मोदी, मंत्री और मीडिया के मन की बात

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– ओंकारेश्वर पांडेय –

narendra modiजनता के साथ मीडिया के भी अपार समर्थन से केन्द्र की सत्ता में आयी मोदी सरकार के आने से अच्छे दिन आने की उम्मीदें सबसे ज्यादा मीडिया ने जगायी और लगायी भी। पर आज सबसे ज्यादा हताशा में मीडिया ही है। मीडिया के सामने एक तरफ आर्थिक दबाव के कारण अस्तित्व का संकट है, तो दूसरी ओर साख बचाने की चुनौती। एक तरफ पेड मीडिया, मीडिया ट्रायल और सीमा के अतिक्रमण के आरोप हैं, तो दूसरी तरफ रेगुलेशन की लटकती तलवार और ज़ॉब सिक्योरिटी का सवाल है।

इधर सरकार चिंतित होने लगी है कि मोदी सरकार के मंत्री घर-घर मोदी के नारे की तर्ज पर अपने सरकार की उपलब्धियों को जनता तक नहीं पहुंचा पा रहे। क्या मोदी सरकार को लगने लगा है कि मीडिया के साथ संवाद में कुछ कमी रह रही है? क्या मोदी सरकार के नौकरशाह सरकारी कामकाज के प्रचार की बजाय दुष्प्रचार कर रहे हैं? ये वाजिब सवाल केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली के कुछ ताजा बयानों से उठे हैं। बीते हफ्ते पत्र सूचना कार्यालय की एक कार्यशाला में श्री जेटली ने माना कि हर मंत्री का मीडिया से बात करने की कला में समान स्तर नहीं हो सकता। सरकार के जो मंत्री प्रेस से बात करने में कंफर्टेबल नहीं हैं, उन्हें अपने अधिकारियों के साथ मिलकर कोशिश करनी होगी।

दरअसल श्री जेटली ने मोदी सरकार की उस कमजोरी को पकड़ने की कोशिश की है, जिसे धीरे धीरे मीडिया के गलियारों में महसूस किया जाने लगा है। मीडिया अभी इसपर खामोश है, क्योंकि मोदी सरकार को एक साल भी पूरा नहीं हुआ है।

वास्तव में मोदी सरकार की उपलब्धियों का बखान या तो स्वयं मोदी को करना पड़ा है, या उनके चंद चुनिंदा खास मंत्रियों को। इनमें अरुण जेटली, प्रकाश जावड़ेकर, रविशंकर प्रसाद, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, राधामोहन सिंह, सुरेश प्रभु और मनोहर पर्रीकर, स्मृति ईरानी, उमा भारती जैसे कुछ मंत्री ही शामिल हैं। मोदी तो मन की बात कर लेते हैं, लेकिन सरकार के ज्यादातर मंत्री मीडिया से बचते नजर आते हैं। तो श्री जेटली मोदी के मंत्रियों को बोलना और अफसरों को सुनना सिखायें, पर मीडिया के मन की बात भी समझें और उनकी समस्याएं भी सुलझाएं।

आज मीडिया के मन में आने लगा है कि सरकार से जितना संवाद पहले होता था, अब नहीं होता। जितनी सूचना मिलनी चाहिए, उतनी नहीं मिल रही। सरकारी खर्च घटाने के नाम पर स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय ने विदेश दौरों में मीडिया को ले जाने की परंपरा को दरकिनार कर दिया। केन्द्रीय मंत्रियों को भी मीडिया को अपने साथ दौरों में अनावश्यक न ले जाने की हिदायतें मिली। खबरें ट्वीट की जाने लगी हैं। इससे सोशल मीडिया को बल मिला, तो जमीन से जुड़े व्यापक प्रिंट मीडिया को निराशा हुई है।

पीआईबी का दर्द है कि जब खबर सीधे पीएमओ से ट्वीट हो तो उनकी भूमिका क्या बचती है। लेकिन यह तो होना ही था। डिजिटल मीडिया के क्रांतिकारी उभार के बाद सरकार इसका इस्तेमाल नहीं करती तो पिछड़ी कही जाती, कर रही है तो सरकारी सूचना तंत्र परेशान है। जाहिर है, इससे निपटने का तरीका सरकार को ढूंढना होगा।

श्री जेटली जानते हैं कि टीवी और न्यू मीडिया के व्यापक प्रसार के बावजूद प्रिंट मीडिया का न प्रसार कम हुआ है और न प्रभाव। 31 मार्च 2014 तक आरएनआई ने देश की 22 मान्यता प्राप्त भाषाओं और 149 क्षेत्रीय भाषाओं व बोलियों में कुल 99,660 पत्र पत्रिकाओं का रजिस्ट्रेशन किया था, जिनका कुल प्रसार 2013-14 में 45,05,86,212 हो गया। इनमें 65.36 फीसदी पत्रिकाएं हैं, जिनकी जनमत निर्माण में अहम भूमिका है, पर केन्द्र और राज्य सरकारें उन्हें विज्ञापन के मामले में ज्यादा तवज्जो नहीं देतीं। प्रिंट मीडिया के इन 45 करोड़ पाठकों की उपेक्षा से मोदी सरकार को नुकसान ही होगा।

हिंदी प्रेमी प्रधानमंत्री मोदी को हिंदी की शक्ति भी मालूम है। 2013-14 में हिंदी के कुल 40,159 प्रकाशनों का प्रसार 22,64,75,517 प्रतियां प्रति प्रकाशन दिवस हैं। मोदी को देखना चाहिए कि उनकी सरकार हिंदी मीडिया को पहले की सरकारों की तुलना में कम तवज्जो तो नहीं दे रही है।

सच है कि भारत में डिजिटल मीडिया की सुनामी आयी हुई है। सन 2000 में देश में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 50 लाख थी जो 2013 में 3,805 फीसदी बढ़कर 195,248,950 हो गयी। लेकिन जिनतक इंटरनेट की पहुंच है, उनमें बड़े तबके के सामने टेक्नोलॉजी की समझ, बिजली और इंटरनेट स्पीड की समस्या है। आम भारतीय आज भी नेट पर अखबार नहीं पढ़ता। टेलीविजन आया, तो कहा गया कि प्रिंट समाप्त हो जाएगा, पर लोगों ने अखबार पढ़ना नहीं छोड़ा। उसी तरह डिजिटल मीडिया के व्यापक प्रसार के बावजूद प्रिंट का प्रसार-प्रभाव कम नहीं होगा, बल्कि बढ़ेगा। इसलिए सरकार डिजिटल इंडिया को आगे बढ़ाए, लेकिन प्रिंट को नजरअंदाज करने की गलती ना करे।

श्री जेटली ठीक कहते हैं कि “डिजिटल मीडिया के सामने तथ्यों की पुष्टि के मानक का संकट है।” मीडिया अपनी सीमाओं का पालन ख़ुद करे तो बेहतर।” लेकिन नियम तो सरकार ही बनाती है न? आज प्रिंट को आरएनआई रजिस्ट्रेशन और टीवी को सख्त लाइसेंसिंग की प्रकिया से गुजरना पड़ता है, लेकिन डिजिटल मीडिया इन झंझटों से मुक्त है। एफएम रेडियो को समाचारों के प्रसारण की अनुमति नहीं है, पर धड़ल्ले से पुष्ट-अपुष्ट खबरें चला रहे डिजिटल मीडिया को अनुमति की आवश्यकता नहीं। एक मीडिया को आजादी और दूसरे पर अंकुश कब तक रखेगी सरकार?

श्री जेटली मीडिया पर अनियंत्रित रिपोर्टिंग, सीमाओं का पालन नहीं करने और मीडिया ट्रायल के आरोप लगाते हुए ठीक सलाह देते हैं कि ”मीडिया को अदालत में विचाराधीन मुद्दों, किसी आतंकी घटना या किसी व्यक्ति की निजी जिंदगी से जुड़ी ख़बरों को कवर करते वक़्त सावधानी बरतनी चाहिए।”

लेकिन इससे निपटने के लिए मीडिया की असली समस्या को समझना जरूरी है। पहली समस्या मीडिया एजुकेशन की है। उन्हें कौन पढ़ा रहा है और क्या पढ़ा रहा है, यह देखिये। दूसरी समस्या जॉब सिक्योरिटी की है। आये दिन मीडिया घराने बंद हो रहे हैं, छंटनी हो रही है। सर्वे करा लें कि असुरक्षा के कारण मीडियाकर्मी कितने तनाव और दबाव में हैं। इसका बड़ा कारण आर्थिक है। कुछ बड़े मीडिया घरानों को छोड़ दें, तो ज्यादातर के सामने घाटे से निपटने की चुनौती है। विज्ञापन नहीं मिलते। मार्केटिंग की विफलता संपादकीय और संपादक के माथे आ पड़ी है।

चुनौती इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामने भी है। एक्सचेंज4मीडिया के न्यूजनेक्स्ट 2015 में अर्णब गोस्‍वामी ने कहा, ‘लोग कहते हैं कि दर्शकों की मार्केटिंग योजना के अनुसार काम करना चाहिए, लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ा प्रश्‍न है कि क्‍या दर्शक मेरे चैनल के कंटेंट को याद रखेंगे।’ हवास मीडिया ग्रुप की सीईओ अनिता नैय्यर ने कहा कि ‘टीवी चैनल विज्ञापनों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विज्ञापन का प्रतिशत घट रहा है।’ डिश टीवी के सीओओ सलिल ने कहा, ‘ऐसे चैनल गिने चुने हैं, जो वास्तव में धन कमा पाते हैं, बाकी तो रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। यहां औसत राजस्व प्रति उपभोक्ता विश्व में सबसे कम है।’

श्री जेटली मानते हैं कि टीआरपी की वजह से ख़बरों की कवरेज पर असर पड़ता है। तो इससे निपटने का उपाय होना चाहिए। आज जब डिजिटल मीडिया देशों की सीमाओं को तोड़कर घरों में घुस गया है, तो मीडिया में एफडीआई पर रोक क्यों? मीडिया में एफडीआई बढ़े तो जरूर राहत मिलेगी। और अंत में, मीडिया के लिए मोदी का क्या फार्मूला है? जिस गति से मीडिया बढ़ा है, उस गति से विज्ञापन नहीं बढ़े। क्या मोदी सरकार टीवी, प्रिंट और डिजिटल मीडिया पर सरकारी विज्ञापन का बजट बढ़ाएगी? क्या सरकार मीडिया को मार्केट के दबाव से मुक्त और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ रोजगार में स्थायित्व को सुनिश्चित कर सकेगी? मीडिया के अच्छे दिन तो तभी आएंगे। देश का विकास मीडिया के साथ के बिना नहीं हो सकता।
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ओंकारेश्वर-पांडेय1परिचय – :
ओंकारेश्वर पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व् लेखक

Former Managing Editor, i9 Media
Former Managing Editor, The Sunday Indian
Former Resident Editor–RASHTRIYA SAHARA (Hindi Daliy), Delhi & Patna
Member – United Nations sub committee on volunteering recognition and IYV+10, India
Executive President,BROADCASTERS CLUB OF INDIA

प्रकाशित – : पुस्तक घाटी में आतंक और कारगिल

Master of Media, who provides Kaizen Solution for Media Sustainability
Onkareshwar Pandey is a bi-lingual (Hindi-English) Journalist and a known Indian Media personality with an experience of over 30 years in Print, Television, Radio & Digital Media.  He is a four time experienced Editor and a keen Social Worker on various issues including Language, Media, Health, Women and Culture etc.
Onkareshwar Pandey provides Kaizen Solution for Media to make it a Prestigious & Profitable Brand. He has conceptualized, launched and led several Print Media products such as Magazines, Newspapers and Periodicals.  He has been successful in transforming the Media into a real brand rich with innovative content, ideas and brand development initiatives and has successfully made it into a profitable venture and thus is rightly regarded as an Expert Media man.
He was in the national Core Group of Sahara TV at the time of its launching and had conceptualized and implemented Sahara News Bureau by integrating 1000 Correspondents of Print, Television and Digital Media spread across the country.
He has written six books in Hindi, English & Bhojpuri languages so far & has been a guest to the governments and institutions of Russia, Malayasia, Netherlands, UK & Belgium as an expert on media.
He writes on various issues including Internal Security, Defense, Politics, Terrorism, Language, Media, Education, Skill Development, Communication, Body Language, Healthcare, Women, Culture, Rural, Agriculture, NGO, CSR & Marketing etc. He is a  prolific speaker and regularly participates in various Seminars, Workshops & Events on Media, Language, Political, Social and other Contemporary issues across the country as  Guest Speaker. He is Member of United Nations subcommittee on volunteering recognition and IYV+10 from India, & Executive President of BROADCASTERS CLUB OF INDIA. He is among the 120 Top Editors of India accredited with Govt. of India,

Contact – : editoronkar@gmail.com

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his  own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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