नरसंहारो के हाशिमपुरे और सरकारी ताफ्शिस पर अदालती फैसले

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– निर्मल रानी –

गत् 22 मार्च को दिल्ली की एक निचली अदालत द्वारा 28 वर्ष पूर्व अर्थात् 22 मई 1987 को हुए उत्तर प्रदेश के मेरठ जि़ले के चर्चित हाशिमपुरा नरसंहार पर अपना फैसला सुनाया गया। अदालत के फैसले के अनुसार चूंकि अभियोजन पक्ष आरोपी पुलिसकर्मियों की पहचान साबित करने में नाकाम रहा है hashim puraऔर राज्य सरकार आरोपियों की पहचान नहीं करा पाई। इस आधार पर अदालत द्वारा मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाले 40 लोगों की सामूहिक हत्या के आरोपी 16पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया गया। गौरतलब है कि 1987 का यह वही दौर था जबकि केंद्र्र तथा उत्तर प्रदेश दोनों ही जगह कांग्रेस की सरकारें थीं। दिल्ली में राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तो उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह उस समय मुख्यमंत्री थे। इसी दौर में विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खोलने का आदेश केंद्र सरकार द्वारा दिया गया था। जिसके बाद मेरठ सहित देश के कई शहरों में सांप्रदाकि हिंसा भडक़ उठी थी व सांप्रदायिक तनाव फैल गया था। यही वह दौर था जबकि तत्कालीन केंद्रीय मंत्री मुफती मोहम्मद सईद तथा कांग्रेस के सांसद सलीम इकबाल शेरवानी जैसे कई दिग्गज कांग्रेस नेताओं द्वारा पार्टी को अलविदा कह दिया गया था। गोया स्वयं को धर्मनिरपेक्ष दर्शाने वाली कांग्रेस पार्टी में सांप्रदायिकता व सांप्रदायिक आधार पर पक्षपातपूर्ण फैसले लेने के आरोप लगने शुरु हो चुके थे। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता होने के बावजूद देश के अल्पसंख्यकों की नज़रों में संदिग्ध धर्मनिरपेक्षतावादी नेता थे। उनके शासनकाल में उत्तर प्रदेश में कई सांप्रदायिक दंगे भी हुए और उस दौरान राज्य के अल्पसंख्यकों पर पुलिसिया कहर भी जमकर ढाए गए। खासतौर पर उत्तर प्रदेश की सांप्रदायिकता के लिए बदनाम पुलिस फोर्स पीएसी अर्थात् प्रोविंशियल आर्मड कांस्टेबलरी ने सांप्रदायिक दंगों व सांप्रदायिक तनावों के दौरान प्रदेश के अल्पंंख्यकों पर कई जगह मनमाने तरीके से कहर बरपा किया।

उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के हाशिमपुरा मोहल्ले में 22 मई 1987 को घटी घटना भी ऐसी ही हृदयविदारक घटनाओं में से एक है जबकि कफर््यू के दौरान मध्य रात्रि में पीएसी के जवान बड़ी संख्या में हाशिमपुरा मोहल्ले में पहुंचे थे। उन्होंने मुस्लिम समुदाय के घरों में तलाशी लेनी व बेगुनाह व निहत्थे लोगों की धर-पकड़ करनी शुरु कर दी। उसके बाद पीएसी के जवान लगभग 50 मुस्लिम युवकों को  अपनी ट्रक में ठंूसकर मेरठ के समीप हिंडन नदी की गंग नहर के किनारे ले गए। मध्य रात्रि के अंधेरे में इन पुलिसकर्मियों ने ट्रक से एक-एक व्यक्ति को उतारना शुरु किया और एक-एक कर सभी को गोली मारकर नहर में फेंकते गए। इस सामूहिक हत्याकांड में 40 लोगों ने तो मौके पर ही दम तोड़ दिया। और उनकी लाशें नहर में दूर तक बह गईं। जबकि पांच लोग गंभीर रूप से घायल अवस्था में अपनी जान बचाने में सफल रहे। इन्हीं पांच लोगों ने चश्मदीद गवाह के तौर पर 28 वर्षों तक अदालत से इंसाफ मिलने की आस लगा रखी थी जो गत् 22 मार्च की तीस हज़ारी अदालत के फैसले के बाद बुरी तरह टूट गई। और मुस्लिम समुदाय के इन पीडि़त परिवारों के दिलों में अदालत तथा सरकार के प्रति स्वाभाविक रूप से अविश्वास का वातावरण पैदा हो गया। देश में इसके पूर्व भी 18 अप्रैल 1976 का तुर्कमान गेट गोलीकांड जिसमें एक सौ पचास से अधिक लोगों के मारे जाने का समाचार था, 13 अगस्त का मुरादाबाद का ईदगाह नरसंहार जिसमें 284 लोगों की हत्या पुलिस की गोलियों से हुई थी,1984 के सिख विरोधी दंगे, 24 अक्तूबर 1989 के भागलपुर के सांप्रदायिक दंगे जिनमें 1070 लोगों के मारे जाने क खबरें थीं, इस प्रकार के और भी कई ऐसे हादसे हमारे देश में होते रहे हैं जिनपर अदालतों द्वारा पीडि़त परिवारों को पूर्ण न्याय नहीं दिया जा सका और परिणामस्वरूप इन पीडि़त देशवासियों के दिलों में सरकार तथा अदालतों के प्रति अविश्वास पैदा हुआ।

इसी तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि देश की अदालतें आमतौर पर अपना निर्णय साक्ष्यों तथा गवाहों के बयान के आधार पर दिया करती हैं। परंतु यदि किसी आपराधिक मुकद्दमे में राज्यों द्वारा साक्ष्य पेश नहीं किए जा सकते या राज्य जानबूझ कर साक्ष्य अदालतके समक्ष प्रस्तुत नहीं करता या फिर ऐसा करने में जानबूझ कर देर करता है या टालमटोल करता है तो इन परिसिथतियों में अदालत द्वारा आरोपियों को अपराधी होने के बावजूद विभिन्न परिस्थितियों में बरी कर दिया जाता है। फिर आिखर इसे कैसा और कहां का न्याय माना जाएगा? मिसाल के तौर पर हाशिमपुरा नरसंहार में ही तत्कालीन पुलिस अधीक्षक वीएनराय द्वारा घटना में सम्मिलित आरोपियों के विरुद्ध नामज़द प्राथमिकी दर्ज कराई गई। उसके बावजूद उन्हें तफ्तीश से हटाकर राज्य सरकार द्वारा मामले को सीधेतौर पर अपने हाथों में ले लिया गया तथा सीबीसीआईडी के सुपुर्द कर अपनी मनमजऱ्ी की रिपोर्ट अपने मनमानी समयावधि में तैयार की जाने लगी। दूसरी ओर इसी घटना के चश्मदीद गवाह वह पांचों लोग जोकि पुलिस की गोली का शिकार बने थे परंतु अपनी िकस्मत से तथा मरने का नाटक करते हुए अपनी जान बचाने में सफल रहे, उनके द्वारा गवाही देने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। यहां तक कि उनकी गवाहियों के आधार पर ही वह ट्रक भी अदालत के समक्ष पेश किया गया जिसमें मुसलमानों को ठूंसकर मारने के लिए लाया गया था। वह बंदूक़ें भी बरामद कर ली गईं जिनका इस्तेमाल उन्हें गोली मारने के लए किया गया था। उन सबके बावजूद अपराधियों का बरी हो जाना हमारे देश की सरकार व न्याय व्यवस्था के लिए शर्मनाक तो है ही साथ-साथ इस प्रकार के फैसले एक ओर तो पीडि़त परिवारों का देश की न्याय व्यवसथा से विश्वास उठने का कारण बन सकते हैं तो दूसरी ओर ऐसे जघन्य हत्याकांड में शामिल अपराधियों की हौसला अफज़ाई भी करते हैं। यही नहीं इससे भी अफसोसनाक बात तो यह है कि 28 वर्षों तक चले इस मुकद्दमे के दौरान एक भी आरोपी पुलिसकर्मी को राज्य सरकार द्वारा निलंबित किए जाने तक का कष्ट नहीं उठाया गया। ओर तो और इनमें कई आरोपियों को समय-समय  पर पदोन्नति भी दी गई। क्या आरोपियों का निलंबित न होना तथा निलंबन के बजाए उनका पदोन्नत होना यह सोचने के लिए मजबूर नहीं करता कि अपनी सेवा के दौरान ऐसे आरोपी अपने विरुद्ध चल रहे नरसंहार के इस मुकद्दमे से संबंधित साक्ष्यों को तथा संबंधित दस्तावेज़ों को प्रभावित भी कर सकते थे?

हमारे देश में न्याय व्यवस्थ से जुड़ी कई कहावतें बहुत प्रचलित हैं। एक तो यह कि ‘न्याय मिलने में देरी होने का अर्थ है न्याय से इंकार करना’ अर्थात्  justice delayed justice denied  अब इस कहावत के परिपेक्ष्य में यदि हाशिमपुरा कांड को देखा जाए तो इसकी और भी शर्मनाक व्याख्या दिखाई देती है। यानी कि एक तो इंसाफ में देरी भी हुई और उस देरी के बाद भी पीडि़तों को न्याय के बजाए अन्याय ही हाथ लगा? ऐसी ही एक कहावत के अनुसार अदालत द्वारा सौ गुनहगारों को तो बरी किया जा सकता है परंतु एक बेगुनाह को फांसी पर नहीं लटकाया जा सकता। निश्चित रूप से हाशिमपुरा नरसंहार जैसे फैसले उपरोक्त कहावत को चरितार्थ करते ही रहते हैं। यानी हमारे देश की अदालतें किसी न किसी साक्ष्य या गवाही के अभाव के बहाने अक्सर अपराधियों को बरी करती ही रहती हैं। उदाहरण स्वरूप इसी हाशिमपुरा हत्याकांड के मामले में अदालत ने यह स्वीकार किया कि पुलिस ने लोगों का उनके घरों से अपहरण किया,उन्हें उनके घरों से उठाकर ले गई, उन्हें गोली मारी गई। परंतु इन सब बातों को स्वीकार करने के बाद भी एक भी पुलिसकर्मी अपराधी साबित न हो सका?

देश की न्याय व्यवस्था की साख बचाए रखने के लिए यह ज़रूरी है कि ऐसे मामलों की पुन: नए सिरे से जांच कराई जाए तथा ऐसे हाई प्रोफाईल हत्याकंाड अथवा अपराध के लिए त्वरित न्याय की व्यवस्था की जाए। यदि भविष्य में भी इसी प्रकार के निर्णय अदालत द्वारा लिए जाते रहे तो लोगों का विश्वास देश की अदालतों से उठना स्वाभाविक होगा। और ऐसे हालात हमारे देश की साफ-सुथरी व निष्पक्ष छवि रखने वाली अदालतों के लिए अच्छे नहीं होंगे।
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nirmal-rani-invc-news-invc-articlewriter-nirmal-rani-aricle-written-by-nirmal-raniपरिचय : –
निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !

संपर्क : -Nirmal Rani  : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City13 4002 Haryana
email : nirmalrani@gmail.com –  phone : 09729229728

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