केंद्र सरकार ने संयुक्तराष्ट्र के अन्तर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझोते, संसदीय समिति, वर्मा समिति, बाल अधिकार कार्यकर्ता, विशेषज्ञयों और संगठनों की सिफारिशों को दरकिनार करते हुए “जघन्य अपराधों” के आरोपी 16 से 18 साल के किशोरवय अपराधियों पर वयस्कों के लिए बने कानूनों के तहत मुकदमा चलाने के प्रस्ताव को मंजूरी प्रदान कर दिया था । सरकार क्या वास्तव में सोचती है कि इस अधिनियम से महिलाओं पर हिंसा कम हो जाएगा ? जबकि खुद संसदीय समिति ने अपने रिपोर्ट में इस प्रस्तावित संसोधन की आलोचना की है, समिति ने नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो (2012 -2013) के हवाले से इस बात को प्रमुखता से रेखांकित किया हे कि देश में 472 मिलियन बच्चे हे जिसमे से केवल 1.2 % बच्चो ने विधि विरोधी काम किया हे और केवल 0.02% बच्चे जघन्य अपराधों में शामिल रहे हैं. कमिटी ने जोर देकर कहा था कि कानून का आधार “विधि विवादित बच्चों” का सुधर करना, पुनर्वास करना चाहिए ना कि उनसे प्रतिशोध लेना, इसलिए किशोर न्याय अधनियम के आधारभूत मूल्यों को किसी भी अवस्था में परिवर्तित नहीं किया जाना चाहिए. कमेटी ने यह भी कहा था कि इस प्रस्तावित किशोर न्याय अधिनियम में कुछ बिन्दुओ पर कठोर परिवर्तन किये गए हे जो की इस कानून की मंशा को ख़त्म कर देते हे इसलिए सरकार की अपने इस फैसले पर दोबारा विचार करने की जरुरत है।
दूसरी तरफ कई अध्यनों से यह सिद्ध हुआ हे की एक खास उम्र तक किशोरो का दिमाग पूरी तरह से विकसित नहीं होता हे,उनमे नयी चीजो को करने की उत्सुकता होती है,वे अपरिपक्व होते हे अतः उसके साथ वयस्कों जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता है, “विधि विवादित बच्चों” के साथ सजा, दंड, निवारण, पुनर्वास के बीच संतुलन बनाने की जरुरत हे. हमारे देश देश में कोई भी बाल सुधार गृह एसा नहीं हे जहां अन्तर्राष्ट्रीय मापदंड के आधार पर पुनरस्थापना,पुनर्वास और बच्चो में सुधार किया जा सके। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे देश देश के बाल सुधार ग्रहों की स्थिति के अध्यन के लिए न्यायाधीश मदन बी. लोकर की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गयी थी जिसकी रिपोर्ट हाल ही में आई है, इस न्यायिक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के सरकारी बाल सुधार गृहों में रह रहे 40% “विधि विवादित बच्चे” बहुत चिंताजनक स्थिति में रहते हैं, इन बाल सुधार गृहों की हालत वयस्कों के कारागारों से भी बदतर है. कमेटी के अनुसार बाल सुधार गृहों को को “चाइल्ड फ्रेंडली” तरीके से चलाने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं ।
गए कुछ दिनों में सलमान खान और जयललिता के मुकदमों से स्पष्ट दिखता हैं कि न्याय व्यवस्था गरीब और वंचित वर्ग के लिए अलग मापदंडो से चलती हैं और अमीर के लिए अलग। इस बात की पूरी संभावना है कि प्रस्तावित किशोर न्याय विधेयक अमीर और गरीब बच्चों के लिए अलग मापदंड आपनाए जा सकते हैं । आंकड़े बताते हैं कि 80 % “विधि विवादित बच्चे” ऐसे गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं जिनके परिवारों की वार्षिक आय 50 हजार रुपये के आस-पास होती हैं। हमारे पुलिस की जो ट्रैक- रिकॉर्ड और कार्यशैली है उससे इस बात की पूरी संभावना है कि इस बदलाव के बाद इन गरीब परिवारों के बच्चे पुलिस व्यवस्था का सॉफ्ट टारगेट हो सकते हैं और इन पर गलत व झूठे केस थोपे जा सकते हैं। ऐसे होने पर गरीब परिवार इस स्थिति में नहीं होंगें की वे इसका प्रतिरोध कर सकें ।
बच्चों की सुरक्षा और सम्पूर्ण विकास के लिए कार्यरत महिला और बाल विकास मंत्रलाय इस कदम से बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन कर रहा हैं। एक वयस्कों का समाज अपने बच्चों को सुधारने और अच्छा नागरिक बनाने की ज़िम्मेदारी से मुह फेर रहा हैं। सरकार को चाहिए की वह किशोर न्याय विधेयक में संशोधन के जरिये बच्चों के अधिकारों को सीमित करने कने की बजाय निष्क्रिय और चरमराई किशोर सुधार व्यवस्था को बेहतर बनाये, इसे लागू करने के लिय जमीन, संसाधन और वर्कफोर्स की तैयारी पर ध्यान देना दे इसके दुरूपयोग के संभावनाओं को सीमित करते हुए ऐसे मजबूत व्यवस्था का निर्माण करे जहाँ “विधि विवादित बच्चों” को संविधान और अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों की भावना के अनुरूप सुधार और पुनर्वास का मौका मिल सके ।