क्या विश्व महाविनाश के लिए तैयार है

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– डाँ नीलम महेंद्र –

अमेरीकी विरोध के बावजूद उत्तर कोरिया द्वारा लगातार किए जा रहे हायड्रोजन बम परीक्षण के परिणाम स्वरूप ट्रम्प और किम जोंग उन की जुबानी जंग लगातार आक्रामक होती जा रही है।
स्थिति तब और तनावपूर्ण हो गई जब जुलाई में किम जोंग ने अपनी इन्टरकाँन्टीनेन्टल बैलिस्टिक मिसाइल का सफल परीक्षण किया।
क्योंकि न तो ट्रम्प ऐसे उत्तर कोरिया को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं जिसकी इन्टरकाँटीनेन्टल बैलिस्टिक मिसाइलें न्यूयॉर्क की तरफ तनी खड़ी हों और न ही उत्तर कोरिया अपने परमाणु कार्यक्रम बन्द करने के लिए।
इस समस्या से निपटने के लिए ट्रम्प का एशिया  दौरा महत्वपूर्ण समझा जा रहा है क्योंकि इस यात्रा में उनकी विभिन्न एशियाई देशों के राष्ट्राध्यक्षों से उत्तर कोरिया पर चर्चा होने का भी अनुमान है।
मौजूदा परिस्थितियों में चूंकि दोनों ही देश एटमी हथियारों से सम्पन्न हैं तो इस समय दुनिया एक बार फिर न्यूक्लियर हमले की आशंका का सामना करने के लिए अभिशप्त है।
निश्चित ही विश्व लगभग सात दशक पूर्व द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए न्यूक्लियर हमले और उसके परिणामों को भूल नहीं पाया है और इसलिए उम्मीद है कि स्वयं को महाशक्ति कहने वाले राष्ट्र मानव जाति के प्रति अपने दायित्वों को अपने अहं से ज्यादा अहमियत देंगे।
यह बात सही है कि अमेरिका 1985 से ही उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम को बंद करने की  कोशिश में लगा है। इसके बावजूद अमेरिका द्वारा उत्तर कोरिया पर लगाए गए प्रतिबंध या फिर उसकी किसी भी प्रकार की कूटनीति अथवा धमकी का असर किम जोंग पर कम ही पड़ता दिखाई दे रहा है।
ट्रम्प की चिंता समझी जा सकती है लेकिन समस्या का हल ढूंढने के लिए किम जोंग और उनकी सोच को समझना ज्यादा जरूरी है।
और इसे समझने के लिए उत्तर कोरिया का इतिहास समझना आवश्यक है।
दरअसल द्वितीय विश्व युद्ध से पहले तक  कोरिया पर जापान का कब्जा था। इस युद्ध में जापान की हार के बाद कोरिया का विभाजन किया गया जिसके परिणामस्वरूप उत्तर कोरिया जिसे सोवियत रूस और चीन का समर्थन मिला और दक्षिण कोरिया जिसे अमेरिका का साथ मिला ऐसे दो राष्ट्रों का उदय हुआ।
जहाँ एक तरफ अमेरिकी सहयोग से दक्षिण कोरिया आज विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और विश्व के लगभग 75% देशों के साथ उसके व्यापारिक संबंध हैं,
वहीं उत्तर कोरिया आज भी एक दमनकारी सत्तावादी देश है जिस पर किम जोंग और उनके परिवार का शासन है। रूस और चीन के सहयोग के बावजूद उत्तर कोरिया का विकास समिति ही रहा क्योंकि एक तरफ इसकी मदद करने वाला सोवियत रूस 1990 के दशक में खुद ही विभाजन के दौर से गुजर रहा था इसलिए इसे रूस से मिलने वाली आर्थिक सहायता बन्द हो गई वहीं दूसरी तरफ इस देश ने उसी दौर में भयंकर सूखे का भी सामना किया जिसमें उसके लाखों नागरिकों की मौत हुई और साथ ही देश की अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गई।
रही चीन की बात तो उसने उत्तर कोरिया के सामरिक महत्व को समझते हुए इसे केवल अमेरिका को साधने का साधन मात्र बनाए रखा।  उत्तर कोरिया के साथ अपने व्यापार को चीन ने केवल अपने स्वार्थों तक ही सीमित रखा, उसे इतना भी नहीं बढ़ने दिया कि उत्तर कोरिया खुद एक सामर्थ्यवान अर्थव्यवस्था बन जाए।
नतीजन आज उत्तर कोरिया के सम्पूर्ण विश्व में केवल चीन के ही साथ सीमित व्यापारिक संबंध हैं।
इन हालातों में दुनिया को किम जोंग तर्कहीन और सनकी लग सकते हैं लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो उनका मौजूदा व्यवहार केवल अपनी सत्ता और सल्तनत को बचाने के लिए है। क्योंकि किम ने  सद्दाम हुसैन और मुअम्मर अल-गद्दाफ़ी का हश्र देखा है।
इसलिए इन हथियारों से किम  शायद केवल इतना ही सुनिश्चित करना चाहते हैं कि किसी भी देश की उन पर आक्रमण करने की न तो हिम्मत हो और न ही कोशिश करे।
अब देखा जाए तो अपने अपने नजरिये से दोनों ही सही हैं।
आज की कड़वी सच्चाई यह है कि विकसित देशों की सुपर पावर बनने की होड़ और उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने वर्तमान परिस्थितियों को जन्म दिया है।
इन हालातों में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्ष इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिए एक साथ बैठेंगे तो वे किसका हल तलाशेंगे , “समस्या”  का या फिर “किम जोंग” का?
इस प्रश्न के ईमानदार उत्तर में ही शायद  समस्या और उसका समाधान दोनों छिपे हैं।
इसके लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम चर्चा में शामिल होने वाले राष्ट्र खुद को सुपर पावर की हैसियत से नहीं  पृथ्वी नाम के इस खूबसूरत ग्रह के संरक्षक के रूप में शामिल करें।
ईश्वर की बनाई इस धरती और उसमें पाए जाने वाले जीवन का वे एक हिस्सा मात्र हैं मालिक नहीं इस बात को समझें।
अपनी महत्वाकांक्षाओं के अलावा आने वाली पीढ़ियों के प्रति भी उनके कुछ फर्ज हैं इस तथ्य को स्वीकार करें।
अवश्य ही हममें से कोई भी अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक ऐसा उजड़ा चमन छोड़ कर नहीं जाना चाहेगा जहाँ की हवा पानी पेड़ पौधे फल अनाज मिट्टी सभी इस कदर प्रदूषित हों चुके हों कि इस धरती पर हमारे बच्चों के लिए आस्तित्व का संघर्ष ही सबसे बड़ा और एकमात्र संघर्ष बन जाए।
यह बात सही है कि हथियारों की दौड़ में हम काफी आगे निकल आए हैं लेकिन उम्मीद अब भी कायम है कि  “असंभव कुछ भी नहीं” ।
“जीना है तो हमारे हिसाब से जियो नहीं तो महाविनाश के लिए तैयार हो जाओ”  यह रवैया बदलना होगा और   ” चलो सब साथ मिलकर इस धरती को और खूबसूरत बनाकरप्रकृति का कर्ज चुकाते हैं”, इस मंत्र को अपनाना होगा।
जरूरत है सोच और नजरिया बदलने की परिस्थितियों अपने आप बदल जाएंगी।

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परिचय -:

डाँ नीलम महेंद्र

लेखिका व्  सामाजिक चिन्तिका

राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय समाचार पत्रों तथा औनलाइन पोर्टल पर लेखों का प्रकाशन फेसबुक पर ” यूँ ही दिल से ” नामक पेज व इसी नाम का ब्लॉग, जागरण ब्लॉग द्वारा दो बार बेस्ट ब्लॉगर का अवार्ड

संपर्क – : drneelammahendra@hotmail.com & drneelammahendra@gmail.com

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