शौचालय की बाध्यता पर सवाल

0
15

– अरुण तिवारी –

Deepali-Rastogi-ias,narendrयह सच यह है कि शहरों की बसावट आज शौचालयों की मांग करती है। लेकिन जब बात पूरे भारत के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कह रहा हो, तो नजरअंदाज भारत के गांवों की आबादी को भी नहीं कर सकते; खासकर तब, जब निर्मल ग्राम की एक राष्ट्रीय योजना का लक्ष्य हमारे गांवों में  बसी यह 75 फीसदी आबादी ही है। ’निर्मल ग्राम’ का सपना देखने वाले तर्क देने वाले कह सकते हैं कि शौचालय न होने के कारण करोङों ग्रामीणों को आज भी खुले में शौच जाना पङता है। इससे गंदगी बढती है। खुले में शौच करने के कारण हमारे जलस्त्रोतों में काॅलीफाॅर्म बढता है। बीमारियां बढती है। महिलाओं को शर्मिदंगी का सामना करना पङता है। यह देश के लिए शर्म की बात है।  ऐसे कई तर्क सुनने में वाजिब मालूम हो सकते हैं। लेकिन यदि हम आइना रखकर भारत की 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी वाले नये भारत का अक्स देखें, तो हकीकत इससे जुदा है।

प्रश्न यह है कि यदि आज गांवों को शौचालयों की इतनी ही जरूरत है, तो ग्रामीण विकास मंत्रालय की निर्मल ग्राम योजना में बांटे शौचालय दिखावटी होकर क्यों रह गये हैं ? योजना के तहत् निजी शौचालयों के निर्माण में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान जैसे कई और राज्य के ग्रामीण रुचि क्यों नहीं दिखा रहे हैं ? मैं इस योजना के तहत् बने शौचालयों में बंधी बकरी या भरे हुए भूसे के चित्र खूब दिखा सकता हूं। आखिर कोई तो वजह होगी कि लाख चाहने के बावजूद निर्मल ग्राम योजना केन्द्र सरकार की एक अधूरा सपना होकर रह गई है ? बताने वाले वजह ग्रामीणों के अनपढ होने को भी बता सकते हैं। बूढे कहते हैं कि उन्हे शौचालय में पाखाना साफ नहीं उतरता। गांव की मांजी को शौचालय में घिन आती है।

वजह कुछ भी हो, भविष्य का संकेत साफ है। निर्मल ग्राम के तहत् घर-घर शौचालय का यह सपना आगे चलकर प्रकृति और इसके जीवों की सेहत के लिए एक बङे खतरे का कारण बनने जा रहा है। अनुपात यह है कि जितने ज्यादा शौचालय, उतनी ज्यादा पानी और बिजली की खपत, उतनी ज्यादा सीवर लाइनें, उतने ज्यादा मल शोधन संयंत्र, उतना ज्यादा कर्ज-खर्च, उतना ज्यादा प्रदूषण और उतनी ज्यादा मरती नदियां, उतने ज्यादा विवाद और नदी और हमारी सेहत सुधारने के नाम पर उतना ज्यादा भ्रष्टाचार। आइये! समझें कि कैसे ?

अतीत के अनुभव

याद करने की बात है कि आजादी के पहलेे बनारस में जलापूर्ति की पाइप लाइन भी आ गई थी और अस्सी के गंदे नाले को गंगा से जोङे जाने पर घटना पर मदनमोहन मालवीय ने विरोध भी जता दिया था। लेकिन आजादी से पहले गंगा व दूसरी नदियों के ज्यादातर शहरों में न जलापूर्ति के लिए कोई पाइप लाइन थी और न सीवर ढोकर ले जाने के लिए। नाले भी सिर्फ बारिश का ही पानी ढोते थे। पीने के पानी के लिए कुंए और हैंडपम्प ही ज्यादा थे। समृद्ध से समृद्ध परिवार भी मोटर से पानी नहीं खींचते थे। जैसे ही जलापूर्ति की लाइनें पहुंची, पानी और बिजली की खपत तेजी से बढ गई। इनके पीछे-पीछे फ्लश शौचालयों ने घरों में प्रवेश किया। राजस्व के लालच में सीवर पाइप लाइनें सरकारें ले आईं। लोगों ने त्रिकुण्डीय मल शोधन प्रणाली पर आधारित सेप्टिक टैंक तुङवा दिए। बारिश का पानी ढोने वाले ज्यादातर नाले शौच ढोने लगे। यह शौच आज नदियों की जान की आफ्त बन गया है। भारत में आज कोई ऐसा शहर ऐसा नहीं, जिसके किनारे की नदी का पानी बारह मास पीना तो दूर, स्नान योग्य भी घोषित किया जा सके। देश में कोई एक ऐसी बारहमासी मैदानी नदी नहीं, जिसे मलीन न कहा जा सके। ’निर्मल ग्राम योजना’ इस मलीनता को और बढायेगी। कैसे ?

भविष्य के खतरे

गांवों में अभी शौक-शौक में शौचालय पहुंच रहे हैं। बाद में  जलापूर्ति और सीवर की पाइप लाइनें पहुंचेगी ही। कचरा भी साथ आयेगा ही। दुनिया में हर जगह यही हुआ है। हमारे यहां यह ज्यादा तेजी से आयेगा। क्योंकि हमारे पास न मल शोधन पर लगाने को प्र्याप्त धन है और न इसे खर्च करने की ईमानदारी। शौचालयों की भारतीय चुनौतियाँ साफ हैं। परिदृश्य यह है कि हमारे यहां मलशोधन के नाम पर संयंत्र बढ रहे हैं। खर्च-कर्ज बढ रहा है। कचरा साफ करने का उद्योग बढ रहा है। ठेके और पीपीपी बढ रहे हैं। नदियों की मलीनता केा लेकर विवाद और आंदोलन बढ रहे हैं। लेकिन नदी, हम और इसके दूसरे जीव व वनस्पतियों का बीमार होना घट नहीं रहा। अभी शहरों के मल का बोझ हमारी नगर निगम व पालिकाओं से संभाले नहीं संभल रहा। जो गांव पूरी तरह शौचालयों से जुङ गये हैं, उनका तालाबों से नाता टूट गया है। गंदा पानी तालाबों में जमा होकर उन्हे बर्बाद कर रहा है। जरा सोचिए! अगर हर गांव-हर घर में शौचालय हो गया, तो हमारी निर्मलता कितनी बचेगी ?

खोखले दावे

मलशोधन संयंत्रों से ऊर्जा निर्माण के दावे खोखले साबित हो रहे हैं। मलशोधन पश्चात् शेष शोधित अवजल के पूरे या आधे पुर्नउपयोग का दावा करने की हिम्मत तो खैर! कोई संयंत्र जुटा ही नहीं पा रहा। हकीकत यही है। देश में जलीय प्रदूषण व भूजल का संकट पहले ही कम नहीं है, गांव-गांव शौचालय की जिद्द इसे और गहरायेगी। कचरा साफ करने वाली कंपनियां इससे मुनाफा कमायेंगी। किंतु इससे गांव आगे चलकर बीमारी के साथ-साथ, पानी के बिल और सीवर के टैक्स में फंसेगा और देश कर्ज में। यह सुनियोजित है और सुनिश्चित भी, लेकिन सुखांत नहीं। विश्वास मानिए! अंततः गांव-गांव शौचालय का नारा एक ऐसा बाजारु कुचक्र साबित होगा, जिससे हम चाहकर भी निकल नहीं सकेंगे। क्या हम-आप यही चाहते हैं ?

खुले में शौच का उजला पक्ष

यदि नहीं, तो बयान देने वाले हमारे इन प्रिय नेताओं को कोई हकीकत से रुबरु कराये। कोई बताये कि खेतों पर पङा मानव मल बेकार की वस्तु नहीं है। खेतों में पहुंचा मानवीय मल खेती को समृद्ध करता है। लद्दाख की जिस ठंडी रेती पर बीज को अंकुरित होने मात्र के लिए जूझना पङता है, वहां सिर्फ और सिर्फ मानव मल के बूते ही जमाने तक अन्न का दाना पैदा हो रहा। आज भी जो कुछ थोङी-बहुत खेती है, वह खेतों को उपलब्ध हमारे मानव मल के कारण ही है। बंगलुरु के ‘हनी शकर्स‘ आज भी मानव मल को घरों से उठाकर खेतों में ही पहुंचाते हैं। सच है कि खुले में पङे शौच के कंपोस्ट में बदलने की अवधि दिनों में है और सीवेज टैंक व पाइप लाइनों में पहुंचे शौच की कंपोस्ट में बदलने की अवधि महीनों में; क्योंकि इनमें कैद मल का संबंध मिट्टी, हवा व प्रकाश से टूट जाता है। इन्ही से संपर्क में बने रहने के कारण खेतों में पङा मानव मल आज भी हमारी बीमारी का उतना बङा कारण नहीं है, जितना बङा कि शोधन संयंत्रों के बाद हमारी नदियों में पहुंचा मानव मल।

सच यह भी है कि भारत की घूंघट वाली ग्रामीण बहुओं के लिए आज भी खुले में शौच जाना ही घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का एकमात्र सर्वसुलभ माध्यम है। महाराष्ट्र समेत देश के कई इलाकों में ’निर्मल ग्राम’ के उदाहरण यही हैं। यही वह वक्त होता है, जब वे अपने मन व जुबां को कुछ खोल पाती हैं या यूं कहें कि खुले में शौच जाना ही इन्हे हर रोज सामाजिक होने का एक अवसर देता है, वरना् सास बनने से पहले तक एक ग्रामीण बहू की जिंदगी में सामाजिक होने के अवसर आज भी कम ही हैं। रही बात दिन में खुलें में शौच जाने की शर्मिंदगी से बचने की, तो समझ लेने की बात है, हमारे यहां खुले में शौच जाने को खेते, मैदाने, झाङे या जंगल जाना यूं नहीं कहा जाता था। इनका मतलब ही होता है खेत, झाङी या मैदान की ओट में शौचकर्म करना। जहां ये झाङी-जंगल बचे हैं, वहां आज भी खुले में शौच जाना हर वक्त सुरक्षित विकल्प है।

मैं यहां कोई दकियानूसी सोच प्रस्तुत नहीं कर रहा हूं; आपके समक्ष कुछ जरूरी और जमीनी सामाजिक-वैज्ञानिक तथ्य रख रहा हूं। बढते बलात्कार जैसे कुकृत्य के लिए शौचालय के अभाव को दोषी ठहराना भी आंकङे और हकीकत… दोनो से परे है। हकीकत यह है कि जिन महानगरों में निजी के अलावा सार्वजनिक शौचालयों की कोई कमी नहीं, वहां की तुलना में बलात्कार के मामले आप हमारे गांवों में कम ही पायेंगे। दरअसल, बलात्कार जैसे कुकृत्य के लिए जिम्मेदार सुविधा या साधन का अभाव नहीं, नैतिकता का अभाव है। कहना न होगा कि झाङी-जंगलों के साथ-साथ अपनी नैतिकता को पुनजीर्वित करना बेहतर विकल्प है, न कि शौचालय बनाना। जाहिर है कि जरूरत दो संस्कृतियों और पीढियों के बीच के अंतराल और भ्रष्टाचार की बढती खाई को इस तरह पाटने की है, ताकि फिर कोई देवालय.. असुरालय बन न सके और जब हम सार्वजनिक शौचालयों में जायें, तो वहां बेशर्म जुमले लिखने और संङाध के पैदा होने के लिए कोई जगह ही न हो। तब तक इस देश के बहुमत कोेे न शौचालय चाहिए और न देवालय।

_______________

arun tiwariपरिचय -:

अरुण तिवारी

लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता

1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।

इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम।
साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।

संपर्क -:
ग्राम- पूरे सीताराम तिवारी, पो. महमदपुर, अमेठी,  जिला- सी एस एम नगर, उत्तर प्रदेश ,  डाक पताः 146, सुंदर ब्लॉक, शकरपुर, दिल्ली- 92
Email:- amethiarun@gmail.com . फोन संपर्क: 09868793799/7376199844

Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here