आयुष झा आस्तीक की पाँच कविताएँ

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आयुष झा आस्तीक की पाँच कविताएँ

(1) शिकारी और शिकार
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पश्चिमी तट आशंका से
पूर्वी तट संभावना तक
बहने वाली नदी में
परिस्थितीयों के
असंख्य मगरमच्छ ।
संभावना यह है कि
नदी के दुसरे किनारे पर
जो बंदरगाह है
वहाँ से धूँधली दिखाई देती है
एक चाॅकलेटी पहाड की चोटी !
वो दूर उसी चोटी पर
जो एक सुनसान मंदीर है ना !
उस मंदीर में प्रसाद के बदले में
बाँटी जाती है चिट्ठीयाॅ !
चिट्ठीयों में दर्ज है
तुम्हारी बदनसीबी का फलसफा
कि तुम्हारा जन्म ही हुआ है
आशंका और संभावना के मध्य
बहने वाली इस नदी में
डूबते-उतरते हुए
मगरमच्छ का आहार
बनने के लिए ।
हा हा हा हा
ताज्जूब है ना !
मगर हकीकत यही है मेरे दोस्त ।
परजीवी है यह दुनिया !
और तुम्हें भेजा ही गया है
किसी शिकारी का
शिकार बनने के लिए ।
संतोष बस यह कर लो
कि हरेक शिकार
खुद शिकारी हुआ करता है पहले !
और नियति यह है कि
एक ना एक दिन
हरेक शिकारी का
शिकार किया जाता है
ठोक बजा कर ।
दिलचस्प तो यह है कि
कभी कभी शिकारी
जंगल में भटकते हुए
स्वयं ही कर बैठता है
अपना शिकार ।
और हाँ सच तो यह है कि
जन्म जन्मांतर से
घटीत होने वाली
इस श्रृंखलाबद्ध
जैवीक प्रक्रिया से
उबरने के बजाए
कुछ डरपोक/आलसी
शासकों ने
शुसोभित किया है इसे
किस्मत के नाम से …
बेचारी जनता
और भेड-बकरियों में
फर्क ही कहाँ है कुछ ज्यादा !
जो तथ्य को महसूस कर
उसे जाँचने परखने के बजाए
गर जानती है
तो सिर्फ और सिर्फ
अनुसरण करना ।
हम बस वही सुनते हैं
जो सुनाया गया हो !
हम बस वही देखते हैं
जो दिखाया गया हो !
और स्वयं को होशियार
समझने की गलतफहमी में
माखते रहते हैं
पग पग पर विष्टा …
दरअसल
यह हमें इनसान से
भेड बकरियों में
तब्दील करने की
एक साजिश है दोस्त !
जबकी हाँक रहा है
कोई चरवाहा हमें
विपरीत दिशा की ओर …
सुनो !
मैं अभी
इस समस्या के निराकरण पर
नही लिखूंगा कोई कविता !
क्योंकि मैं बात कर रहा हूँ
नियति को फूसला कर
किस्मत बदलने के बारे में
जो कि बिना किसी हस्तक्षेप के
स्वयं करना होगा तुम्हें …
मैं एक ऐसी दुनिया की
कल्पना कर रहा हूँ !
जहाँ भोजन वस्त्र और
आवास के लिए
जद्दोजहद करने वाले
लोगों के हाथ में
एक आईना हो ।
कि वो अपनी आँखों में
झाँक कर
इनसान होने का
फर्ज अदा कर सके …
हाँ सच तो यह है कि
मैं शिकारी के हाथ में
उजला गुलाब रख कर
बचाना चाहता हूँ उन्हें
शिकार होने से …

( 2.)   उपवास रखने वाली जिद्दी तुनकमिजाज औरतें

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अविवाहीत लडकी से
संपुर्ण स्त्री बनने का सफर
सात कदमों का होता है
लेकीन प्रत्येक कदम पर
त्याग सर्मपण और
समझौता के पाठ को
वो रटती है बार-बार ….
मायके से सीख कर आती है
वो हरेक संस्कार पाठ जो
माँ की परनानी ने
सीखलाया था
उनकी नानी की माँ को कभी …
ससूराल की ड्योढी पर
प्रथम कदम रखते ही
नींव डालती है वो
घूंघट प्रथा की /जब
अपनी अल्हडपन को
जुल्फों में गूँठ कर/ सहेज
लेती है वो
अपने आवारा ख्यालों को
घूंघट में छिपा कर …..
अपनी ख्वाहिशों को
आँचल की खूट में
बाँध कर वो
जब भी बुहारती है आँगन
एक मुट्ठी उम्मीदें
छिडक आती है
वो कबूतरों के झूंड में ….
मूंडेर पर बैठा काला कलूटा
कन्हा कौआ अनुलोम-विलोम
करता है तब /जब
कौआ की साँसे
परावर्तित होती है
स्त्री की पारर्दशी पीठ से
टकरा कर ….
जीद रखने वाली
अनब्याही लडकीयां
होती है जिद्दी
विवाह के बाद भी/ बस जीद
के नाम को बदल कर
मौनव्रत या उपवास
रख दिया जाता है / अन्यथा
पुरूष तो शौख से माँसाहार होते हैं
स्त्रीयों के निराहार
होने पर भी..
सप्ताह के सातो दिन सूर्य देव
से शनी महाराज तक का
उपवास/ पुजा अर्चना
सब के सब
बेटे/पति के खातीर ….
जबकी बेटी बचपन से ही
पढने लगती है
नियम और शर्तें
स्त्री बनने की !
और पूर्णतः बन ही तो
जाती है एक संपुर्ण स्त्री
वो ससूराल में जाकर….
आखीर बेटे/पति के लिए
ही क्युं ?
हाँ हाँ बोलो ना
चुप क्युं हो ?
बेटीयों के चिरंजीवी होने की
क्यूं नही की जाती है कामना…
अगर उपवास रखने से ही
होता है
सब कुशल मंगल !
तो अखंड सौभाग्यवती भवः
का आर्शीवाद देने वाला
पिता/मंगल सूत्र पहनाने
वाला पति
आखीर क्युं नही रह पाता है
एक साँझ भी भूखा….
सुनो ,
मेरी हरेक स्त्री विमर्श
कविता की नायिका
कहलाने का
हक अदा करने वाली
जिद्दी तुनकमिजाज औरतों !
देखो !
हाँ देखो ,
तुम ना स्त्री-स्त्री
संस्कार-संस्कार
खेल कर
अब देह गलाना बंद करो ….
मर्यादा की नोंक पर टाँक कर
जो अपनी ख्वाहिशों के पंख
कतर लिए थे तुमने/
अरी बाँझ तो नही हो ना !
तो सुनो !
इसे जनमने दो फिर से…..
स्त्री होने के नियम शर्तों को
संशोधित करके/
बचा लो तुम
स्त्रीत्व की कोख को
झूलसने से पहले ही ……

(3). सुनो,स्वतंत्र हो तुम चैन से मरने के लिए

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सुनो ,
आजादी का मतलब यह है
कि मारो अपने ही
गाल पर तमाचा ..
बाल नोंच कर
स्वेटर बून लो !
देखो ठंड से ठिठूर रही है
तुम्हारी स्वतंत्रता …
बादल को मोड कर
अनगिनत टूकडे में काटो ….
और बाँट दो उसे गाँव के
स्कूली बच्चों में
लेमनचूस के बदले में …
रूमाल पर स्वतंत्रता लिख कर
थमा दो उन बदनसीबों के
हाथ में…
उन्हे कहो कि वो
तिरंगा लहराने के बजाय रूमाल
को लहराए ….
उन्हें बधाई दो !
और कहो कि तुम स्वतंत्र हो
अपने आर्थिक हालात और उच्च
शिक्षा की विडंबना पर
रोने के लिए …
खेतीहार बाप के छाती पर
हल जोत कर
रोप दो पश्चाताप का बीया …
माँ को कहो कि पंखे झैल कर
अपने प्राण नाथ को
गुलामी का शाब्दीक अर्थ
समझाती रहें….
संविधान की पिपनी में
लालटेन टाँग कर,
अपने गले में टाई बाँधो
और खोलो …
ख्याल रहे कि
दम घूटने से पहले ही
तुम ईशारें में जज साहेब
को समझा सको आजादी का मतलब …
हाँ पर याद रखो !
कि सब र्व्यथ है यह
जानने के वाबजुद
तुम्हे अंतिम कोशिश के
बाद भी
एक अंतिम कोशिश करने
के लिए
रहना होगा तत्पर …
जुते से आक्रोश की
पगडंडीयों को घीस कर
बेरोजगारी लिख दो …
फूँक कर हटा दो अपने
चेहरे से सन्नाटे को …
खिलखिलाओ
अपनी किस्मत को
कोसने के बजाए …
सुनो
स्वतंत्र हो तुम
चैन से मरने के लिए ।
और हाँ ,
यह भी याद रखना कि
स्वतंत्रता का एक मात्र मतलब
आत्महत्या होता है
इस देश में ….

 (4)  परिस्थिती छिंकने लगी है
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कौआ के उचरने से
पहले ही
अब बगुला गटकना
चाहता है मछलीयां ..
इसलिए रात को
मरने वाली मछलीयां
अब बगुला के जागने से
पहले ही
हो जाती है जिवीत …
मछुआरे की बीबी
मसल्ला पीसते हुए
बहलाती रहती है
साहुकारों को …
अपनी जीभ से
लार टपकाते हुए
साहूकर करने लगा है
मर-मौलाई …
या हो सकता है कि
शायद फाह-लोअत का
भीणदिया जा रहा हो
प्रलोभन
मछुआरा की अनुपस्थिती में ..
साहुकार की
संदिग्ध नियत को भाँप कर
घर में मौजूद आधा र्दजन
बच्चे
कीत-कीत थाह खेलते हुए
दे रहे हैं अपनी मौजूदगी
का संदेश …
परिस्थिती छिंकने लगी है
यानी फिर से
तूफान आने वाला है शायद…
मेढकों की टर्रटर्राहट को
सुन कर
मन ही मन
खुश हो रही है मछलीयां …
देखो ना !
वो काले-हरे बादल
पूर्णतः बकेन होकर
पनिहयाने लगे हैं
बिसकने से पहले ..
यानी तेज बारीश की है
आशंका ..
बगुला भागने लगा है
अचानक शहर की ओर …
मछुआरे ने अपने नाँव पर ही
जमा लिया है डेरा
और कर रहा है
नन्ही मछलियों के
व्यस्क होने का इंतजार …

 (5) लडकियों के शयनकक्ष में

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लडकियों के शयनकक्ष में
होती है तीन खिडकियां
दो दरवाजे
तीन तकिए और
तीन लिफाफे भी …
दो लिफाफे खाली और
तिसरे में तीन चिट्ठीयां …
पहले लिफाफ में
माँ के नाम की
चिट्ठी डाल कर वो पोस्ट
करना चाहती है !
जिसमें लडकी
भागना चाहती है
घर छोड कर …
दुसरे खाली लिफाफे में
वो एक चिट्ठी
प्रेयस के नाम से
करती है प्रेषीत…
जिसमें अपनी विवशता का
उल्लेख करते हुए
लडकी घर छोडने में
जताती है असमर्थता ….
तीसरे लिफाफे के
तीनों चिट्ठीयों में
वो खयाली पुलाव पकाती है
अपने भूत-वर्तमान और
भविष्य के बारे में …
अतीत को अपने चादर के
सिलवटों में छुपा कर भी
वो अपने प्रथम प्रेम को
कभी भूल नही पाती है
शायद …
जो उसे टीसती है जब भी
वो लिखती है
एक और चिट्ठी
अपने सपनों के शहजादे
के नाम से….
उनके सेहत,सपने और
आर्थीक ब्योरा का भी
जिक्र होता है उसमें …
अचानक से
सामने वाले दरवाजे से
भांपती है वो माँ की दस्तक ।
तो वही पिछले दरवाजे पर
वो महसूसती है
प्रेयस के देह के गंध को …..
लडकी पृथक हो जाती है
अब तीन हिस्से में !
एक हिस्से को बिस्तर पर
रख कर,
माथा तकिए पर टीकाए हुए ,
दुसरा तकिया पेट के नीचे
रख कर
वो ढूँढती है पेट र्दद के
बहाने …..
तीसरे तकीए में
सारी चिट्ठीयां छुपा कर
अब लडकी बन जाती है
औरत ….
जुल्फों को सहेज कर
मंद मंद मुस्कुराते हुए
वो लिपटना चाहती है माँ से …
तीसरे हिस्से में लडकी
बन जाती है एक मनमौजी
मतवाली लडकी !
थोडी पगली जिद्दी और
शरारती भी…
वो दिवानी के तरह अब
बरामदे के तरफ वाली
खिडकी की
सिटकनी खोल कर
ख्वाहिशों की बारीश में
भींगना चाहती है ……
प्रेयस चाॅकलेटी मेघ बन कर
जब भी बरसता है
खिडकी पर !
वो लडकी पारदर्शी सीसे को
अनवरत चुमते हुए
मनचली बिजली
बन जाती है …..
अलंकृत होती है वो
हवाओं में एहसास रोपते हुए ।

poet aayush jha astik,poet ayush jha aastik, ayush jha astik's poemपरिचय – :
आयुष झा आस्तीक
लेखक व् कवि

यांत्रिकी अभियंता –  नोयडा सेक्टर

 सम्पर्क -:मो नं- 8743858912

ई मेल  – : ashurocksiitt@gmail.com

 स्थायी निवास- ग्राम-रामपुर आदि , पोष्ट- भरगामा, जिला-अररिया ,  पिन -854334

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