राष्ट्रीय संस्कृति का प्रश्न ?

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sanjeevdutta– सुनील दत्ता –

संस्कृति  का मतलब मोटे तौर पर जीवन शैली से है | राष्ट्र संस्कृति का मतलब राष्ट्र के लोगो का रहन – शान खान – पान , पहनावा – ओढावा आचार – विचार बोली – भाषा , नाच – गाना , आद्त – प्रवृति आदि की तथा सामाजिक  पारिवारिक सम्बन्धो अभिव्यक्तियों की समग्र जीवन शैली  से है | यह जीवन शैली किसी राष्ट्र के विभिन्न धर्मो जातियों क्षेत्रो एवं वर्गो के आपसी भिन्नता के वावजूद उस राष्ट्र की समग्र संस्कृति को झलकाती है |  उनके जीवन शैली अलग – अलग राष्ट्रों की राष्ट्रीयता अस्मिता या पहचान को परीलक्षित करती है |

यह जीवन शैली मुख्यत: राष्ट्र के जनगण के जीवन अस्तित्व की बुनियादी शर्तो एवं आधारों से निर्धारित होती है | उदाहरण  , ब्रिटिश दासता  से पहले इस देश की जीवन शैली मुख्यत: इस देश की चली आ रही पुश्तैनी श्रम  विभाजन से जुडी ग्रामीण अर्थ  व्यवस्था पर . आधारित उपभोग – उपयोग पर टिकी हुई थी | अंग्रेजो से पहले आते रहे विदेशी आक्रमणकारी इस संस्कृति को बहुत कम प्रभावित कर पाए | धार्मिक एवं सामाजिक रूप में ही थोडा बहुत प्रभावित कर सके थे | फिर वे स्वंय यहाँ की जीवन शैली से कही ज्यादा प्रभावित हुए और उसे कही ज्यादा अपनाते हुए इसी राष्ट्र का हिस्सा भी बनते गये |

उस दौर में भी इस राष्ट्र या भूभाग की संस्कृति पुरे राष्ट्र व समाज में एक जैसी नही थी |  वह राष्ट्र में श्रम करने जीने खाने वाले लोगो के कमकर  वर्गीय संस्कृति था दुसरे के श्रम के बदौलत धनी – धनाढ्य एवं उच्च सम्भ्रान्त  वर्गो की संस्कृति के रूप में विभाजित रही | इसका परीलक्षण उच्च  एवं निम्न जातियों की अलग – अलग जीवन शैलियों में होता रहा है | ब्रिटिश राज से पहले तक यही स्थिति बनी रही |

ब्रिटिश ईस्ट – इण्डिया कम्पनी आधुनिक युग के व्यापार की नयी आर्थिक – राजनितिक प्रणाली के साथ नए जीवन शैली या संस्कृति को स्थापित करने या थोपने में सफल रही | उसने इस देश में आधुनिक व्यापार , शिक्षा , शासन – प्रशासन , कानून , रेल , सडक , जैसी यातायात संचार व्यवस्था को खड़ा करने के साथ आधुनिक युग के न्याय का कानून व्यवस्था पर एक नए जीवन शैली  को खड़ा करने और बढाने का काम किया | इंग्लैण्ड में बढ़ते औद्योगिक व तकनीकि विकास ने तथा कम्पनी के व्यापार और उसके राज के विस्तार  ने पुरानी  जीवन शैली या संस्कृति  पर गहरा प्रभाव डाला |

सबसे ज्यादा प्रभाव अंग्रेजी एवं आधुनिक शिक्षा प्राप्त समाज के सम्भ्रान्त हिस्से पर पडा | उनके खान – पान रहन – सहन बोल – चाल  भाषा , आचार – विचार व्यवहार आर ब्रिटिश – संस्कृति  का प्रभाव तेजी से बढने लगा
|  इस सांस्कृतिक  बदलाव ने भी इन हिस्सों को न केवल कम्पनी राज व व्यापार का प्रशंसक समर्थक बनाने का काम  किया बल्कि इस देश की संस्कृति तथा देशवासियों के साथ उनके अलगाव को बढ़ाने का भी काम किया | इन हिस्सों  में ब्रिटिश हुकूमत के उच्च स्तरीय सेवको से लेकर ब्रिटिश हुकूमत द्वाराड़े किये गये जमींदारों का भी खासा हिस्सा शामिल था | फिर 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष के बाद देश के उच्च शिक्षित हिस्सों के अलावा राजाओ , नबावो , ताल्लुकेदारो जमींदारों का व्यापक हिस्सा भी ब्रिटिश संस्कृति का समर्थक बनता गया | उसे कम या ज्यादा अपनाने का काम  करता रहा |

लेकिन बाद के दौर में खासकर 1900 के बाद अंग्रेजी एवं आधुनिक शिक्षा प्राप्त तथा ब्रिटिश कानूनों के जानकार तथा ब्रिटिश राज से असंतुष्ट एवं क्षुब्ध राष्ट्रवादी  हिस्सा भी खड़ा हो गया , जो ब्रिटिश दासता का विभिन्न रूपों से विरोध करने के साथ उनके धर्म , शिक्षा , संस्कृति  का भी मुखर विरोध करने लगा था  | विदेशी मालो , सामानों के बहिष्कार के साथ स्वदेशी  अपनाने का आन्दोलन तथा बाद में चरखा व खादी  आन्दोलन आदि के रूप में सामने आया राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ राष्ट्रवादी संस्कृति – आन्दोलन भी खड़ा होता रहा | इसका परीलक्षण राष्ट्रवादी नेताओं के खान – पान , पहनावे -ओढावे तथा बोल – चाल  आदि में होता रहा |

” राष्ट्र के जन प्रतिनिधियों में राष्ट्रीय संस्कृति का यह  परीलक्षण कमोवेश 1947 के बाद 1980 तक चलता रहा | पर इस सन्दर्भ में यह नही भूलना चाहिए की राज्य कि विधायिका के अलावा कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के
उच्च स्तरों पर ब्रिटिश संस्कृति का ही परीलक्षण होता रहा 1947 के बाद में कोई उल्लेखनीय बदलाव नही हुआ | उसी तरह से देश के उच्च बौद्दिक एवं सांस्कृतिक हिस्से में भी अंग्रेजी संस्कृति  का दबदबा बना रहा | लेकिन
ऐसा हुआ क्यों  ?

क्योकि 1947 में हुए स्वतंत्रता के समझौते में ब्रिटिश प्रशासन तंत्र और उसके कार्यप्रणाली में बदलाव नही किया गया | उसे यानी ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा निर्मित कम्पनी राज एवं उसके प्रशासनिक तथा न्यायिक ढाचे को बनाये  रखकर हस्तान्तरण के रूप में समझौतावादी तथा धनाढ्य एवं उच्च वर्गीय स्वतंत्रता को स्वीकार कर लिया गया | फिर उस स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी विदेशी ताकतों की पूंजी तकनीक से परनिर्भरता को कम करते हुए राष्ट्र  को आत्म निर्भर बनाने का कोई प्रयास ही नही किया गया | जिसके चलते राष्ट्रिय जीवन शैली को भी आधुनिक युग के अनुरूप विकसित करने का भी काम नही हो पाया | ब्रिटिश दासता के समय की विदेशी संस्कृति  बाद के दौर में भी विविध रूपों में जारी रही और बढती भी रही | वह देश के धनाढ्य एवं उच्च वर्गो से होते हुए समाज के पढ़े – लिखे औसत माध्यम वर्गीय में फैलती रही |

उस दौर में विदेशी ताकतों पर ( ख़ास कर अमेरिका और रूस पर ) राष्ट्र की आर्थिक निर्भरता को बढ़ते हुए देश की अर्थ व्यवस्था को विदेशी ताकतों के साथ अधिकाधिक जोड़ने का काम  किया जाता रहा | स्वाभाविक था कि राष्ट्र की अपनी आत्म निर्भरता के अभाव में राष्ट्र  की अपनी संस्कृति का बढना संभव नही रह गया था | फिर 1985 – 90 के बाद से देश में लागु होती रही वैश्वीकरणवादी आर्थिक नीतियों के साथ विदेशी पूंजी तकनीक माल सामान और उसके बढ़ते उपयोग व उपभोग पर निर्भरता और ज्यादा  बढाई गई | देश की अर्थ व्यवस्था को अब वैश्विक स्तर पर एक जुट साम्राज्यी ताकतों के साथ खासकर अमेरिका के साथ सबसे ज्यादा जोड़ा जाता रहा | विदेशी पूंजी तकनीकि माल मशीन आदि के बढ़ते आयात के साथ अव विदेशी संस्कृति का भी खुला आयात किया जाने लगा | फलस्वरूप देश में उत्पादन उपभोग के रहन सहन के पहनावे ओढावे के तौर तरीके में तेजी से बदलाव होता जा रहा है | उपर से नीचे तक के समाज में विदेशी तौर तरीको को अंधाधुंध तरीके से अपनाया जा रहा है |

देश में विभिन्न रूपों में परीलक्षित होती रही संस्कृति पर चिंताए चर्चाये भी की जाती  रही है | हालाकि वैश्वीकरणवादी नीतियों तथा डंकल प्रस्ताव आदि के घटते विरोध के साथ अब उन चर्चाओं चिंताओं में भी भरी कमी आ गई है | क्योकि देश में लागू होती रही वैश्वीकरण वादी उदारवादी तथा निजीकरणवादी आर्थिक नीतियों के साथ उपभोक्ता संस्कृति नीति के नाम की साम्राज्यी संस्कृतिक नीति को लागू किया जाता रहा और उसके प्रति वैचारिक व  व्यवहारिक समर्थन व स्वीकार्यता को भी बढ़ाया गया | इन नीतियों के जरिये न केवल विदेशी माल , सामान और उसके प्रति उपभोग की ललक व लालच को बढ़ाया जाता रहा बल्कि सामाजिक एवं पारिवारिक  सामूहिक समस्यायों चिन्ताओ  को मूल्यों मान्यताओं आदि  को दरकिनार कर अपने स्वंय के जीवन सवारने की संस्कृति को बढ़ावा मिला | शादी  – व्याह के रिश्तो तक को नकारने के साथ बिना विवाह साथ रहने या समलैंगिक शादी करने जैसी अमर्यादित  अप्राकृतिक  एवं विकृत विदेशी संस्कृति को स्वीकार्य बनाया जा रहा है | ईमानदारी और मेहनत से कमाई करने और जीवन जीने की संस्कृति की जगह हर जायज नाजायज तरीके  से कमाई करने और  उपभोग करने की धनाढ्य उच्च वर्गीय एवं हरामखोरी की संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है |

फलस्वरूप अब राष्ट्र के समूचे उच्च एवं बेहतर आय के मध्यमवर्गीय हिस्से में विदेशी संस्कृति का बोलबाला होता जा रहा है | उनमे राष्ट्रिय संस्कृति तथा उनके विभिन्न रूपों का लोप होता रहा है | सामाजिक पारिवारिक अनुशासन एवं नैतिकता की जगह उदंडता  अनुशासन  हीनता और मनमानेपन का परीलक्षण बढ़ता जा रहा है |  क्या यह वैश्वीकरणवादी आर्थिक नीतियी के साथ आती रही विदेशी उपभोक्तावादी संस्कृति नीतियों का ही परिणाम है ?   नि: सन्देह आर्थिक एवं संस्कृतिक जीवन में 1985 – 90 के बाद आता तेज बदलाव इन्ही नीतियों के लागू किये जाने का प्रत्यक्ष परिणाम है पर ये नीतिया 19437से लेकर 1980 – 85 तक देश को विदेशी साम्राज्यी ताकतों पर बढती आर्थिक निर्भरता तथा उनकी अर्थ व्यवस्था के साथ देश की अर्थव्यवस्था के बढ़ते जुड़ाव के चलते ही लागु हो पायी है | अगर 1947 के उस आधे अधूरे  स्वतंत्रता को राष्ट्र के अपने नये शासन प्रशासन तंत्र को विकसित किये जाने के साथ राष्ट्र की पूर्ण राजनितिक शिक्षा संस्कृति  में बदलाव आता तथा राष्ट्रीय आत्म निर्भरता राष्ट्रीय शिक्षा संस्कृति  को निरंतर बढ़ावा दिया जाता तो 1985 – 90 के बाद वैश्वीकरण आर्थिक नीतियों एवं उपभोक्तावादी सांस्कृतिक नीतियों को लागु किये जाने का  आधार  ही नही रह गया या बहुत कम होता | इसीलिए इन नीतियों को लागु करने की जड़ तथा बढ़ते विदेशी संस्कृति की जड़ भी देश की धनाढ्य वर्गीय एवं समझौतावादी स्वतंत्रता व विदेशी ताकतों पर तब से आज तक बढती पर धनाढ्य वर्गीय निर्भरता में  ही देखा जाना चाहिए | इस सन्दर्भ में यह बात नही भूलना चाहिए इसी जड़ से और विदेशी ताकतों के साथ बढ़ते सम्बन्धो से देश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से अपनी धनाढ्यता उच्चता  में बेतहाशा  वृद्दि करते जा रहे है | देश की संस्कृति और देश के जनसाधारण से अलग होते रहे है |

अत राष्ट्र  व समाज  के ये हिस्से और उन्ही के साथ धनाढ्यता उच्चता की ओर बढ़ता अपेक्षाकृत छोटा माध्यम वर्गीय हिस्सा अब राष्ट्रीय संस्कृति को खड़ा करने वाला नही है | इसे खड़ा करने का काम  अब राष्ट्र व समाज के जनसाधारण का ही है जिसका जीवन और जीवन – संस्कृति अब देश दुनिया के धनाढ्य एवं उच्च वर्गो द्वारा चारो तरफ से घेरा और बाजारवादी हमले का शिकार  बनाया जा रहा है | उसके जीवन के आधारों  को काटने के साथ उसके पारिवारिक एकजुटता को तोड़ने उसे मनमानापन – अनुशासन – नशाखोरी असामाजिकता आदि को बढ़ावा दिया जा रहा है | इसीलिए देश के मजदूरो किसानो एवं अन्य जनसाधारण हिस्सों को राष्ट्रीय  सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन को बचाने के लिए राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता स्वतंत्रता के साथ राष्ट्रीय संस्कृति को भी बढावा देना पड़ेगा — यह राष्ट्रीय संस्कृति निश्चित  रूप से आधुनिक युग के अनुरूप जनसाधारण में काम करके जीने खाने की संस्कृति के आधार पर ही खड़ी होगी एवं व्यापक बनेगी देश के जनसाधारण में धनाढ्य एवं उच्च वर्गीय पर जीविता या हरामखोरी की संस्कृति  को अपनाने का आधार नही रह गया है  | इस लेख को लिखते समय बार – बार अदम गोंडवी की यह पक्तिया याद आ रही थी ——

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है —–

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सुनील दत्तापरिचय – : 

सुनील दत्ता

स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

वर्तमान में कार्य — थियेटर , लोक कला और प्रतिरोध की संस्कृति ‘अवाम का सिनेमा ‘ लघु वृत्त चित्र पर  कार्य जारी है
कार्य 1985 से 1992 तक दैनिक जनमोर्चा में स्वतंत्र भारत , द पाइनियर , द टाइम्स आफ इंडिया , राष्ट्रीय सहारा में फोटो पत्रकारिता व इसके साथ ही 1993 से साप्ताहिक अमरदीप के लिए जिला संबाददाता के रूप में कार्य दैनिक जागरण में फोटो पत्रकार के रूप में बीस वर्षो तक कार्य अमरउजाला में तीन वर्षो तक कार्य किया |

एवार्ड – समानन्तर नाट्य संस्था द्वारा 1982 — 1990 में गोरखपुर परिक्षेत्र के पुलिस उप महानिरीक्षक द्वारा पुलिस वेलफेयर एवार्ड ,1994 में गवर्नर एवार्ड महामहिम राज्यपाल मोती लाल बोरा द्वारा राहुल स्मृति चिन्ह 1994 में राहुल जन पीठ द्वारा राहुल एवार्ड 1994 में अमरदीप द्वारा बेस्ट पत्रकारिता के लिए एवार्ड 1995 में उत्तर प्रदेश प्रोग्रेसिव एसोसियशन द्वारा बलदेव एवार्ड स्वामी विवेकानन्द संस्थान द्वारा 1996 में स्वामी विवेकानन्द एवार्ड
1998 में संस्कार भारती द्वारा रंगमंच के क्षेत्र में सम्मान व एवार्ड
1999 में किसान मेला गोरखपुर में बेस्ट फोटो कवरेज के लिए चौधरी चरण सिंह एवार्ड
2002 ; 2003 . 2005 आजमगढ़ महोत्सव में एवार्ड
2012- 2013 में सूत्रधार संस्था द्वारा सम्मान चिन्ह
2013 में बलिया में संकल्प संस्था द्वारा सम्मान चिन्ह
अन्तर्राष्ट्रीय बाल साहित्य सम्मेलन, देवभूमि खटीमा (उत्तराखण्ड) में 19 अक्टूबर, 2014 को “ब्लॉगरत्न” से सम्मानित।

प्रदर्शनी – 1982 में ग्रुप शो नेहरु हाल आजमगढ़ 1983 ग्रुप शो चन्द्र भवन आजमगढ़ 1983 ग्रुप शो नेहरु हल 1990 एकल प्रदर्शनी नेहरु हाल 1990 एकल प्रदर्शनी बनारस हिन्दू विश्व विधालय के फाइन आर्ट्स गैलरी में 1992 एकल प्रदर्शनी इलाहबाद संग्रहालय के बौद्द थंका आर्ट गैलरी 1992 राष्ट्रीय स्तर उत्तर – मध्य सांस्कृतिक क्षेत्र द्वारा आयोजित प्रदर्शनी डा देश पांडये आर्ट गैलरी नागपुर महाराष्ट्र 1994 में अन्तराष्ट्रीय चित्रकार फ्रेंक वेस्ली के आगमन पर चन्द्र भवन में एकल प्रदर्शनी 1995 में एकल प्रदर्शनी हरिऔध कलाभवन आजमगढ़।
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* Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS .

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