हक़ीक़त के आईने में:बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान

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unnamed (1) – निर्मल रानी –

प्रकृति हालांकि अपने समस्त प्राणियों में लिंग के आधार पर संतुलन बनाए रखती है। परंतु मानव जाति ने अपनी बुद्धि तथा ‘ज्ञान’ का प्रयोग कर इस संतुलन को बिगाडऩे का काम किया है। परिणामस्वरूप भारत जैसे देशों में होने वाली कन्या भ्रुण हत्या के चलते लिंगानुपात में परिवर्तन होने लगा है। और देश के कई राज्यों में पुरुषों की संख्या अधिक तथा महिलाओं की संख्या में कमी होने लगी है। जिसके कारण समाज में शादी-विवाह हेतु रिश्तों सहित कई तरह की समस्याएं खड़ी हो रही हैं। इन सामाजिक दिक्कतों से रूबरू होने के बाद भारत सरकार द्वारा तथा विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा महिलाओं के विकास तथा उत्थान संबंधी तथा विशेषकर कन्याओं को दी जाने वाली सुविधाओं से संबंधित कई योजनाएं संचालित की जा रही हैं। कहीं महिला के नाम संपत्ति करने पर सरकारी रजिस्ट्री शुल्क में छूट दी जा रही हैं तो कहीं कन्याओं को मुफ्त शिक्षा दी जा रही है। कहीं कन्या के पैदा होते ही सरकार निर्धारित धनराशि उसकी शिक्षा तथा उसके विवाह के नाम पर बैंक में जमा करवा रही है तो किसी राज्य में लड़कियों की पढ़ाई हेतु साईकल मुफ्त में उपलब्ध कराई जा रही है। और कई राज्य ऐसे हैं जहां इकलौती कन्या संतान के होने वाले परिवार को विशेष तौर पर अच्छी धनराशि देकर प्रोत्साहित किया जा रहा है।परंतु इन सबके बावजूद अब भी आम परिवारों में यही धारणा बनी हुई है कि लडक़ा ही उनके वंश को चलाने वाला है तथा लडक़ी परिवार के लिए बोझ,समस्या तथा चिंता का कारण है। लिहाज़ा तमाम सरकारी व गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद अब भी सामान्य भारतीय परिवार पुत्र मोह से स्वयं को अलग नहीं कर पा रहा है। आखिर ऐसी सोच के पीछे क्या कारण हैं और क्या इन कारणों को नज़र अंदाज़ किया जा सकता है?

यह एक कड़वा सच है कि जो भारतीय मां स्वयं कल एक कन्या थी वह मां बनने के बाद स्वयं बेटी व बेटे के बीच भेद करने लगती है। खाना-पीना,पहनना-ओढऩा,जेब खर्च,आज़ादी हर बात में लडक़े पर अधिक तवज्जो दी जाती है। लडक़े को पूरी तरह स्वतंत्र रखा जाता है जबकि लडक़ी को नाना प्रकार की बंदिशों में बांध कर रखा जाता है। हालांकि आजकल आधुनिक समाज में फिर भी लड़कियां शिक्षित होकर रोज़गार हेतु उपने घरों व शहरों से दूर आने-जाने लगी हैं। फिर भी समाज में महिलाओं के प्रति प्राय: तंग नज़रिया होने के चलते अभिभावकों के लिए उनकी बेटियों का घर से बाहर निकलना चिंता का सबब बना रहता है। यदि खुशकिस्मी से लडक़ी इज़्ज़-आबरू के साथ पढ़-लिख कर कोई रोज़गार हासिल कर लेती है और उसके विवाह का समय आता है उस समय लडक़ी के माता-पिता के समक्ष शादी हेतु दहेज तथा दूसरे भारी-भरकम वैवाहिक खर्च की चिंता सवार हो जाती है। जैसे-जैसे देश में मंहगाई बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे शादी-विवाह पर होने वाले खर्च तथा इस अवसर पर किया जाने वाला दिखावा भी कई गुणा बढ़ता ही जा रहा है। जितने पैसों में एक दशक पूर्व तक साधारण लोग अपनी बेटी का विवाह कर दिया करते थे उससे अधिक पैसे तो अब मात्र विवाह के निमंत्रण पत्र को बांटने तक में खर्च हो जाते हैं।क्योंकि अब कई वर्षों से जहां मंहगे से मंहगा व आकर्षक निमंत्रण पत्र प्रचलन में आ चुका है वहीं निमंत्रण पत्र के साथ मंहगे से मंहगे मिठाई के डिब्बे अथवा ड्राई फू्रट के पैकेट बहुत ही मंहगी पैकिंग में विवाह से पूर्व ही बांटे जाने लगे हैं। वहीं दूसरी तरफ मैरिज पैलेस के चलन में आने के बाद तो मध्यम श्रेणी की शादी का आयोजन 20 से लेकर 25 लाख रुपये होने लगा है जबकि उच्च श्रेणी की शादियों के आयोजन में करोड़ों रुपये $खर्च किए जाने लगे हैं। शादी में खाने-पीने संबंधित व्यंजन इतने अधिक होते हैं कि कोई भी व्यक्ति प्रत्येक व्यंजन का स्वाद भी नहीं चख सकता। विवाह समारोहों में लाखों रुपये खर्च कर गीत-संगीत के आयोजन किए जाते हैं। और कई धनाढ्य लोग तो मशहूर कलाकारों को भारी रक़म देकर अपने समारोह में आमंत्रित करते हैं।
किसी धनाढ्य परिवार द्वारा अपनी पुत्री की शादी पर खुलकर पैसा खर्च किया जाना हालांकि उसका निजी मामला है तथा कोई भी व्यक्ति अपनी सामथर््य के अनुसार ऐसा कर भी सकता है। परंतु दरअसल यही बातें ऐसी भी हैं जिनका दूसरी बेटियों के विवाह पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। और हमारा सामाजिक ताना-बाना ऐसे फुज़ूल खर्च होने वाले आयोजनों के चलते बिगडऩे लगता है। कोई परिवार यदि इतने बड़े स्तर पर अपनी बेटी का विवाह नहीं कर पाता तो वह भीतर ही भीतर घुटता रहता है और अगर अपनी हैसियत के भीतर उसने अपनी बेटी का हाथ किसी युवक के हाथों में दे भी दिया तो उसकी बेटी दहेज न लाने या कम लाने का ताना सारी उम्र अपनी ही सास व ननद से झेलती रहती है। और यदि कुछ लोग अपनी बेटी को साधारण आयोजन द्वारा कम खर्च में उसका विवाह कर उसे बिदा नहीं करना चाहते तो ऐसी स्थिति में उन्हें अपनी ज़मीन-जायदाद बेचनी पड़ती है या फिर इधर-उधर से कजऱ् उठाकर अपनी इज़्ज़त बचाने का दिखावा करना पड़ता है। शादी-ब्याह में खाने-पीने पर होने वाले असीमित खर्च को रोकने के लिए जम्मु-कश्मीर सरकार द्वारा कुूछ वर्ष पूर्व यह कानून बनाया गया कि किसी भी विवाह में मात्र पांच प्रकार की खान-पान संबंधी सामग्री ही बनाई जा सकेगी। इस कानून को राज्य में सख्ती से लागू भी किया गया। ऐसे ही कानून प्रत्येक राज्य सरकार द्वारा बनाए जाने चाहिए जिससे कि कम से कम खान-पान पर होने वाले असीमित खर्च को तो नियंत्रित किया ही जा सके।
देश में दहेज विरोधी कानून भी मौजूद है। दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध हैं। इस कानून का पालन करते हुए कहीं कोई दिखाई नहीं देता। धड़ल्ले से न केवल भारी-भरकम दहेज का आदान-प्रदान हो रहा है बल्कि दहेज संबंधी सामग्री के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर धनराशि भी अपनी बेटी को स्त्री धन के रूप में संपन्न माता-पिता द्वारा दी जा रही है। इस संबंध में सरकार अथवा प्रशासन की ओर से ऐसे किसी विवाह में किसी प्रकार का व्यवधान डालने की खबरें तो कभी नहीं सुनाई देती। जबकि ऐसे समाचार ज़रूर कभी न कभी सुनने को मिलते ही रहते हैं जबकि दूल्हे की बारात बेरंग वापस लौटा दी गई। या फिर लडक़ी की पहल पर ही लालची दूल्हे के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई हो। परंतु सरकार व पुलिस के पास ऐसा कोई ज़रिया नहीं है जिससे कि वह पूरे देश में प्रतिदिन होने वाले विवाह समारोहों पर नज़र रख सके और यह सुनिश्चित कर सके कि कहीं गैर कानूनी रूप से दहेज या नकद धनराशि का लेन-देन तो नहीं हो रहा या कहीं असीमित खाद्य सामग्रियां तो नहीं परोसी जा रहीं।
कुूल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि महिलाओं के प्रति राजनेताओं द्वारा हमदर्दी जताना,महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण हेतु नाटकीय प्रयास करना, तथा बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसी और कई कन्या संबंधी योजनाओं का विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा लागू करना महज़ एक महिला वोट बैंक संबंधी कदम दिखाई देता है। खासतौर पर जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पत्नी को अकारण त्याग कर बेटी बचाओ मुहिम की शुरुआत तो करते दिखाई देते हों और दूसरी ओर उनकी अपनी पत्नी अथवा किसी दूसरे परिवार की बेटी सूचना के अधिकार के तहत अपने अधिकारों को जानने का प्रयास करती नज़र आती हो। और उसके अपने अधिकारों के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाए जाने की संभावना संबंधी समाचार सुनाई देते हों तो राजनेताओं के महिलाओं के उत्थान के प्रति बहाए जाने वाले आंसू और भी घडिय़ाली आंसू दिखाई देने लगते हैं। लिहाज़ा यह कहना गलत नहीं होगा कि बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा सुनने में भले ही कितना आकर्षक क्यों न लगता हो परंतु हकीकत के आईने में इस नारे के पीछे की सच्चाई कुछ और ही है।
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nirmalrani,writernirmalraniपरिचय : –

निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !

संपर्क : -Nirmal Rani  : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City13 4002 Haryana
email : nirmalrani@gmail.com –  phone : 09729229728

* Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS .

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