राजेश कुमार सिन्हा की कविताएँ

0
16

 

1. सवाल करती है मुझसे

कई बार सवाल करती है मुझसे
मेरी कविता
मै क्यों लिखता हूँ
मै क्यों पन्ने रंगता हूँ
मै पशोपेश मे पड़ जाता हूँ
क्या जबाब दूँ
अंदर बेचैनी सी होती है
तूफान सा उठता है
आनन फानन कुछ पन्ने रंग देता हूँ
शांति मिल जाती है
तभी दूसरा सवाल आ जाता है
कितने स्वार्थी हो तुम
सिर्फ अपना ही सोचते हो
तुम्हें मेरी पीड़ा का ख्याल नहीं आता
तुम्हारी पीड़ा ?
हाँ ,जब मुझे कोई नहीं पढ़ता
मुझे दर्द होता है
असहनीय पीड़ा होती है
मुझे अपना जन्म व्यर्थ लगता है
पर किससे कहूँ मै अपनी पीड़ा
मेरा सृजक ही मुझे दोबारा नहीं पढ़ता
रख देता है सहेज के
संकलन के इंतज़ार मे
ये तुम्हारी नहीं मेरे धैर्य की परीक्षा होती है
माना,मै अच्छी नहीं बनी
क्या ये मेरा क़ुसूर है ?
ज़ाहिर है नहीं
फिर मुझे इसकी सज़ा क्यों ?
मेरा अपमान क्यों ?
सवाल मुझे उद्वेलित कर देता है
मै निरुत्तर हो जाता हूँ
निःशब्द हो जाता हूँ
सोचता हूँ,मौन ही रहूँ

——————————–

2.  यादें

मैंने महसूस किया है की यादें
किसी नई नवेली दुल्हन के मानिंद होती हैं
जो अक्सर लोगों के सामने
सहमी और सकुचाई सी खड़ी होती हैं
मानो किसी मुंजमिद झील का पानी
और पुरसुकून लम्हात मिलते ही
उनकी खामोशी आहिस्ता आहिस्ता
एक नई स र ग म तलाश लेती है
सियाह रातों से निकल कर
रौशनी का दामन थाम लेती है
समझ नहीं पाता आखिर ऐसी कौन सी गिरह है
जो यादों को बाँध कर रखती है
इनकी बेवसी को देख कर
दिल सिमटता हुआ सा लगता है
अपने अपने माज़ी के दामन से चिपकी
ज़िंदगी के हर मरहले पे सवाल करती
गमगीन मोहब्बत के मुक़द्दस अशआर सी
अनकहे ,अनसुने और अंजाने अल्फ़ाज़ों को ढूंढती
अपने ही ख्वाबों से बार बार डरती
साये के मानिंद सफर मे साथ साथ चलती
ये मज़लूम यादें इतनी खौफजदा क्यों है
आखिर मैंने इनसे पूछ ही लिया
तुम्हारे खौफ का राज़ क्या है ?
मेरे भाई ,मेरे दोस्त,मेरे राज़दार
मेरा खुद पे नहीं है अख़्तियार
न कोई सुबह,न कोई शाम,न कोई दोपहर
मेरे लिए सब हैं बराबर
न कोई आईना न कोई पत्थर
तुम जिसे समझते और कहते हो, मेरा डर
वो डर नहीं ,मेरे ज़हन का तूफान है
जो बाज़दफा उफनता रहता है
फ़ुर्कत के मरहलों मे कुछ ख्वाब बुनता रहता है
सन्नाटों मे सुकून तलाशता रहता है
शायद हालत –ए-बेख्वाबी मे घुटता रहता है
इसे बेशक अपने हमराह की तलाश है
जो इस मसाफ़त मे कहीं गुम हो गया है
इसलिए अब ये हमसफर बनने से डरता है
इंसानी रंजिश इसने खूब देखी है
फ़ितरतों को बदलना भी खूब देखा है
शायद इसीलिए यह तन्हाई का मुरीद है
जहां सिर्फ एक चेहरा होता है
दोस्त तुम्हारी दुनिया मे इक धुंध है
और् हज़ार चेहरे हैं ,,,,,,,,,,,
(मुंजमिद-जमा हुआ /मरहले -पल /फुर्कत-वियोग /हालत ए-बेखवाबी -अनिद्रा)

_____________________________

3. प्रकाश की किरण

तीव्र अंधकार को
चुनौती देती
प्रकाश की किरण
उसकी बदगुमानी को
बड़े प्यार से है कहती
तूने एक सवाल किया था
जबाब मे देर हुई,,तो
मेरे वजूद को ही नकार दिया था
अपनी नातवानी को
मेरे सिर मढ़ दिया था
मुझे मालूम है
तू ही तो सरगना है
तमाम खुराफ़ातों का
नित्य नई सियासती चालों का
अपने दामन मे पलते अपराधों का
और हद है
मेरी मजबूरी के आलम का
मुझ पर ही लगती है तोहमत
दिन के उजाले मे हुई वारदात
किसी ने कुछ नहीं देखा ?
चर्चा खूब होती है
जलील भी होता हूँ
पर निराश नहीं होता
पता है मुझे
सच सिर्फ सच होता है
जिससे तुझे बहुत डर लगता है
और मै,,हाँ मै
सच का नुमाइंदा हूँ
मेरी हल्की सी आहट
तेरी चीख को दबा देती है
और मेरी शहादत
तेरी रूह को भी ख़लिश देती है
शायद इसीलिए
मै तुमसे डरता नहीं हूँ
बस वक़्त का इंतज़ार करता हूँ
क्योंकि तुम्हारा वक़्त मुअय्यन है
पर मेरा नहीं,,,
मै शाश्वत हूँ ,,,,,अजेय हूँ ,,,,,
अमर हूँ ,,,,,,
(नातवानी –दुर्बलता- मुअय्यन-निर्धारित)

___________________

4. जिन्दगी

जिन्दगी से तेज भागने की
कोशिश में
बजाये पैरों के
जेहन में छाले पड़ गए है
दिमाग में भी सुजन है
चिकित्सक की राय है
आपको अपनी रफ़्तार
कम करने
की/ कोशिश करनी चाहिए
मै परेशान हूँ
और स्तब्ध भी
अगर इस रफ़्तार के बाबजूद
क्रेडिट और डेबिट
का संतुलन
नहीं बन सका तो
इससे कम रफ़्तार
में क्या होने वाला है?
आज
मन और तन दोनों ही
मुझसे इतफाक नहीं रखने
पर अमादा है/मन बार बार
कुछ पाने की ‘जिजीविषा’
की दुहाई देता है तो/तन
चिकित्सक की सलाह की
इसी उहापोह में/नजर
घड़ी की तरफ जाते ही
सब कुछ फिर से यंत्रवत
चलने लगता है
आखिर नौ बजे की
“फास्ट लोकल” जो पकड़नी है.

__________________________

5. एहसास

जब तुम मात्र दो घंटों की थी
तब तुम्हे मैंने
पहली बार/बमुश्किल
गोद में लिया था
दुधिया रंग,छोटी छोटी अधखुली
आँखें/काले काले घने बाल
गोल मटोल सी कपड़े में बंधी
मेरे जेहन में कई भाव उमड़ रहे थे
एक तरफ जीती जागती
गुड़िया के अपने हाथों में
होने का सुखद एहसास
दूसरी तरफ पहली बार
पिता बनने की अजीब अनुभूति
जिसमे जिम्मेदारी और सृजन
के भाव आँख मिचोली खेल रहे थे
इन सबके बीच तुम्हारी छोटी छोटी
आँखें मुझे लगातार
देखे जा रही थी
शायद तुम मन ही मन
ये सवाल कर रही थी कि
पापा आप क्या सोच रहे हैं ?
पर मैंने तो चंद मिनटों में
न जाने क्या क्या सोच लिया
तुम्हारा स्कूल/कॉलेज/उसके भी आगे
तुम्हारे लिए मिस्टर राईट भी
और तुम्हारे दूर जाने कि सोचते ही
मेरे आंसू कि एक बूंद
तुम्हारे चेहरे पर भी गिरी थी
मै परेशान हो गया था
कहीं तुम्हे कुछ हो न जाये
पर तुम बिलकुल शांत थी
अपने पापा कि गोद में
बिल्कुल महफूज/आश्वस्त
पर तुम्हारी आँखें मुझसे
शायद कुछ कहना चाह/रही थीं
पापा आप कितने अच्छे हैं
मुझे गोद में ले रखा है
पर,कुछ लोग हम बेटियों को
क्यों मार देते हैं?
क्या हमें जीने का अधिकार नहीं ?
क्या हमें प्यार का अधिकार नहीं?
क्या ऐसा
सिर्फ इसलिए की मै
“एक बेटी हूँ”

_____________________

rakeshkumarsinha,rakeshsinha poetपरिचय

राजेश कुमार सिन्हा

लेखक व् कवि 

संप्रति –एक सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी मे बतौर वरिष्ठ अधिकारी कार्यरत

प्रकाशन —-राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं मे 500 से ज्यादा रचनाएँ प्रकाशित

फिल्म प्रभाग के लिए दो दर्जन से ज्यादा डॉक्यूमेंटरी फिल्मों ,के लिए लेखन तथा एक डॉक्यूमेंटरी ( The Women Tribal Artist)को नेशनल अवार्ड
बीमा से संबन्धित लगभग 12  पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद

हिन्दी सिनेमा के सौ साल पर एक पुस्तक —अपने अपने चलचित्र -प्रकाशित

संपर्क –10/33 ,जी आई सी अधिकारी निवास ,रेक्लेमेशन , बांद्रा (वेस्ट) मुंबई -50,  मोबाइल -7506345031

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here