायों के दक्षिणपंथी अपने-अपने एजेंडों के साथ आमने-सामने हैं जो अपने-अपने समुदाय के विद्यार्थियों को बुरका और भगवा गमछा पहनाकर चारे के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं. इन सबके बीच संविधानवादी और प्रगतिशील समूहों में इसको लेकर असमंजस्य की स्थिति देखने को मिल रही है जो की स्वाभाविक भी है. भारत जैसे मुल्क में सावर्जनिक मामलों में धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के निजी पहचान का मामला बहुत नाजुक है और कई बार इसे सिर्फ ब्लैक या व्हाइट तरीके से नहीं देखा जा सकता है.

कर्नाटक के हिजाब विवाद में कालेज प्रशासन की तरफ से यह तर्क दिया जा रहा है कि क्लासरूम की “एकरूपता” करने के लिए कॉलेज में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने पर रोक लगायी गयी. कर्नाटक के शिक्षा मंत्री का बयान भी काबिले गौर है जिसमें वे कहते है कि “स्कूल और कॉलेज धर्म का अभ्यास करने के लिए जगह नहीं हैं.” उनके विभाग द्वारा भी कहा गया कि “लड़के और लड़कियों का अपने धर्म के अनुसार व्यवहार करना समानता और एकता को ठेस पहुँचाता है”. कुल मिलाकर परिसर में हिजाब का उनका कोर तर्क यह है कि धार्मिक प्रतीकों और अभ्यास को शिक्षा जैसे सावर्जनिक क्षेत्र से बाहर रखना चाहिये.

भारत के संदर्भ में यह एक आदर्श सुझाव है लेकिन इसके साथ ही एकतरफा भी. दरअसल आज धर्म को सार्वजनिक क्षेत्र से बाहर रखने की मांग करने वाली हिन्दुत्ववादी ताकतें खुद ही इसमें पूरी तरह से डूबी हुयी हैं. वे अल्पसंख्यक समुदायों खासकर मुस्लिम और ईसाइयों द्वारा सावर्जनिक क्षेत्र में धार्मिक प्रतीकों और अभ्यास का विरोध तो करती हैं लेकिन इस मामले में वे बहुसंख्यक हिन्दू धर्म के सावर्जनिक प्रदर्शन और वर्चस्व भी चाहती हैं. उनके लिए हिजाब पर प्रतिबंध की मांग का कोर मकसद अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय का बहिष्कार और हिन्दुओं का ध्रुवीकरण है, जोकि हिन्दुतत्व के विचारधारा का मूल भी है.इसीलिए हिंदुत्व समर्थक छात्र भगवा गमछा और पगड़ी धारण करके एक समान ड्रेस कोड की मांग करते हुए नजर आते हैं. समान नागरिक संहिता हमेशा से ही संघ परिवार का कोर मुद्दा रहा है. भारतीय जनता पार्टी लम्बे समय से समान नागरिक संहिता की वकालत करती रही. इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि वे इस संवेदनशील मुद्दे का इस्तेमाल हिन्दू “वोट बैंक” को साधने के लिए करती रही हैं. इसके बहाने वे मुस्लिम समुदाय को अपने निशाने पर लेती रही हैं जो की और भी खतरनाक है.

भारत में बहुसंख्यक के हिन्दुत्ववादीयों के लगातार मजबूत और निर्णायक होते जाने के साथ-साथ मुस्लिम साम्प्रदायिकता भी मजबूत हुई है जोकि इस बात को साबित करती है कि एक प्रकार की साम्प्रदायिकता दूसरे प्रकार की साम्प्रदायिकता को खाद-पानी देने का काम करती है. हिन्दू दक्षिणपंथियों की तरह मुस्लिम दक्षिणपंथ भी धर्मनिरपेक्षता के विचार के प्रति कभी भी सहज नहीं था और इसे एक प्रकार से धर्म विरोधी ही मानता रहा लेकिन इसी के साथ ही उसने धर्मनिरपेक्षता का उपयोग अपने कट्टरपंथी और दकियानूसी एजेंडों को आगे बढ़ाने के एक सुविधाजनक साधन के रूप में किया. धर्मनिरपेक्षता की आड़ कई भावनात्मक और प्रतिगामी मुद्दे उठाये गये, इसका सबसे बड़ा उदाहरण शाहबानो केस है. मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली पांच बच्चों की मां शाहबानो को भोपाल की एक स्थानीय अदालत ने गुजारा भत्ता देने का फैसला किया था.सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले को उचित ठहराया था, लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा इस फैसले को मुस्लिम समुदाय के पारिवारिक और धार्मिक मामलों में अदालत का दख़ल बताते हुए पुरज़ोर विरोध किया गया और तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार ने दबाव में कानून बदलकर मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए “मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986” पारित कर दिया. कुछ महीने पहले इसी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड द्वारा यह मांग की की गयी है कि भारत में ईशनिंदा के खिलाफ कानून बनाया जाये. हालांकि बोर्ड ने अपनी इस मांग को व्यापकता देते हुए किसी भी धर्म की हस्ती के खिलाफ बातें करने वालों के खिलाफ कानून बनाने की बात की है लेकिन उनके असली मंशा को समझान मुश्किल नहीं है. पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून के   खौफनाक नतीजों के बावजूद इस तरह की मांग खतरनाक है.

कर्नाटक में हिजाब के मामले में कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों की भूमिका को भी समझना जरूरी है. बताया जा रहा है कि कर्नाटक में हिजाब विवाद में पीएफआई(पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया) की छात्र शाखा कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया और फ्रेटरनिटी मूवमेंट जैसे संगठन शामिल हैं. पीएफआई की कट्टरपंथी विचारधारा छुपी हुयी नहीं है. फ्रेटरनिटी मूवमेंट के भी “जमात ए इस्लामी” के राजनीतिक शाखा वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के साथ गहरे जुडाव बताये जा रहे हैं.

मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा कर्नाटक के कालेज में हिजाब की मांग कर रही लड़कियों को सभी मुस्लिम लड़कियों के रोल माडल के रूप में पेश किया जा रहा है और उन्हें “इस्लाम की शहजादियां” जैसी उपाधियाँ दी जा रही हैं. इस विवाद के बहाने यह स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि “हिजाब औरतों का ज़ेवर है” और बिना पर्दे की औरतें गुनाहगार होती हैं.

भारत कोई फ़्रांस नहीं है जहां सार्वजनिक जीवन में धर्मनिरपेक्षता बहुत ही ईमानदारी से पालन किया जाता है और यह फ्रांसीसी पहचान का आधार बिन्दु है. भारत में धर्मनिरपेक्षता को “सर्व धर्म समभाव” के रूप में समझा गया है, जिसका अर्थ है राजसत्ता सभी धर्मों के साथ समानता का व्यवहार करेगी और शासन के लिए सभी धर्म समान होंगे. साथ ही संविधान द्वारा सभी को अपना धर्म मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने के लिए अधिकार भी दिया गया है लेकिन इस देश में बहुत पहले से ही स्कूल, कालेज, सरकारी आफिस, पुलिस थाना जैसे सावर्जनिक स्थानों आदि में बहुसंख्यक हिन्दू प्रतीकों और अभ्यासों को देखा जा सकता हैं. अब हिन्दुत्ववादी इस विशेष अधिकार  को बढ़ाते हुए एक भारत की पहचान बना देना चाहते हैं पूरी तरह से हिन्दू रंग में रंगा हुआ एकरूप भारत.

हम भारतीयों को समझना जरूरी है कि इस देश को “हिन्दुत्व” या “शरिया” के माध्यम से संचालित नहीं किया जा सकता है और ऐसी कोशिश करने वाले इस देश और समाज के सबसे बड़े दुश्मन है. भारत का विचार व्यापक और गहरा है यह बहुरंगी है और इसे सिर्फ आधुनिक और समावेशी संविधान और मूल्यों के द्वारा ही संचालित किया जा सकता है. इस देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती कट्टरता और तनाव किसी के लिए भी मुफीद नहीं है.

 

परिचय – :

जावेद अनीस

लेखक , रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता

लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़  कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द  के मुद्दों पर काम कर रहे हैं,  विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !

जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास  मुद्दों पर  विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और  वेबसाइट में  स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !

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