वीरू सोनकर की पांच कविताएँ

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 वीरू सोनकर की पांच कविताएँ 

राजकुमार धर द्विवेदी की टिप्पणी : देश के मशहूर आलोचक नामवर सिंह ने एक बार कहा था -‘बढ़ते हुए पेड़ को नापानहीं जा सकता।’  कानपुर निवासी  युवा कवि वीरू सोनकर जी की कविताएं पढ़कर मुझे यही लगा और नामवर जी याद आ गए। वीरू जी से हिन्दी -कविता को बड़ीउम्मीदें हैं। पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। आगे इनके काव्य के मीठे फल खाने को मिलेंगे। वीरू  जी की कविताएं भावना -प्रधान हैं, जोअपने कथ्य के साथ पूर्णतः न्याय करती हैं। मां के गर्भ से लेकर अब तक की जीवन -यात्रा के खट्टे मीठे अनुभवों को वीरू जी ने अपनी कविताओं का कथ्यबनाया है। मां के प्रति अगाध श्रद्धा इनकी पहली कविता में देखने को मिली।
इनकी कविता के नायक का पहला अहसास प्रणम्य है। जंगल कविता प्रतीकात्मकहै,  जो देश में व्याप्त  जंगल-राज और पशुवृत्ति पर करारा प्रहार करती है। इसमें गहरा आक्रोश है। हर शब्द अंगार की तरह है। इनकी प्रेम -विषयककविता में कोमल भावनाएं हैं। प्रेम को कवि ने मांसल होने से बचाया है।
सूक्ष्म मानवीय संवेदना को प्रधानता दी है। इनकी एक कविता में दोस्ती काखूबसूरत रंग देखने को मिलता है। जेल में व्याप्त विसंगतियों, प्रताड़ना से आहत मन खुली हवा में सांस लेने के बाद दोस्त से किसी कॉफ़ी हाउस में मिलनाचाहता है। रहस्यमयी औरत का दर्द कविता भी बड़ी मार्मिक है। इनकी रचनाओं का रसास्वादन करके अनिर्वचीय सुखानुभूति हो रही है।
( टिप्पणीकार राजकुमार धर द्विवेदी, लेखक, कवि, पत्रकार, रायपुर [छत्तीसगढ़ )

1) ……… पहला ऐतबार………….

जिन्दगी में मेरा पहला ऐतबार
जब मैं पेट में था
और मुझे पूरा विश्वास था
अपने चारों और के मांसल रक्षा कवच पर
की मैं जिऊँगा
वह रक्षा कवच बाद में जाना,
वह माँ थी…
मेरा दुसरा ऐतबार
तब हुआ था
जब स्कूल के बाहर वाली तेज़ रोड पर
किसी ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा था
आओ,
साथ साथ पार करते हैं
तब जाना,
वह मेरा दोस्त था…
मेरा तीसरा ऐतबार
जब माँ मरी थी
और कोई मेरे साथ साथ रो रहा था
तब जाना
वह मेरा प्यार था…
मेरा आखिरी ऐतबार
जब एक के बाद एक ने मेरा साथ छोड़ा
तब जाना
वह जो पहले वाला ऐतबार था न,
जब मैं माँ के पेट में था
वहीँ असली था,
बाकि सभी ऐतबार
उस पहले ऐतबार का अहसास भर थे…………

2) जंगल

एक जंगल,
जहाँ रुका या ख़त्म हुआ
दरअसल वही से,
दुसरे जंगल की सीमा-रेखा शुरू हो जाती है
मेरे अपने जंगल के प्रारंभ की,
मेरे घर की !
जंगल बरक़रार रहते है
जंगल के कानून बने रहते है
जानवर भी बने रहते है
इस जंगल में भी
उस जंगल में भी
जानवर से इन्सान बनने तक—
हमने अपने-अपने जंगलो की सीमायें ही तय की है
और कुछ नहीं !

3) एक और मुलाक़ात

सुनो–
एक बार फिर से मिला जाये,
जैसे हम मिले थे,
पहली बार !
जेल में बंद अपनी-अपनी बैरको में,
और हमने एक दुसरे को पहचाना था
अपनी अपनी आँखों की नमी से
उस नमी से,
जो उस गुस्से से कुछ कम थी
जो छुपा था हमारी आँखों की कोरो के पीछे,
और
शायद वही गुस्सा ही
मुख्य कारक बना
हमारी पहचान का,
आओ
हम फिर से मिलते है
दस साल के बाद आज फिर,
बैरको के बन्धनों से दूर
किसी अच्छी काफ़ी शॉप पर,
और
तुरंत ही हम,
एक दुसरे को पहचान लेंगे
जैसे हम एक दुसरे को पहचान जाते थे
टार्चर की चीखो से
तब हम सहम से जाते थे
और खुद का नंबर आने पर
पूरी ढिटाई से
“लाल सलाम” का नारा बुलंद करते थे !
आओ कामरेड !
मुझे तुम्हारे सपनो की कहानी जाननी है
और अपने सपनो का हश्र भी बताना है
याद है न
वह सपने !
जो हमने साथ देखे थे
और जिसके लिए हम साथ-साथ रोये थे
अपनी अपनी आजादी का इन्तजार किया था,
आओ,
उस सपनो के लिए फिर से मिलते है
शायद
सपने जानते है
सच होने के लिए
हमें मिलना ही होगा
एक बार फिर—
बिना बैरको वाली खुली दुनिया की जेल में,
और
एक दुसरे से पूछना ही होगा
कहो कामरेड !
क्रान्ति में और कितना वक्त बाकि है———

4) —-मेरे प्रेम—–

1- भोर के प्रथम पहर में,
जब शिव आरती से गलियां गूंजने लगती है
काशी विश्वनाथ की कतार बद्ध पंक्तियों के बीच,
कहीं हम मिलते है
और
तब हमारी आँखे कह उठती है
बनारस की सुबह से भी सुन्दर
“हमारा प्रेम है”
अचानक से,
मंदिर की सभी घंटियां बज कर
हमे आशीर्वाद देने लगती है
और हम जान जाते है
हमारे प्रेम को किसी कसम की जरुरत नहीं !
2- बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के पार्क में
तुम्हारी पीएचडी की बुक पलटते हुए,
अक्सर, मैं हैरान हो जाता था
और तुम कह देती थी
बाबू
ये आपके लिए नहीं !
तब मैं जानता था,
तुम चाहती थी की मैं तुम्हारी आँखों को पढूं
सिर्फ तुम्हारी आँखों को…
मेरा प्रेम गवाह है !
मैंने तुम्हे पढ़ा
बखूबी पढ़ा
खूब खूब पढ़ा…
3- शिला !
तुम्हारे नाम का उपनाम,
जब मैंने जाना तुम्हारा उपनाम तुम्हे कितना प्रिय है
तब हमने ये तय किया था
यही नाम हमारे बच्चे भी धारण करेंगे
यही नाम !
मेरे प्रेम
तब नहीं पता था
ये उपनाम तो बना रहेगा तुम्हारे साथ
पर मैं अकेला ही रह जाऊंगा
तुम्हारे बिना..
4- दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर हम बैठते है
और याद करते है
हमसे पहले
हजारो हजार साल पहले से
लोग यहाँ आते है
और
हमको हमारा प्रेम
अनवरत जारी गंगा आरती से भी पुराना लगता है
किसी खुद को किसी किवदंती सा समझते है
और चुप चाप गंगा को देखते है
हमारे पैर
एक लय में हिलते है
जैसे हम किसी स्कूल के अल्हड बच्चे हो,
हम एक साथ कोई फ़िल्मी गीत गाते है
हमारे पैर और तेज़ हिलते है !
हम वहां की सांसे खींच खींच कर अपने फेफड़ो में जमा करते है
और एक दूसरे को देखते है
तय करते है—
जब तक ये गंगा है
ये गंगा आरती है
और हम है…
तब तक ये प्रेम बना रहेगा
5- गोदौलिया के बाजार की भारी भीड़ में तुम दुकानदार से लड़ती हो,
पंद्रह रुपये की झुमकी को पांच रुपये की बता कर,
और मैं हँसता हूँ !
तब मैंने
तुम्हे बिना बताये कुछ बेहद महंगे स्वप्न ख़रीदे थे
तब, जब तुम बाजार में टुच्चा सा मोलभाव कर रही थी
उन महंगे स्वप्नों में तुम थी
अपने उपनाम के साथ
शिला !
उन स्वप्नों की कीमत आज तक अदा की जा रही है
और शायद तभी
आज तक
मेरे हाथ में नकद नहीं रुकता…
6- कहते है की,
शिव अपने भक्तो की खबर “नंदी” से लेते है
और हमने नंदी को भी खूब पटियाया था
सर से लेकर पुंछ तक जल अर्पण करके हम अपना काम उनके कानो में बताते थे
याद करो !
हम युगलप्रेमी नंदी के कानो में एक दूसरे का प्यार बता रहे थे
और तुमने आगे बढ़ कर
कहा था
बाबा हमे सात फेरे लेने है !
और,
मेरा गला रुंध गया था !
7- शिला सुनो
मेरे प्रेम सुनो !
वह महंगे स्वप्न
वह गंगा घाट
वह पुरातन काल का समझा हुआ प्रेम
तुम्हारी पीएचडी की बुक्स
तुम्हारे कैम्पस में संग संग की गयी वह चहल कदमी
शिला,
वह सब कभी याद नहीं आता
याद आता है
तुम्हारा आगे बढ़ कर
नंदी के कानो में कहा गया वह वाक्य,
बाबा हम सात फेरे लेंगे !
बाबा हम सात फेरे लेंगे !
बाबा हम सात फेरे लेंगे !
आगे बढ़ कर पीछे लौटना,
हमेशा-हमेशा के लिए पीछे लौटना याद आता है
मुझे पक्का यकीन है
नंदी बहरे नहीं थे
कभी उनके पास जाना और देखना
वह आज भी हमारे और तुम्हारे इन्तजार में चुपचाप बैठे है
वही !
शिव के चरणों में,
हमारी अर्जी लिए हुए
नंदी को अभी तक खबर नहीं,
तुमने इन सब बातो को,
एक मजाक कहा था
सिर्फ एक मजाक…
शिला मेरे प्रेम सुनो,
लोग कहते है अब नंदी अर्जियां नहीं लेते
तो तुम जब भी उनके पास जाना
तो कानो में कह देना…
“बाबा वह सब मजाक था !”
सिर्फ मजाक…
मुझे यकीन है
हठी नंदी समझ जायेंगे……..

5) रहस्यमयी औरत

रहस्यमयी औरत
अपनी ख़ामोशी में बुनती हैं अपने सपने
और फिर
उन्ही सपनो के पंखो को एक एक कर के नोचती हैं
बिना बात के हँसती हैं
बेवक्त रो देती हैं
रहस्यमई औरत
खुद में किसी दुसरे को झाँकने की इजाजत नहीं देती,
कभी कभी
ये औरत मिलती हैं अपने असली रूप रंग में,
वहीँ चुपचाप खिड़की पर
बिलकुल निशब्द सी
चाँद को घूरते हुए
या शायद
कुछ पूछते हुए……..!
रहस्यमई औरत चाहती हैं एक बिना रहस्य वाला आदमी,
औरत चाहती हैं उसी आदमी के सामने जी भर कर रोना,
ताकि उसकी आँखों का सारा नीलापन अन्शुओ में घुल जाये
और धुल जाये सारा विषाद,
और औरत भी रह जाये एक सीधी साधी औरत,
वो अपने रहस्य से दूर चाहती हैं चाँद पर एक घर,
जहाँ अपने मन से वो रो सके,
जी सके, हँस सके,
अपने रहस्य में बिना कुछ छुपाये हुए….!
रहस्यमई औरत,
जब उस बिना रहस्य वाले आदमी को नहीं पा पाती तब वो खुद एक रहस्य हो जाती हैं
और
चुप चाप चाँद को देखती हैं………..

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वीरू सोनकर

कवि व् लेखक 

 

शिक्षा- क्राइस्ट चर्च कॉलेज कानपूर से स्नातक   उपाधि (कॉलेज के छात्र संघ कवि व्म लेखक हामंत्री भी रहे )

डी ए वी कॉलेज कानपूर से बीएड

संपर्क – : क्वार्टर न. 2/17,  78/296, लाटूश रोड,   अनवर गंज कालोनी, कानपूर

 veeru_sonker@yahoo.com, 7275302077

3 COMMENTS

  1. पहला ऐतबार,जंगल,रहस्यमयी औरत सभी कविताएँ बढ़िया हैं. ज़िन्दगी के खट्टे मीठे अनुभवों को कविताओं के ज़रिये सुन्दर तरीक़े से अभिव्यक्त किया है।

  2. वीरु जी की कवितायें हमेशा पढ़ती रही हूं ..वाकई अलग स्वाद की कवितायें हैं ,”पहला एतबार”, ” मेरे प्रेम” विशेषतौर पर पसंद है मुझे …” रहस्मयी औरत ” पर तो हमने ( बाबू शांडिल्य और मैंने) प्रतिक्रिया स्वरुप कविता भी लिखी थी … बधाई वीरु जी ..यूं ही निरन्तर अपनी कलम निरन्तर चलायमान रखे 🙂

  3. राजकुमार धर द्विवेदी की टिप्पणी भी शानदार हैं राजकुमार धर द्विवेदी की और सभी विधाओं की तरहा !
    कवि ने पूरा प्रयास किया है पाठको को कुछ नया सा पढ़ने के लिये परोस सके !

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