प्रतिभा कटियार की कविताएँ

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कविताएँ

1. राष्ट्रगौरव

जगह जगह से आते लोग,
म्रगतृष्णा के बीज बो जाते।
कहीं पनपता अंधविश्वास,
तो कहीं उन्मुक्त रूप से होता हास-परिहास।
शिष्टाचार सदा झलकता,
एैसे भी हैं कई जिले प्रान्त और उनका समाज।
बसते नाटककार और कलाकार जहॉ,
एैसे भी हैं कुछ कुनबे घराने।
जहॉ रचे और गढ़े जाते हैं,
अपनी ही धुन के अफसाने।
साहित्य अपनी जड़ें सींचता,
संगीत भूमि को गुंज्जायमान करता।
नृत्य मन को सराबोर करता,
इनमें भी है कुछ प्रान्तों की पहचान।
पर्यटन मन को मोेह लेता,
दूर-दूर तक फैली प्राकृतिक सुंदरता,
हरे भरे जंगल नदियॉं झरने और पहाड़,
मधुर ताजगी से भर देता,
मन को मिलता एक नूतन अविराम।
समंदर भी करता जल तरंगों से स्वागत,
एैसे कई तट हैं जहॉ,
सूरज मिलाता धरा से क्षितिज को,
मिलाता असीम से पुलकित हो जाता मन,
जब एक सा लगता है धरती और गगन।
जहॉ सदा मिलती है तरावट,
दूर हो जाती सारी थकावट,
घंटा नाद शंख जब बजते,
मंदिर, देवालय अपनी आभा से,
हमारे पथ को प्रकाशित करते,
अद्भुत शान्ति और आनन्द पाते,
जब एैसे पावन छण हमको पास बुलाते।
गगनचुम्बी इमारतें नक्कासीदार भवन,
अपने समृद्ध वैभव को व्यक्त करते,
ऐतिहासिक स्थल देते विरासत की झांकी,
तब लगता है जैसे कितनी समृद्ध है अपनी यह भूमि।

2. किसान

हे अन्नदाता,
जब सुनती हूॅ तुमने
कर्ज ना चुका पाने की स्थिति में
आत्महत्या कर ली
तो रूह कॉप जाती है
जब सुर्खियों में यह घटना
समाचार के रूप में आती है
पहले तो धिक्कारती हॅू
तुम्हारी कमजोर कायर अवस्था पर
फिर बाद में नजर दौड़ाती हॅू
इस देश की मूल व्यवस्था पर
क्या यही वो देश है
जिसकी खातिर लोग शहीद हुए
क्यों दी उन्होंने कुर्बानी
जब दफन ही होनी थी
उनकी सोच पुरानी
क्या कमी रह गयी
जो देश की आधी आबादी
आज भी उपेक्षित रह गयी
पढ़लिख कर सब निकल गये
क्यों जमीन से नाता जोड़ें
साहूकार और सूदखोर से अपना सिर फोडे़ं
कभी सूखा, बाढ़ तो कभी फसल के कम दाम
भाग्य भरोसे नफा नुकसान
आमदनी का नहीं कोई स्थिर हिसाब
बस इसी गणित में खप जाती जीवन की पूरी किताब
कुछ चले गये अपनी जड़ें भी छोड़ गये
जो बचे पढ़ लिख कर शहर जा बसे
खेती-बाड़ी से मुॅह मोड़ गये
कुछ सरकारी बाबू जी बनकर
दफतर से रिश्ता जोड़ रहे
तो व्यापार की एक भनक पाकर
अच्छी कमाई के अवसर खोज रहे
अब कौन सुध ले खेत खलिहान की
जब नहीं है पूछ इसके आन बान और शान की
बेटा बाहर जब  पढ़ने जाता
और पिता का पेशा किसान बताता
तो लगता जैसे कर दिया गया हो बिरादरी से बाहर
नहीं इधर कोई तुम्हारी कदर
यह तो उपेक्षा का एक छोटा नमूना
जहॉ किसान तो बस एक किसान है
ना तो वो सरकारी बाबू
और ना बिजनेस मैन की पहचान है
उपेक्षा के यही दंश वर्षों से झेल रहे
किसान अपनी अस्मिता को पाने को जूझ रहे
वर्षाें पुराना यह भेद
आज आत्महत्या के रूप में प्रकट हुआ
जब स्थिति यहॉ तक पहुॅच गयी
तो अपनी गलती का भान हुआ
सरकार ने सब्सिडी नहीं दी
बीज मशीन और बुआई जोत पर
मीडिया को भी नहीं भाई
घिसी पिटी बातों से चलायें कलम
उन पर कुछ नीरस लिखकर
खुद किसान संगठित नहीं हो पाये
और राजनीतिक दॉवपेंच का शिकार हो गये
बजाय विकास खेत खलिहान के
बनिया ब्राह्ममण ठाकुर यादव
को अपना बहुमूल्य वोट दे गये
जातिवाद भाषावाद धर्मवाद और प्रान्तवाद की
एैसी फसल बोयी
कि उपज भी उसीमें होने लगी
सेठ साहूकार और सूदखोर की
वुरी नजर भी इन पर पड़ने लगी
घोर अशिक्षा कर्ज में डूबी
मरघट सी हवा फिर चलने लगी
एक एक कर जान गॅवाने
की फिर तो होड़ लगी
क्या है कोई समाधान
जो बचा सके मामूली से किसान की जान
बता सके उसको अन्नदाता की पहचान
दे सके विश्वास हौसला उम्मीद
अच्छे दिन हैं तुम्हारे बहुत करीब
थोड़ा सब्र करो मेहनत से मुॅह ना मोड़ो
अपना आत्मविश्वास और हौसला बुलंद करो
खेती बाड़ी में नया कुछ सूत्र जोड़ो
अपनी कमाई का हिस्सा बैंक में छोड़ो
पढ़ो लिखो खेती बाड़ी भी करो
ना खुद कर सको तो किसानों से नाता जोड़ो
दोे सम्मान एकता और भाईचारे का
मिल जुल कर करो सिंचाई पैदावार
बिचौलियों से कर लो दूरी इनको तो करना है व्यापार
खुद अपनी उपज को मिलजुल कर संरक्षित करो
और सीधे उचित दामों के साथ जनता से मिलो
इन्हें भी चाहिए सुरक्षित ताजा कम दाम की उपज
बनेंगे तुम्हारे इनके संग घनिष्ठ संबंध
गन्ना आलू धनिया टमाटर और शकरकंद
आखिर यही तो चाहिए दो जून की रोटी के संग
हे अन्नदाता यही तो है खुश रहने का मूलमंत्र
दाल रोटी से ही भरता पेट क्यों नहीं समझता यह तंत्र

3. बुद्ध की व्यथा

यह कैसा संसार,
जिसमें दुख ही दुख है अपार।
क्या कारण है इस दुख का,
कोई तो बताओ रहस्य इस जग का।
क्या मृत्यु ही है अंत सबका,
फिर क्यों जन्मा जीव,
जब यही हश्र है उसका।
जीवन की यह जटिल पहेली,
कोई तो सुलझाओ इसे,
मेरी बुद्धि है अकेली।
मानवता का यह कैसा नाता,
जो पल भर में सारे नाते तोड़ जाता।
कौन है जगत का रचयिता,
क्या नियम है तेरा इस सृजन का।
कैसी तेरी करूणा,
क्यों भर दी लोगों में तृष्णा,
जो है इस दुख का मूल,
क्या जानकर भी हो गयी है तुझसे भूल।
कुछ तो बता और समझा मुझे,
क्या लाज आती है बताते हुए तुझे।
मिथ्या है ये शरीर,
फिर भी जन्मने को प्राणी अधीर।
जन्म और मरण,
हम किसका करें वरण,
जब दोनों हैं नाशवान,
क्यांे करे आवाहन इनका कोई विवेकवान।

4.बचपन

बहुत पुरानी बात है
बचपन की छोटी सी याद
कह सकते हैं इसे मूर्खता, अज्ञानता
या बालमन की महज एक कल्पनाशीलता
उम्र के तीसरे, चौथे या पॉचवें पड़ाव के बीच
देखी मैंने घर में टंगी एक तस्वीर
तस्वीर थी विष्णु भगवान की
बड़ी, लम्बी हर पल हमारी ओर निहारती
दे रही थी आशीर्वाद हमें वो चार हाथों के बीच
एक हाथ में शंख, दूसरे में था चक्र
तीसरे में गदा और चौथा हाथ था
प्रेम और आशीष से भरा
मेरे मन में थीं
बालमन की ढेरांे जिज्ञासायें
क्यों निहारते रहते हर पल
हमारी ओर खुला हाथ उठाये
बहुत दिनों से बस यही उत्तर पाने को
मन में उठ रहा गहरा प्रश्न था
किससे पूछूॅ मन की बात
क्यों नहीं उठता
औरों के मन में एैसा झंझावात
एक दिन आखिर पूछ ही लिया
घर मंे आये मामा जी से
कहा पीटने के लिए उठा रखा है हाथ
उनके लिए जो बच्चे शैतानी करते
यूूॅ ही उन्होंने मजाक में कह दिया
पर मेरे मन में यह अधूरा उत्तर
ऑखों को खटक गया
प्रकृति का एक सीधा नियम
बालमन के मस्तिष्क पटल पर
अपने बीज रौंप गया
हर क्रिया की होती है विपरीत प्रतिक्रिया
वो आशीष भरा हाथ
जो प्रेम और स्नेह की वर्षा लुटा रहा था
अब मेरे मन में किसी और रूप में खटक रहा था
सब कुछ छोड़ कर दिखता केवल
उनका उठाया गया हाथ
बिना किसी गलती के बस यूॅ ही
मानो मुझे पड़ी हो डांट
जब भी देखती बस उनका हाथ
अब सिर्फ कमरे में मानो
दो जन ही थे
एक मैं थी दूसरे थे भगवान
पर हाय री मूर्ख कल्पनाशीलता
कैसी मची थी संबंधों की खींचतान
वो हाथ जो प्रेम और आशीष दे रहा था
गलत जानकारी के कारण
अब मुझपर यूॅ ही बरस रहा था
मन ही मन तकरार बढ़ चली
भक्त और भगवान की खाई भी उभरने लगी
एक दिन बस यूॅ ही अचानक
सनक का गुबार फूटा
कमरे में थी अकेली, डर का कहर टूटा
कहीं हार ना जाऊॅ
एक मामूली सी तस्वीर के आगे
इससे पहले कि कि वो जड़ दे अपना हाथ
मुझे अकेला पाकर
मैंने दे मारी एक छोटी सी चाबुक
अपने को असुरक्षित मानकर
नादानी की चरम सीमा थी यह
पर नहीं थी मेरी पूरी गलती
मुझे तो बस मिली थी शह
बस यही वो छण था।
बिछाया गया हो जाल जैसे,
मेरी ओर अपलक निहारने का
अब मेरी दुर्बुद्धि का बस अंत था
तस्वीर अब भी मुस्करा रही थी
मेरी ओर अपलक निहार रही थी
कुछ पल मैंने उसे देखा
और फिर अलगाव की बही सीमा रेखा
मैंने तस्वीर की ओर देखना बंद कर दिया
अंदर ही अंदर भय का भूत घुस गया
डरने लग गयी भगवान की उस तस्वीर से
शायद हार गयी थी मैं उस धीर गंभीर वीर से
या चिढ़ा रहे थे अब मुझे वो मुस्कुराती तस्वीर से
आशीष देने की भूमिका में वो अब भी खड़े था
एक नया अध्याय प्रेम का अब वो मन पर गढ़ रहे थे
तर्क से परे है वो अहम से भी ऊपर
वही समझ पाता उन्हें जो विश्वास करता उनपर
हे प्रभु तुम्हारा आशीष रहे सदा हम सभी पर।

5.  आकाश

दूर दूर तक फैली आकाशगंगा,
उस पर दिखती बादलों की छटा,
तूलिका से छिटका हो जैसे श्वेत रंग।
आसमान में बिखरे तारे,
चमकते, टिमटिमाते असंख्य सितारे।
सूर्योदय की लालिमा,
ऑगन में पसरती सुनहली धूप की उष्णता।
दोपहर तक हो जाती घनीभूत,
सर्वत्र प्रकाश की संपूर्णता।
उड़ते परिंदे कतारबद्ध,
ना जाने कहॉ झुंड के झंुड।
आसमानी ऑगन का विस्तार,
उन्मुक्त, स्वतंत्र, लेते होड़,
दूर दूर तक कोई ना ओर-छोर।
अस्तांचल की ओर जाता दिवाकर,
सुर्ख लाल होती वो रविकिरण,
आकाश में होता प्रकाशीय व्यतिकरण,
आधी दूरी नापती,
आसमानी गोद में उजली किरण।
सघन काले बादल,
आकाश मार्ग की ओर से आते,
वर्षा ऋतु के संवाहक।
भू पर गिरते, झमाझम- बरसते,
ओला वृष्टि करते,
जलसिंचन को आते,
आसमानी छटा का नव स्वरूप दिखाते।
वो इंद्रधनुषी छटा,
सात रंगों के मेल से बनी,
प्रकाश की असल कथा,
आसमानी कैनवास पर उकेरती,
प्रकाश और वारिश की अंतर्दशा।
बादलों की कड़कड़ाहट,
आसमान में छितराते,
घने काले बादलों के सघन कण।
चमकते गरजते आवेशित विद्युतीय छण।
पूर्णिमा और अमावस के बीच,
आसमान में खेलती वो चंचल चंद्रकला,
सितारों के बीच चमकती चांदनी उजली निशा।
असीम अपरिमित अनन्त आकाश की विस्तृत दिशा।

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प्रतिभा कटियार

कवयित्री ,लेखिका व् शिक्षिका

एचओडी मास कमन्युनिकेशन , रामा विश्वविद्यालय कानपुर

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1 COMMENT

  1. बहुत ही सुंदर और उम्दा कविताएं। बचपन की यादों के साथ, एक अच्छा और सच्चाई को बांटने वाला वाला अनुभव।

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