विश्व भाषा का मिथक और लोकतंत्र

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myth of democracy– अश्विनी कुमार ‘सुकरात’ –

लोकतंत्र में शासन में जनता की सहभागिता तभी आ सकती है जब शासन व्यवस्था जन-भाषाओं में संचालित हो। इंग्लैड़ समेत सम्पूर्ण यूरोप में लोकतंत्र के विकास के साथ वहाँ की जनभाषाएं शासन प्रशासन और शिक्षा का हिस्सा बनी। युरोप में भीजब आम जन ने प्रोटेस्टेंट मूवमेंट के द्वारा न केवल चर्च अपितु सत्ता के अन्य स्तंभों पर भी अपनी दावेदारी ठोकी, तब ही लेटीन के स्थान पर आम जन की भाषा चर्च के साथ साथ शासन प्रशासन का भी हिस्सा बनी। जबजनसाधारण ने ज्ञान की सत्ता पर अपनी दावेदारी ठोकी, तब ही आम जन की भाषा शिक्षा का माध्यम भी बन पायी। स्वयं इंग्लेंड में कुलियों की भाषा समझें जाने वाली ‘अंग्रेजी’ जन आन्दोलनों की बदौलत ही मुख्यधारा मेंआयी।युरोप के मध्य काल के अंध युग का अंत स्वभाषा पोषित ज्ञान की बदौलत ही संभव हो सका। या यु कहेपुनर्जागरण काल जन भाषाओं में ज्ञान विज्ञान के प्रसार की बदौलत ही संभव हुआ। स्पष्ट है कियुरोप की तमाम जन क्रांतियाँ तब ही संभव हो पाई जब ज्ञान विज्ञान जन की भाषा में प्रतिस्फुटित हुआ ।

भारत में कहने के लिए लोकतंत्र है। पर ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ की वजह से शासन प्रशासन के स्तर पर क्या घोल-मेल होता है यह जनता के समझ के बाहर है। जनता न तो मूलतः अंग्रेजी में लिखे कानून को समझ पाती है, न ही उसके आधार पर चलने वाली प्रशासनिक प्रक्रिया को और न ही उसके कलिष्ट हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में हुए अनुवाद को ही। उच्च शिक्षा का ज्ञान उच्च वर्ग तक ही सिमट कर रह गया है।भगत सिंह ने कहाँ था कि क्रांति की तलवार विचारों की शान पर चलती है। .. और साथियों मौलिक विचार अपने परिवेश की बोली भाषा में ही प्रतिष्फुटित होते है। बच्चा हो या बड़ा, हर एक अपने परिवेश की बोली में ही अपने आप को सहजता से अभिव्यक्त कर पाता है।मातृभाषा परिवेश पर निर्भर करती है न कि मजहब़, वंश, जाति आदि पर।अंग्रेजी जैसी गैर परिवेश की भाषा में तो बस हम रटी रटायी बात ही उगल सकते है। मौलिक चिंतन नहीं कर सकते है।‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ ने के.जी. से पी.एचडी. तक की सम्पपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को तोता तैयार करने की फैक्ट्री में तब्दील कर दिया है। जिस से निकला तथाकथित शिक्षित वर्ग रटी रटाई बातो को ही उगलता है।

भारत को आर्थिक एवं तकनिकी सहायता प्रदान करने वाले इस्राइल, जापान, डेनमार्क, स्वीडन, बैलजियम जैसे छोटे- छोटे देशों का सम्पूर्ण शिक्षा तंत्र एवं राज व्यवस्था अपनी भाषाओं में ही संचालित होती है। बैलजियम की सम्पूर्ण व्यवस्था कासंचालन तीन भाषाओं में होता है।बैलजियम में भाषायी भेदभाव को खतम करने हेतू सरकार का एक और स्तर बनाया है। वह है, सांस्कृतिक सरकार का। सांस्कृतिक सरकार यह सुनिश्चित करती है कि सभी भाषा-भाषियों को उनके उनके सांस्कृतिक पृष्टभूमि के अनुरूप विकास के अवसर मिले। बैलजियम की इस प्रतिबधता को देखते हुए ही यूरोपीययुनियन ने उसकी राजधानी बेरूसला को युरोपीय युनियन की राजधानी भी बनाया है। युरोपीय युनीयन का लक्ष्य यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका की तर्ज पर यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ यूरोप को विकसित करना है। इसलिए युरोपीय युनियन ने युरोप की सभी 24 भाषाओं में जनसंवाद करती है।फ्रांस  के तो कहने ही क्या? फ्रांसीसी क्रांति के बाद जो समता, समानता, भाईचारावाद, साम्प्रदाय निरपेक्षता, मानव अधिकारवाद की नींव रखी वहाँ पर रखी गयी, वह भाषायी समता में भी देखने को मिलती है। फ्रांस मे आंचलिक क्षेत्र की बोली-भाषा को भी उतना ही महत्व प्राप्त है जितना की पेरिस में बोले जाने वाली फ्रेंच को। 1917 की साम्यवादी क्रांति के बाद भीभूतपूर्व 5 करोड़ की आबादी वालेसोवियत संघ ने संघ की 52 भाषाओं को शिक्षा और शासन-प्रशासन का माध्यम बनाया था। जपान, जर्मनी. इस्रायल, स्वीडन में जब विज्ञान, मेडिकल, इंजिन्यरिंग सभी विषयों की शिक्षा एवं प्रशासनिक सेवाउनके देश में बोले जाने वालीबोली-भाषाओं में उपलब्ध कराते है, तो भारत के साथ दिक्कत क्या है?जब ये देश दूनिया में किसी भी भाषा में छपे दस्तावेज का अनुवाद स्व भाषा में कर अपने देशवासियों को उपलब्ध करा सकते है। तो दुनिया के किसी भी हिस्से का ज्ञानइंडिया दैट इज भारत मेंवाया लंदन एवं वाशिंगटनही क्यों आता है?कही ऐसा तो नहीं,इस तथाकथित विश्वभाषा इंग्लिश ने हमें शेष विश्व से काट दिया है? शेष विश्व का वह ही ज्ञान भारत आ सकता है जिसे ये दो मख्य अंग्रेजी भाषी देश ज्ञान मानते हो। दूसरा मूल भाषा से अंग्रेजी मे अनुवाद के दौरान यदि कोई त्रुटी हो जाए तो वह उससे कलिष्ट रूप में आगे संचयी होगी।मतलब, वह ही ज्ञान भारत की सर जमी तक आएगा। ये दो देश ज्ञान मानेगों। वह भी अधकचरे तरिके से।

जब तक शासन प्रशासन और न्याय की भाषा सर्वहारा-गरीब-जन की भाषा नहीं होगी , तब तक यह व्यवस्था सर्वहारा-गरीब-जन का यु ही दमन करती रहेगी। जब सर्वहारा(गरीब वर्ग) की भाषा ही नहीं रहेगी तो सर्वहारा के विचार भी नहीं रहेगे। अब जब कांग्रेसी एवं भाजपायी आदि ही नहीं सभी कामरेड(सर्वहारा वर्ग के तथाकथित नेता) जन भाषा(सर्वहारा-गरीब जन द्वारा बोले ऐर समझे जाने वाली बोली-भाषा) के मुद्दे पर मौन ही नहीं,अपितु आम जन के समझ से परे की भाषा अंग्रेजी की पैरवी में ही लगे है।ऐसे में जन भाषाओं के प्रति हमारी प्रतिबधता भगत सिंह को फिर से जिन्दा करने की जिद्द है।

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Kumar Socrates article, Ashwani Kumar Socrates, Socrates writer Ashwani Kumar, Ashwani Kumar Socrates writer, thinker Socrates Ashwani Kumarपरिचय -:

अश्विनी कुमार ‘सुकरात’

शिक्षक, लेखक व् सामाजिक कार्यकर्त्ता

परिचय क्या है मेरा … मैं एक शिक्षक हूँ… जनभाषा जनशिक्षा के  विषय कोो ललेकर समाजिक कार्य में संलग्न हूँ । क्योकि इसके बिना समाजिक वैज्ञानिक चेतना नहीं जगेगी और उसके बिना किसी भी प्रकार की समाजिक क्रांति संबव नहीं.!

संपर्क -: मो.न. 9210473599, 9990210469 – ईमेल -:ashwini.economics@gmail.com

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Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS .

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