गीत-1
ताप सहे खुदहम सबको सिरजी शीतल छाया।
बाग लगाये तुमने
मीठा फल हमने खाया।
जिये समय प्रतिकूल
परिस्थितियाँ विपरीत सहीं
जग बिफरा पर तनिक
नीति-पथ से तुम डिगे नहीं
शक्ति आत्म की प्रबल
भले ही है बूढ़ी काया।
बढ़कर गोवर्धन धारे
जब मौसम हुये विरुद्ध
तुम ही सारथि बने
जिताने को जीवन का युद्ध
जहाँ निहत्थे हुये
ढाल सा वहीं तुम्हें पाया।
लोभ लाभ में पड़
उजले आचार नहीं खोये
बरती मर्यादा
हममें शुचि संस्कार बोये
पुण्य तुम्हारे हैं
न पड़ा हम पर दुःख का साया।
गीत-2
जग सेतुमको अपना कहना
कितना मन को भाता है ।
निकल घरों से
साँझ सुरमई
ढलते–ढलते
नदिया की लहरों की लय पर
चलते–चलते
संग तुम्हारे
सपने बुनना
कितना मन को भाता है ।
साहिल से लगती नावें
उडुगन की पाँते
सुर्ख क्षितिज सी
अंतहीन
कितनी ही बातें
मीत तुम्हारे लब से सुनना
कितना मन को भाता है ।
संन्ध्या के अरुणिम मुख पर
ज्यों झुकता
बादल
चंदा से मुखड़े को
इन काँधों का संबल
आँचल के संग
मन का उड़ना
कितना मन को भाता है।
गीत-3
पहचाने चेहरों में
बढ़ा अजानापन।
दिखते, आते-जाते
राहों में अक्सर
बढ़ जाते
वो हमसे, हम उनसे बचकर
ऐसी अंधी दौड़
हो गया है जीवन।
भूले-भटके
कभी अगर रुक भी जाते
हाय-हलो भर में
चुक जातीं सब बातें
तारी हो जाती
अधरों पर मूक-घुटन।
नये साल पर
दीवाली पर, होली पर
मिले संदेशा
ट्विटर, ह्वाट्सप, एफ बी पर
हुआ यांत्रिक विनिमय भर
अब अपनापन।
बच्चों सा रोते-रोते
हँस पड़ने का
मन होता
बेलौस चौकड़ी भरने का
टीस रहे हैं काँधें
लाद सयानापन।
गीत-4
अहंकार, आडंबरगुटबाजी है, जुमले हैं।
कलमकार
ज्यों राजनीति के रण में उतरे हैं।
छोटे-बड़े घराने
सबके ही, अपने चेले
निर्वासन शाही मंचों से
एकलव्य झेले
महलों के रसूख
बेचारे टीन-औ-पतरे हैं।
साँठगाँठ सत्ता, बनिकों सी
चले यहाँ पर भी
काबिलियत से क्या
जब तमगा मिले लगाकर घी
उम्दा छपने को तरसे
चर्चा में कचरे हैं।
जोड़-जुगत महिमा-गायन
झूठों लफ्फाजों का
कुछ बदला कब
अब भी युग है चारण-भाटों का
सच कह
कविता में भी
गुमनामी के खतरे हैं।
वाह-वाह मुख पर
हिरदय में उठती हैं आहें
आँख-ओट सब इक-दूजे की
गोंड़ रहे राहें
द्वेष, जलन से भरे
यहाँ भी मन के अँतरे हैं।
गीत-5
कभी सोचता हूँक्या जिनगी बीतेगी भागे-भागे?
हाय-हपस हारा-हूँसी से
फारिग होंगे कनबोझे
ऐंचा-तानी बखत कभी
हो ही जाएँगे सम-सोझे
किंतु जुगत पीछे होती
चलती मुश्किल आगे-आगे।
घर, दलान, खलिहान, खेत
जर-जेवर की
तकरारों में
सुबह शाम चुक जाती
यों
इनके उनके मनुहारों में
फट ही जाते मन
आखिर कब तक जुड़ते
तागे-तागे।
जो जगता वह ही है पाता
जो सोता
वह है खोता
पढ़ा पोथियों में
पर पाया
जग में उल्टा ही होता
वे सो कर घी चाभ रहे
हम टाप रहे जागे-जागे।
हाट, डेयरी, माल, रेस्तराँ
जू, जिम, जलसाघर मंदिर
दफ्तर थाना कोर्ट
हर कहीं
हूँ भरसक हाजिर-नाजिर
किन्तु
हृदय की विजिटर-बुक पर
दर्ज
फ़क़त नागे-नागे।
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कृष्ण नन्दन मौर्य
लेखक व् कवि
प्रकाशित कृतियाँ- : विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, अंतर्जाल एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन प्रसारण। स्थानीय मंचों पर सक्रिय उपस्थिति।
कार्यक्षेत्र- : भारत संचार निगम लि. में कार्यरत, हिन्दी साहित्य के पठन एवं लेखन में रुचि। संगीत एवं फोटोग्राफी में अतिरिक्त रुचि।
संपर्क -: 154, मौर्य नगर, पल्टन बाजार , प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश – 230001 – ईमेल – : krishna.n.maurya@gmail.com