गौरी वैश्य की पाँच कविताएँ

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गौरी वैश्य की पाँच कविताएँ 

1. हे आराध्य

हे आराध्य!
मत भटकाओ
उस जाल में
जिसमें मुक्ति का द्वार नहीं।
करो कुछ कृपा
मत दो ऐसा प्रलोभन
है जिसमें मेरा उद्धार नहीं।
हे आराध्य!
तुम सर्वग्य, सर्वव्यापी,
मैं अकिंचन
मूढ़ अग्यानी
कुछ तो बताओ
पथ सुझाओ
ग्यान की ज्योति से उज्ज्वल
मोक्ष का वो पथ दिखाओ
मत बहाओ
उस नदी में
जो देवनदी की धार नहीं।
हे आराध्य!
मत दिखाओ
स्वर्ग सुषमा
मत सुनाओ
नूपुर की ध्वनि
सिर्फ दो ऐसी मणि
जिसके प्रकाश में
देख लूं
तुम्हारा रूप
अपना प्रतिरूप
तुम्हारा बिम्ब
अपना प्रतिबिंब
और विलीन हो जाऊँ
उस सागर में
जिसकी मैं बूंद हूँ
जो अदृश्य है
अगम है,
सूक्ष्म है, विराट है,
किन्तु उसका कोई आकार नहीं।

2. दुनिया एक रंगमंच

ये दुनिया एक रंगमंच है
जहाँ सभी पात्र
खड़े हैं अपने हिस्से का
अभिनय करने के लिए।
मैं भी इस रंगमंच का
एक छोटा सा हिस्सा हूँ
अपने चरित्र से अंजान
अभिनय से अनभिज्ञ
नाटक की रूपरेखा अनपढ़ी
और कहानी अनसुनी।
सम्भवत:मैं नायक नहीं
खलनायक भी नहीं
मुझे अपने आप पर
हंसना भी नहीं आता
इसलिए मैं हास्य अभिनेता भी नहीं।
फिर भी मैं खड़ा हूँ
दर्शकों के सामने
मेरी भावभंगिमा
मेरे चेहरे का
बनावटी मुखौटा नहीं
बल्कि मेरे हृदय का बिम्ब है।
मेरी वास्तविकता
मेरा अभिनय है
और अभिनय ही
मेरी वास्तविकता है।
मैं खुद वहीं मंच पर
अपना चरित्र रचता हूँ
और अपने चरित्र के आधार पर
कहानी बुनता हूँ।
दर्शक मेरी हंसी पर हंसते हैं
और मेरे आंसुओं पर
पलकें भिगोते हैं
मुझे आश्चर्य है
अपने अभिनय पर
अपने चरित्र पर
और उसकी सफल अभिव्यक्ति पर।
ये नाटक कितना लम्बा है
इसका ग्यान नहीं है
किन्तु मैं अपने चरित्र को
भलीभाँति निभाऊं
मेरा अंतिम प्रयास यहीं है
ताकि मेरा अभिनय
मेरे जीवन की
सफलता बन सके
और मेरा रंगमंच पर आना
सार्थक हो सके।।

3. काश!

काश! हम जिन्दगी भर साथ रह पाते
जिन्दगी का हर क्षण साथ बिता पाते,
समझते तो हैं हम एक दूसरे की भावनाओं को
काश! हम एक दूसरे की
बिखरी धड़कनों को संवार पाते।
काश! वक्त ठहर जाता
मेरा हाथ तुम्हारे हाथ में
मेरे आंसू तुम्हारी आँख में
मेरी बात तुम्हारे होंठ पर
मेरी हंसी तुम्हारी मुस्कान में
कुछ इस तरह समा जाती
कि बेरहम वक्त भी इसे जुदा न कर पाता
काश तुम्हारा साथ जिन्दगी भर मिले,
आशा तो नहीं लेकिन दुआ है
जिन्दगी भर तू साथ ही रहे।

4. सब्र का बांध

कुछ कहने से पहले ही
मौन हो गये होंठ
सिर्फ निकल सकी
एक सर्द आह
और आंखों से
दो बूंद आंसू
जो मन की सारी व्यथा सुना गए
शायद इसी लिए
प्रत्युत्तर में ही दो बूंद आंसू
तुम्हारी आँखों में आ गए
परन्तु, आह!
तुमने तो होंठ सी रखे थे
अन्याय के खिलाफ न बोलने से
अन्यथा,
तुम क्या नहीं कर पाते
एक आवाज तो लगाते
न्याय तुम्हारे दामन में आ जाता
और हर होंठों पर
किस्सा सच्चाई का आता।
दो बूंद आंसू फिर टपके
तुम्हें हारे हुए
खिलाड़ी की भाँति
लरजते कदमों के साथ
जाता देखकर
और फूट पड़ा वो बांध
जो सब्र की जंजीर से बंधा था
हाँ, फूट पड़ा वो बांध
तुम्हारे जाने के बाद।

5. सीधे दिल से

अब उदधि के गर्भ में
बस ज्वार भाटा शेष है
शांत वक्ष स्थल न जाने
कब हताहत हो गया।
रह गया लहरों में
एक धीमा सा रुदन
वो पुराना हास जाने
किस गगन में खो गया।
चांद अब भी नभ में आकर
पग धरा के चूमता है
क्षुद्र तारों को मगर
गर्व खुद पर हो गया।
रह गई सृजन की पीड़ा
माँ की सूनी गोद में
छोड़ आंचल शिशु न जाने
भीड़ में किस खो गया।।
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poetess-gauri-vaish-poem-of-gauri-vaish,परिचय-:
गौरी वैश्य

वर्तमान में बाल विकास सेवा एवं पुष्टाहार  विभाग सीतापुर में प्रधान सहायक के पद पर कार्यरत

संस्कृत से एम.ए. किया है। लेखन का शौक छात्र जीवन से ही है !

विशेषतः कविताएँ लिखना और कविता कभी भी मैं दिमागी परिश्रम से नहीं लिखती, जब हृदय में भावों का स्रोत एक दम से निकलता है तो उसे मैं अक्षरबद्ध कर लेती हूँ वहीं कविता बन जाती है।

संपर्क-: gaurivaish@gmail.com

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