पंकज त्रिवेदी का संस्मरण : मेरी पैदल यात्रा
– मेरी पैदल यात्रा –
पैदल ही नीकल गया….काली सडकों को चीरता हुआ मैं उन गाँव के कच्चे रास्ते पर चलने लगा | बैल गाडी के पहियों जितना चौड़ा रास्ता और उसी पहियों का निशान… रास्ते के दोनों तरफ बड़ी बड़ी हथेलियों जैसे थोर और उनमें उगे हुए कांटें ! ऐसा लगता था जैसे ज़िंदगी को पुरुषार्थ से बानाने बाले हाथ और उसी हाथों की मार्गदर्शन करती हथेलियों में लकीरों पर उग आए हैं मुश्किलों के प्रतीकों समान कांटें ! चलते चलते गाव में प्रवेश करते ही बाईं तरफ स्मशान … लहलहाते खेत और आती जाती बैल गाडीयां… कही साईकिल पर सवार गाँव के लोग.. बिलकुल अनजान होकर भी इंसानी तहज़ीब और संस्कारों के बल पर पास से गुज़रते हुए – ‘ए राम राम’ कहते थे |
बैल गाडी चलने से उड़ती धुल से नहाता हुआ मैं एक अजब सी मिट्टी की महक को अपनी नासिकाओं में भरता हुआ आगे बढ़ रहा था | मुझे याद आ गया वो बचपन… पिताजी छोटे से गाँव में स्कूल के आचार्य थे | आचार्य का एक अर्थ होता है – आचरण करता है वो, याने आचार्य | पिताजी का वो सुवर्ण काल था | मैंने उन्हें एक शिक्षक, नियमबद्ध कड़े रूख अपनाते आचार्य, प्राथमिक आरोग्य सुरक्षा देते हुए डॉक्टर, गाँव के पोस्ट मास्टर, गाँव के छोटे-मोटे झगड़े या घरेलू प्रश्नों को सुलझाने वाले सामाजिक कार्यक्रर, सच्चे देशभक्त … न जाने कितने रूप में मैंने अपने पिताजी को देखा था |
मैं चलता हुआ गाँव की और बढ़ता गया | गोइंड़े के मैदान में भी अब पक्के मकान बन चुके थे | जहाँ हम स्कूल के बाद गिल्ली-डंडा खेलने आया करते थे, फिर वहीं पर क्रिकेट खेलते | दाईं और तालाब और उसी के पास शिव मंदिर…. जो अब दिखता नहीं था | उसके आई एक नई स्कूल का बड़ा सा मकान बन गया था | पुराणी स्कूल अब थी मगर उसी स्कूल के कम्पौंड में आचार्य का सरकारी आवास बिलकुल खाली था, ताला लटक रहा था और दरवाज़ा टूटा हुआ था | आँगन में बड़ा सा नीम का पेड़ आज भी हमारे मासूम हाथों के संस्पर्श की यादों में बूढा हो चला था | जहाँ पर हम अपनी दो गाय, बछड़े बांधते थे वो जगह, चारा भरने का छोटा सा कमरा… नामों निशाँ नहीं था | मेरी आँखों तरस गयी थी |
गाँव में प्रवेश करते ही राधा मौसी का घर था | उसका बेटा था…बचपन का साथी… जो आठ-दस साल की उम्र में ही अपने खेत के कुंएं पर नहाने गया था और उसी में डूब गया था | मेरे पिताजी ही उसे दोनों हाथों में उठाकर गाँव में लाए थें | तब मौत के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था, किसी ने कहा था – “बाबुडियो भगवान ना घेर गयो छे !” आज भी सोचता हूँ की हमारी दोस्ती को छीनकर बाबुडिया ले जाने की भगवान को क्या जल्दी थी? मगर वो आज है मेरी स्मृति में | उसे भगवान भी नहीं छीन सकता |
जगदीश महाराज का घर था | कहते थे की – उसी जगह पर सगराम वाघरी (देवीपूजक) की झोंपड़ी थी, जहाँ भगवान स्वमिनारण खुद पधारे थे और उसी झोंपड़ी में रहकर गए थे | वहां उनके कपडे और कुछ चीजें आज भी मौजूद है | ,मगर वो अब जगदीश महाराज का घर नहीं है, स्वामीनारायण मंदिर हैं | आगे चलकर एक चौराहा था | गाँव में एक मात्र घोड़ागाड़ी थी, सीताराम भाई की | हम उन्हें मामा जी कहते थे | माँ उसे राखी बांधती थी | उनका घर क्या था ? वो तो शिव मंदिर था और उसी के आँगन में छोटा सा, कच्चा माकन था | सीताराम मामा उसी में रहते थे | हम भाई-बहन वहां खेलने जाते थे | एक बार बड़े भाई से उनके चश्मे टूट गए | डांटने के डर से भाई दौड़कर बाहर जाने वाले थे, ऐसे में प्राईमस पर पतीले में चाय उबल रही थी | उसे ठोकर लग गयी और भाई का पैर जल गया | फिर भी घर आकर छुप गए | सीताराम मामा को पता चला की हर्षद यहाँ खेलता था और ये उबलती चाय गिराकर ही भागा होगा | वो खुद घर आए और मेरी माँ से कहा; “बहन, देखो तो… हर्षद से चाय गिर गयी थी.. कहीं जला तो नहीं? ” गाँव के रिश्तों का यह अहसास और अपनापन हमारे संस्कार के रूप में आज भी संजोकर रखने की ज़िम्मेदारी हम इमानदारी से निभाने की कोशिश करते रहते हैं |
बीच में एक क्षत्रिय का घर आता था | गंभीरसिंह उनका नाम | हम तीनों भाईयों को यज्ञोपवित देने का समय आया था तब मामा बनकर गंभीरसिंह और उनके परिवार ने हमें प्यार-सम्मान दिया था | कैसे भूल सकते हैं उस मिट्टी के ऋण को हम ! गाँव के सरपंच थे – खोडूभा खेताजी परमार | ग्राम सभा में उनके साथ पिताजी का अलग स्थान रहता था | गाँव की स्कूल में आचार्य और ब्राह्मण | किसी भी मसले पर अपने निर्णय की बात आती तो सरपंच खोडूभा खेताजी परमार पिताजी से सलाह-मशविरा करके ही निर्णय करते | गाँव का कोइ भी व्यक्ति खोडूभा के सामने बोल नहीं सकता था मगर पिताजी के द्वारा बात पहुँचती तो कहते – ‘बड़े साहब ने कहा है तो हम मान जाते हैं… उन्हें नकार नहीं सकते |
अब शहर की हवा लग चुकी है इस शरीर को.. ज्यादा चलना बस की बात नहीं रही | वापस अपने घर लौट रहा हूँ तो काली नागिन सी सड़क मुंह फाड़कर मेरा इंतजार करती हैं | हर प्रकार के प्रदूषणों से आभूषित यह शहर की और मैं लौट रहा हूँ… लगता है जो ज़िंदगी बची है वो बहुत कम है | जितना कुछ उस गाँव ने दिया है, उसमें से थोडा-बहुत इंसानियत के लिए बांटता चलूँ…. जगजीत सिंह की गई हुई उस ग़ज़ल की पंक्तियाँ याद आती है……….
अब मैं राशन की कतारों में नज़र आता हूँ
अपने खेतों से बिछड़ने की सजा पाता हूँ…
संप्रति- श्री. सी.एच. शाह मैत्रीविद्यापीठ महिला कॉलेज
साहित्य क्षेत्र- कविता, कहानी, लघुकथा, निबंध, रेखाचित्र, उपन्यास, राजस्थान पत्रिका में पत्रकारिता ,रुचि- पठन, फोटोग्राफी, प्रवास, साहित्यिक-शैक्षिक और सामाजिक कार्यों में रुचि।
प्रकाशित पुस्तके
अगनपथ (लघुउपन्यास) तथा भीष्म साहनी श्रेष्ठ वार्ताओं का- हिंदी से गुजराती अनुवाद, अगनपथ (हिंदी लघुउपन्यास), संप्राप्तकथा (लघुकथा-संपादन), आगिया (रेखाचित्र संग्रह), दस्तख़त (सूक्तियाँ) – माछलीघर मां मानवी (कहानी संग्रह), झाकळना बूँद (ओस के बूँद) (लघुकथा संपादन) , सामीप्य (स्वातंत्र्य सेना के लिए आज़ादी की लड़ाई में सूचना देनेवाली नोर्मन मेईलर की मुलाक़ातों पर आधारित संग्रह) तथा मर्मवेध (निबंध संग्रह) – आदि रचनाएँ गुजराती में।
दस्तावेजी फिल्म
१९९४ गुजराती के जानेमाने कविश्री मीनपियासी के जीवन-कवन पर फ़िल्माई गई दस्तावेज़ी फ़िल्म का लेखन और दिग्दर्शन , निर्माण- दूरदर्शन केंद्र- राजकोट
प्रसारण- राजकोट, अहमदाबाद और दिल्ली दूरदर्शन से कई बार प्रसारण।
स्तंभ- टाइम्स ऑफ इंडिया (गुजराती), जयहिंद, जनसत्ता, गुजरात टु डे, गुजरातमित्र, फूलछाब (दैनिक)- राजकोटः मर्मवेध (चिंतनात्मक निबंध), गुजरातमित्र (दैनिक) – सूरतः माछलीघर (गुजरात कहानियाँ)
सम्मान- सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मेलन में तत्कालीन विज्ञान-टेक्नोलॉजी मंत्री श्री बच्ची सिंह राऊत के द्वारा सम्मान।
ई मेल– pankajtrivedi102@gmail.com