समाज में जड़े गहरी करता अंधविश्वास – कौन है जिम्मेदार ?

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– संजय रोकड़े –

sumitra mahajan aur andh vishwas, हमारे भारतीय समाज खासकर सवर्ण जातियों में अंध विश्वास की खाई दिन ब दिन गहराती जा रही है। जिस तरह से समाज में अंध विश्वास अपनी जड़े जमा रहा है उसे देखते हुए तो कह सकते है कि देश में वैज्ञानिक चेतना के विकास या प्रचार-प्रसार के लिए अब तक की गई तमाम कोशिशें लगभग बेमानी ही साबित हो रही है। जब राजनेता व नौकरशाही से जुड़े जागरूक समझे जाने वाले लोग भी अंध-मान्यताओं के हिसाब से अपनी दिनचर्या और कार्य व्यवहार तय करते दिखते है तो समझना और भी मुश्किल हो जाता है कि अभी तक विज्ञान के क्षेत्र में हमारी सभी उपलब्धियों का हासिल क्या रहा है। हाल ही में मध्यप्रदेश के निमाड़ व मालवा अंचल में मानसूनी बारिश रूकने से सभी लोग परेशान व चिंतित होने लगे थे। ऐसे में हर इंसान इंद्र देवता को मनाने की जुगत में जुट गया था। इंद्रदेव को मनाने के बहाने हर कोई टोने-टोटके, तंत्र-मंत्र करने में मशगूल था। हमारे देश की लोकसभा अध्यक्ष व इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन भी इस मामले में कहां पीछे रहने वाली थी। वे भी बीते दिनों इंदौर के पंढरीनाथ स्थित इंदे्रश्वर मंदिर में पहुंच कर रूद्राभिषेक करने लगी। इस रूद्राभिषेक का आयोजन उनकी ही संस्था अहिल्योत्सव समिति ने किया था। इस समिति में उनकी ही मराठी जाति के चाहने वालों का बाहुल्य है।

सुमित्रा रूद्राभिषेक में शामिल होती वहां तक तो ठीक था लेकिन वह इंद्र को मनाने वाले विशेष पूजा-पाठ व तंत्र-मंत्र के समय भी मौजूद रही। यहां तक भी ठीक था लेकिन उनने अंध विश्वास की सारी हदे लांघते हुए माला भी जपना शुरू कर दिया। अंध विश्वासी सुमित्रा ने माला इसलिए जपी की उनके इस कृत्य से ईश्वर खुश होकर झमाझम बारिश करने लगेगें। बता दे कि लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के इस कृत्य के ठीक चार-पांच दिन बाद शहर व आसपास के इलाकें में झमाझम बारिश भी होने लगी। इसको लेकर उनके चमचों ने तो और भी हद कर दी। इस झमाझम बारिश को श्रीमती महाजन का चमत्कार बताते हुए चमचों ने ईश्वर को भी सरा-सर नकारने का कुत्सित प्रयास किया। बहरहाल सुमित्रा के इस रूद्राभिषेक में शामिल होने व माला जपने के बाद शहर में समाज के हर तबके में मतभिन्नता उभर कर सामने आ गई है। शहर के प्रबुद्ध वर्ग ने इसे नाजायज कार्य करार देते हुए सुमित्रा पर सीधे प्रहार करते हुए कहा कि अपने बीस-पच्चीस वर्षों के कार्यकाल के दौरान सांसद होने के नाते वह शहर में पानी की समस्या पर ईमानदार कोशिश करती, शहर के तालाबों की समृद्ध परंपरा को जिंदा रखती तो यह दिन देखने को नही मिलते। इंदौर में सबसे अधिक वृक्ष हुआ करते थे, पानी के वितरण व प्रबंधन की भी अपनी सुदृढ व्यवस्था हुआ करती थी लेकिन शहर की एक नेतृत्वकर्ता होने के नाते कभी भी उनने इस तरफ ध्यान नही दिया और यह समृद्ध परंपरा शनै: शनै: खत्म हो गई। अब वे जनता को दिखाने के लिए बेवजह के रूद्राभिषेकों में शामिल होकर माला जपने का काम करे तो उनको यह शोभा नही देता है।

माला ही जपना था तो शहर के नेतृत्व की जिम्मेदारी के लिए सामने क्यों आई। शहर में उनकी ही पार्टी के नेताओं ने इस कृत्य को गैर आवश्यक बताते हुए कहा कि एक जनप्रतिनिधि को हमेशा जनता से जुड़े मुद्दों व कार्यों से सरोकर रखना चाहिए अंध विश्वास में भरोसा नही करना चाहिए। एक नेता ने तो इतना तक कह दिया कि वे माला ही जप सकती है। अब तक शहर के लिए किया ही क्या है दो-चार रेल दिलाने के सिवाय। अभी भी उनके पास शहर को बड़ी सौगात देने के लिए स्वर्णिम अवसर है लेकिन यह शहर की जनता का दूर्भाग्य ही है कि वे अभी भी माला ही जप रही है। हालाकि हम माला जपकर पानी के लिए ईश्वर को मनाने के इस कृत्य के लिए सुमित्रा को दोषी नही ठहरा सकते है।

यहां पूरे के पूरे समाज में अंध विश्वास की जड़े गहरी हो चुकी है। हालाकि एक जिम्मेदार महिला होने के नाते उन पर यह सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि आखिर इस तरह के ढकोसले से ही तमाम काम हो सकते थे तो फिर देश के आम गरीब के टेक्स की राशि को व्यर्थ में ही वैज्ञानिक अनुसंधानों में क्यों गवाई गई। यहां यह सवाल तो फिर भी मौजूं है कि आखिर माला जपना सही है या वैज्ञानिक अनुसंधान करना उचित है। जिस तरह से समाज में अंधविश्वास की जड़े मजबूत होती जा रही है उसे देखते हुए तो कह सकते है कि टोना-टोटका भारतीय मानस के लिए कोई नई बात नही रह गई है। आज भी इस पर आंख मूंद कर भरोसा करने वालों की हमारे यहां कमी नही है फिर सुमित्रा भी तो इसी समाज का एक अंग है। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब कोई राजनेता वह भी समझदार माना जाने वाला इस तरह का कृत्य करे। ऐसे कृत्योंं से यह अशंका भी मजबूत होती है कि कहीं अधंविश्वास को बनाए रखने और इसे बढ़ावा देते रहने की सोच हमारी व्यवस्था में ही तो निहित नही है। हालाकि इस तरह के कृत्य करने वाले नेताओं की राजनीति में खासकर भाजपा में कमी नही है। हाल ही में झारखंड़ के मुख्यमंत्री बने रघुबर दास भी अंध विश्वासियों की ही श्रेणी में रखे जा सकते है। इन जनाब के दिलों-दिमाग में किसी ने यह शंका पैदा कर दी कि मुख्यमंत्री का सरकारी आवास 3 कांके रोड़ भूत बंगला है,इस बंगले में भूतों का ड़ेरा बना रहता है जो भी यहां रहता है अपना कार्यकाल पूरा नही कर पाता है। फिर क्या था रघुबर ने अपनी शंका का निवारण करने और बाहरी भूत बाधाओं को यहां से भगाने के लिए न जाने कितने जतन कर ड़ाले। सरकारी आवास में प्रवेश करने के पूर्व रघूबर ने यहां हवन-यज्ञ कर्म- कांड़ , तंत्र-मंत्र और तमात तरह की वास्तु पूजाएं करवाई। इसके बाद 30 जनवरी को यहां प्रवेश किया। वे आज भी इस बंगले के प्रवेश द्वार का उपयोग वास्तुशास्त्र के हिसाब से ही करते है। रघुबर ने इस बंगले के पूर्वी द्वार का इस्तेमाल करना तय इसलिए किया कि उन्हें किसी पंडि़त ने बता दिया कि ऐसा करने से भूत-प्रेत व बाहरी बाधाओं का प्रभाव कम होगा। वे अब प्रवेश के पूर्वी द्वार का ही प्रयोग करते है। जब तक इस आवास में अंध विश्वास से नाता रखने वाले सारे काम संपन्न नही हो गए थे तब वे यहां प्रवेश करने का नाम तक नही ले रहे थे। कुछ-कुछ इसी तरह का काम अपने इस कार्यकाल के पहले वसुंधरा ने भी किया था। वसुंधरा ने तब राजस्थान में बरसात न होने पर एक बड़ा धार्मिक अनुष्ठान करवाकर न केवल अंध विश्वासी महिला होने का परिचय दिया था बल्कि इन कर्मकांड़ों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया था। जब उमा भारती मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री थी तब उनने भी पुलिस में व्याप्त असुरक्षाबोध को दूर करने के लिए महामृत्युंजय का जाप करवाया था। कुछ इसी तरह का कृत्य कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने अपनी सरकार बचाने के लिए किया था। येदियुरप्पा ने उस समय सरकार बचाने के लिए न केवल मंदिरों में पूजा-अर्चना कि थी बल्कि दुष्ट आत्माओं से रक्षा के लिए एक पुजारी से प्राप्त ताबीज को भी ग्रहण किया था।  इतना ही नही किसी तांत्रिक के कहने पर विधानसभा सौध के पूर्वी फाटक तक को बंद करवा दिया था और उस पर यह नारा लिखवा दिया कि-सरकार का काम ईश्वर का काम है। अंधविश्वास को लेकर कर्नाटक में ही हाल के दिनों में एक ओर अलग तरह की खबर बीते दिनों सामने आयी थी।

इस खबर के मुताबिक बेंगलुरू के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का आरोप था कि जेड़ीएस याने जनता दल सेकुलर के कार्यकर्ता उन पर काला जादू करते है। इस दौरान वहां कांग्रेस कार्यकर्ताओं को हितायत भी दी गई थी कि वे पार्टी आफिस के सामने लाल कपड़े में लिपटी बोंतलों को न छूएं। जेड़ीएस कार्यकर्ताओं पर यह भी आरोप लगाया गया था कि वे आफिस के सामने चूडिय़ां और नीबू फेंक देते थे। एक सियासी पार्टी काला जादू करे और दूसरी उससे डरे भी यह भारत में ही संभव है। इस खबर के विस्तार में जाएं तो पता चलता है कि यह पूरी लड़ाई पार्टी के आफिस पर कब्जे को लेकर थी। जिस आफिस के पीछे यह प्रपंच रचा गया था वह पहले कभी कांग्रेस के पास हुआ करता था लेकिन बाद में इस पर जेड़ीएस का कब्जा हो गया था। मामला अदालत में गया। इसके बाद यह आफिस फिर से कांग्रेस के पास आ गया। कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं के आरोप से तो यही लगा कि जेड़ीएस कार्यकर्ता कथित तौर पर काला जादू के माध्यम से इसे हथियाना चाहते थे या जादू का डऱ दिखा कर कांग्रेसियों से इस आफिस को स्वंय छोड़ देने का दबाव बननाने का कुत्सित प्रयास करना चाहते थे। यह कितना हास्यास्पद और अजीब है कि एक पार्टी काला जादू करे और दूसरी उससे डऱे भी। अधंविश्वास से ओतप्रोत इस तरह के वाक्यों की भारत में कमी नही है। इस तरह का यह पहला मामला भी नही है। अक्सर हमें राजनेताओं द्वारा वास्तु और ज्योतिष के हिसाब से घरों व कार्यालयों का चुनाव या उसमें फेरबदल कराने की कोशिशें भी देखने-सुनने को मिलती रही है। करीब पांच साल पहले दिल्ली में नगर निगम के मुख्यालय में बैठक को लेकर भी अफसरों के बीच में काफी झिझक देखी गई थी। उस समय दिल्ली नगर निगम के नए आफिस में बैठने को लेकर बड़े-बड़े अफसरों को इस बात से असुविधा हो रही थी उनके बैठने की जगह वास्तुशास्त्र के अनुकूल नही थी।

मिंटो रोड़ पर बनी उस इमारत में अफसर तब तक नही गए थे जब तक की उनकी बैठक को वास्तु के अनुरूप नही बनाया गया। इस प्रकिया में महिनों विलंब हो गया था, उसके बाद विभाग स्थानांतरित किए गए थे। इस दौरान आम इंसान हेरान परेशान होता रहा लेकिन जिम्मेदारों को इससे कोई सरोकार नही था। देश को दिशा देने वाले कर्णधारों को लेकर अंधविश्वास की ये खबरे हमें जब तब पढऩे-सुनने व देखने को मिलती रहती है। हमारे ये नीति निर्धारक ज्योतिषियों ,तांत्रिकों , वास्तुविदों की सलाह पर अच्छा मुहूर्त देख कर पर्चा दाखिल करने, सरकारी आवास का नंबर चुनने और खिडक़ी दरवाजे की दिशा बदलने, झाड़-फूंक वाले ताबीज पहनने से भी गुरेज नही करते है। हम दुनिया के सामने अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर भले इतरा लें, लेकिन इस हकीकत से मुंह नही मोड़ सकते है कि देश के एक बड़े तबके के जीवन में अंध विश्वास घुल- मिल सा गया है। आज भी झाड़-फूंक, गंड़ा-ताबीज, ड़ायन-ओझा, पशु या नरबलि जैसी कुप्रथाओं से निपटना एक बड़ी चुनौती भरा काम है। आजकल धर्म के आधार पर ऐसी-ऐसी बाते की जाने लगी है, जिनका कोई वैज्ञानिक या तार्किक आधार नही है। गणेश को दूध पिलाने जैसी घटनाएं भी लोगों को अभी तक भुलाए नही भूली है। इसके कारणों पर भी विचार किया जाए तो पता चलता है कि अंध विश्वास का उपयोग संपत्ति पर कब्जे के लिए या लोगों को विचारशून्यता में धकेलने के लिए ही किया जाता है। महारष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक नरेन्द्र दाभोलकर और उसके कुछ दिनों बाद गोविंद पंसारे की हत्या के बाद यह सवाल और ज्यादा गंभीर हो जाता है कि आखिर सरकारे अंध विश्वास के खिलाफ सख्त कानून बनाकर उसका पालन क्यों नही करवाना चाहती है।

क्यों राजनीतिक दलों के प्रमुख अपने दलों में इस बात का प्रावधान नही करते है कि अंध विश्वास को बढ़ाव देने वालों के खिलाफ शख्त दंड़ात्मक कार्रवाही की जाएगी। हालाकि इसके खिलाफ कड़े कानून भी बने है लेकिन सवाल है कि जब नियम कायदों को अमलीजामा पहनाने वाले लोग ही स्थितियों को तर्कों की कसौटी पर परखने के बजाय एक अंधी दौड़ में शामिल हो जाएं तो आम लोगों में तर्कसंगत सोच के विकास की उम्मीद भला कितनी की जा सकती है। बहरहाल जिस तरह से अंध विश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा है और उसके खिलाफ लडऩे वालों की हत्या की जा रही है उससे तो यही प्रतीत हो रहा है कि कोई न कोई इसे पाल-पोस कर समाज में जिंदा रखने का पक्षधर है।
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sanjayrokadeपरिचय – :

संजय रोकड़े

पत्रकार ,लेखक व् सामाजिक चिन्तक 

लेखक पत्रकारिता से सरोकार रखने वाली पत्रिका मीडिय़ा रिलेशन का संपादन करने के साथ ही सम-सामयिक मुद्दों पर स्वतंत्र रूप से लेखन करते है।

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निवास – : 103 देवेन्द्र नगर अन्नपूर्णा रोड़ इंदौर ,  मो- :  09827277518 ,  ईमेल – :  mediarelation1@gmail.com

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his  own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS

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