कंचन पाठक की कविताएँ

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कंचन पाठक की कविताएँ 

” भाए ना तुम बिन कोई रंग “

अमित शुचित नीलाभ फ़लक से
मारुत-हास में छलका भंग
दहका लाल पलाश पुष्प-वन
भाए ना तुम बिन कोई रंग !!
आम्र तरु श्रृंखलित मंजरियाँ
तीख़ी मद गन्ध बिखेर रही
भ्रमर नाद से दिशा गुंजरित
अखिल रागिनी … तैर रही
मन्मथ सर्जित नवल धरित्री
कलकूजन करता नभ विहंग
दहका लाल पलाश पुष्प-वन
भाए ना तुम बिन कोई रंग !!
अमलतास पीताभ मदान्वित
याद पुरानी संग ले आई
तापविरह अकुलाया तन-मन
पी पुकार कोकिल बौराई
पथ में प्रिय के बिछ पराग
मांगे अनुरागित साथ संग
दहका लाल पलाश पुष्प-वन
भाए ना तुम बिन कोई रंग !!
मादक महुआ पुहुप का नर्तन
फ़ाग हवाओं में उड़ता-सा
भटका मन का पथिक अकेला
विस्मृत गलियों में मुड़ता-सा
कब पूरी हो चित्त अभिलाषा
प्यासा-प्यासा फिरता अनंग
दहका लाल पलाश पुष्प-वन
भाए ना तुम बिन कोई रंग !!
विमल धरामग नवल रागमय
पवन बसंती जिया जलाए
बैरन हो गई श्यामल रतियाँ
नींद भी पलकन द्वार न आए
नीरव नैना तपस्विनी बनी
रह-रह उठे उर पीड़ा तरंग
दहका लाल पलाश पुष्प-वन
भाए ना तुम बिन कोई रंग !!
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” हवा बसंती बौराई “

गुन-गुन गुंजित भ्रमर गीत सुन
कली सुंदरी मुस्काई,
फागुन के आने की सुनकर
हवा बसन्ती बौराई !!
दश दिश झूमे नव-नव पल्लव
कूक कोयलिया विहगन कलरव
हरित ओष्ठ पादप लख शुकदल
पखियन पसार पीहू अकुलाई !
फागुन के आने की सुनकर
हवा बसन्ती बौराई !!
मंजरियाँ मधु-शीश उठाए
अजब सुवास मदिर बिखराए
महुआ गंध पगी पुरवैया
चले बहकी-बहकी मदमायी
फागुन के आने की सुनकर ,
हवा बसन्ती बौराई !!
मन मतवाला बहका जाए
तन फूलों संग महका जाए
लगा लुटाने प्रखर रंग रवि
उषा सुंदरी शरमाई !
फागुन के आने की सुनकर
हवा बसन्ती बौराई !!
स्वप्ननिमिलीत दृग प्रणयी की
उत्कंठा उद्दाम मिलन की
प्रकृति से लिपटे मन्मथ पर
शत सहस्त्र चढ़ी तरुनाई !
फागुन के आने की सुनकर ,
हवा बसन्ती बौराई !!
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प्रेम एक उद्दाम पीड़ा

प्रेम जोग दुसाध्य रोग
गीतों में कह गयी मीरा
तीव्र झंझा प्रखर ज्वाला
प्रेम एक उद्दाम पीड़ा .. !!
विकट व्याकुलता का सिंधु
पार होता ह्रदय मिट कर
मार्ग कंटक तृषा निर्मित
पथिक चलना तू संभलकर
क्लांतकम्पित नदी विप्लव
वह्नि दुर्गम तटिनी तीरा !
तीव्र झंझा प्रखर ज्वाला
प्रेम एक उद्दाम पीड़ा .. !!
अर्धतमी की वेणु धुन-सा
मोहता सम्मोहता यह
खोया-खोया प्रिय मिलन
की निरत रस्ता जोहता यह
समाधिस्थ मुग्धित अवस्था
भाव का बहुमूल्य हीरा !
तीव्र झंझा प्रखर ज्वाला
प्रेम एक उद्दाम पीड़ा .. !!
वेदना भी मधुर इसकी
नृत्य उन्मद ताल प्रतिपल
मर्म मुखरित अमित रागिनी
चित्त तृषाकुल सदा बेकल
उरजलधि में प्रिय छवि करे
प्रहर आठों मौन क्रीड़ा !
तीव्र झंझा प्रखर ज्वाला
प्रेम एक उद्दाम पीड़ा ..!!
छद्म धोखा छल मिले जब
फिर कहाँ वह ठौर पाए
वन विजन में फिरे पागल
चैन का नहीं दौर पाए
स्वप्न खण्डित कण समेटे
अक्षियाँ बहे सदा नीरा !
तीव्र झंझा प्रखर ज्वाला
प्रेम एक उद्दाम पीड़ा ..!!
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” आखिरी गुहार ”

मिट्टी का घोर उपासक वह
कर्मठता का सागर अनूप
मेहनत इनकी हीं हँसती है
ले खेतों में खादान्न रूप
जो फूँके श्रम का पाँचजन्य
कर्म साधना-रत लीन है .. !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
पक जाता असमय रुक्ष केश
पोषण सबका करते – करते
जा फँसता ऋण के दलदल में
ज्वाला अभाव जलते जलते
प्रगति से परे फिर भी जीवन
सुविधाओं वन्चित हीन है .. !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
कभी उपज की कीमत नगण्य
तो कम फसल की पैदावार से
हानि विविध सह प्रकृतिजन्य
कभी मानसून की मार से ..
जो पेट भरता देश का वही
परिव्राजक सा धन-हीन है .. !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
करने को जीवन का यापन
वह गले तक कर्जे में डूबा
राष्ट्र को जो अन्न देता
फाके के जीवन से ऊबा
मदद माँगे किससे जाकर
आशा भी हुई विलीन है .. !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
विरत जीवन हुआ चैन से
कटे  कैसे बैंक का ऋण
विदा हो गयी नींद नैन से
आस का ना एक भी तृण
बची अल्प उम्मीद भी
साहूकार लेता छीन है .. !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
जब मोड़कर मुख को खड़ी
हो प्रकृति भी विपरीत होकर
हाय किसका तब सहारा
थक गई आँखें भी रो कर
चला करने वरण मृत्यु वह
लाचारी के हो अधीन है .. !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
रास्ते सब बन्द हो गए
द्वार पर अब किसके जाए
फाँसी के फन्दे पे चढ़ कर
क़र्ज़ से वह मुक्ति पाए
रूदन करते विवश परिजन
विधि सम्वेदना-विहीन है !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
मार्ग कन्टक कौन धरता
शौक से है कौन मरता
घिर के मजबूरी से बेबस
राह मृत्यु की है चुनता
युग सदी के दृगम्बुओं में
ये कटु सत्य समासीन है !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
बस आत्महत्या है नहीं
ये मदद की है गुहार आखिरी
विवश मेहनतकश ह्रदय के
वेदना की पुकार आखिरी
मूक चीख में प्रतिध्वनित
चिर प्रबल स्वर उत्कीर्ण है !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!
तकनीक नित अपना नई
सुन ओ कृषक अब जाग तु
नव प्रोद्योगिकी को थामकर
स्वयं रच ले अपना भाग्य तु
तस्वीर ख़ुद की बदल अहो
क्यों चिन्तना – तल्लीन है !
कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़
पर हालत कृषक की दीन है !!

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Kanchan Pathak,INVC NEWSपरिचय :
कंचन पाठक
कवियित्री, लेखिका

शिक्षा – प्राणी विज्ञान से स्नातकोत्तर (M.Sc. in Zoology)
प्रयाग संगीत समिति से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रवीण (M.A)
दो संयुक्त काव्यसंग्रह “सिर्फ़ तुम” और ”काव्यशाला” प्रकाशित एवं तीन अन्य प्रकाशनाधीन ।
आगमन साहित्य सम्मान २०१३ ।

लेखन विधा – कविताएँ (छंदबद्ध, छंदमुक्त), आलेख, कहानियाँ, लघुकथाएँ, व्यंग्य ।
कादम्बिनी, अट्टहास, गर्भनाल पत्रिका, राजभाषा भारती (गृहमंत्रालय की पत्रिका), समाज कल्याण (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय), रुपायन (अमर उजाला की पत्रिका) समेत देश के विभिन्न राज्यों के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रचनाएँ प्रकाशित ।
इन्टरनेट पर विभिन्न वेब पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।

मेल आईडी – pathakkanchan239@gmail.com

14 COMMENTS

  1. aapko main hamesha padhta hoon. aapki lekhni bahut utkrisht hai.Hindi sahitya jagat ki saan hai aap.Ham sabko aappar garva hai.

  2. Nowadays when the level of literature is experiencing such a downfall your proses, poetries and write-ups gives a feeling that literature is still alive after Bachchan, Nirala, Pant and Mahadevi.

  3. She’s a versatile writer and poetess, very much present and caring for the problems of the society. Very loving and caring person.Her poetry and articles touch to the heart .Wish her best of the luck…

  4. आपकी रचना दिल को छू गयी।बहुत खूब लिखती हैं आप।आपपर हमेशा ऐसी ही ईश्वर की अनुकम्पा बनी रहे और आप ऐसे ही लिखती रहें।

  5. आपकी रचना पढ़ के ऐसी अनुभूति होती है मानो जैसे स्वर्ग में विचरण का सौभाग्य मानव शरीर धारण कर ही मिल गया हो।एक अलौकिक अनुभूति होती है देवी जी।आपकी हर रचना हिंदी साहित्य को एक अनुपम भेंट है।आपकी सृजन क्षमता और आपको नमन देवी।

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