भारतीय राजनीति का एक ओर आपातकाल : सिंहासन डोल उठा है ?

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– निर्मल रानी –

Indian political is a part of the emergency,Indian political  emergency, political  emergency in india, political  emergency of indiaभारतीय राजनीति 1977 के उस यादगार दौर से भी गुज़र चुकी है जबकि स्वर्गीय इंदिरा गांधी की कथित तानाशाही के विरुद्ध देश का समूचा गैर कांग्रेसी विपक्ष स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट हुआ था। उस समय जनता पार्टी का गठन हुआ था। क्या समाजवादी तो क्या दक्षिणपंथी सभी कांग्रेस विरोधी मोर्चे में एक मंच पर इक_े हुए। आपातकाल के फौरन बाद देश में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ऐसी करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था गोया जैसे कांग्रेस पार्टी संभवत: अब कभी सत्ता में आने के योग्य ही नहीं रह जाएगी। पूरे देश में कांग्रेस विरोधी वातावरण बना हुआ देखा जा रहा था। 1977 में मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने। परंतु मात्र दो वर्षों के बाद 1979 में ही राजनीति ने कुछ ऐसी करवट बदली कि चौधरी चरण सिंह जनता पार्टी में एक खलनायक के रूप में उभरे। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनाया और 1980 में कांग्रेस पार्टी पूरी जनता पार्टी को अपने ‘राजनैतिक कौशल’ से पटखऩी देकर पुन: सत्ता में वापस आ गई। देश ने 2014 में एक बार फिर वैसा ही वातावरण कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध देखा है। देश में  2014 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को ऐसी एक बार फिर वैसी ही करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा और भारतीय जनता पार्टी को इतने ज़बरदस्त बहुमत से सत्ता हासिल हुई कि लगता था कि न तो अब कांग्रेस पार्टी कभी सत्ता में वापस आने वाली है न ही भाजपा सत्ता से जाती दिखाई दे रही है। खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी पर अपनी पकड़ मज़बूत की थी उसे देखकर तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था कि गोया भाजपा अब मोजपा (मोदी जनता पार्टी)हो चली है। 60 वर्ष के कांग्रेस के शासनकाल के बदले जनता से केवल साठ महीने अर्थात् पांच वर्ष के शासन की मोहलत मांग कर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी इतने उत्साही थे कि सत्ता में आने के बाद वे 20 और 25 वर्षीय योजनाएं बनाने लगे थे। हालांकि राजनैतिक विश£ेषक यह भलीभांति जानते हैं कि नरेंद्र मोदी व भाजपा को कांग्रेस पार्टी ने अपनी नाकामियों की वजह से खासतौर पर भ्रष्टाचार व मंहगाई के चलते सत्ता थाली में परोस कर दे दी थी। परंतु मोदी को यह गुमान होने लगा था कि उनकी भाषण शैली तथा उनकी लोकप्रियता की वजह से उन्हें यह सत्ता हासिल हुई है।

सत्ता में आते ही नरेंद्र मोदी पर दंभ व अहंकार का भूत सवार हो गया। उन्होंने न केवल कें्रदीय मंत्रिमंडल में मंत्रियों को शामिल किए जाने के विषय में बल्कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों,मंत्रियों,राज्यपालों तथा संगठनात्मक पदाधिकारियों के मनोनयन में भी अपनी मनमानी करनी शुरु कर दी। जिस प्रकार उन्होंने गुजरात में स्वयं को चुनौती देने वाले भाजपा के कई नेताओं को ठिकाने लगाया यहां तक कि केशूभाई पटेल व शंकरसिंह वघेला जैसे नेता इन्हीं की वजह से पार्टी से अलग हो गए। हरेन पांडया के परिवार के लोग आज तक मोदी को कोसते आ रहे हैं। उसी प्रकार नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में भी अपने ‘राजनैतिक कौशल’ का परिचय देते हुए अपने ही गुरू सरीखे लाल कृष्ण अडवाणी तथा मुरली मनोहर जोशी,जसवंत सिंह,यशवंत सिन्हा जैस्ेा कई वरिष्ठ पार्टी नेताओं को किनारे लगा दिया। अमित शाह जैसे विवादित तथा कई संगीन अपराधों में अदालती कार्रवाईयों व जांच एजेंसियों का सामना करने वाले यहां तक कि एक समय में अदालत द्वारा गुजरात से निष्कासित किए जा चुके अमित शाह को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद जैसी अति महत्वपूर्ण जि़म्मेदारी सौंप दी। अमितशाह ने भी पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद ‘एक तो करेला उस पर नीम चढ़ा’ जैसी कहावत को चरितार्थ करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे अधिक विश्वासपात्र नेता होने का दंभ भरते हुए स्वयं को पार्टी नेताओं के समक्ष उसी अहंकारी अंदाज़ से पेश करना शुरु कर दिया। उनके विषय में यह शिकायतें आ चुकी हैं कि वे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी मिलने का समय नहीं देते। अपने आदर्श नरेंद्र मोदी के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए वे मीडिया से मिलने की ज़रूरत भी महसूस नहीं करते। और जब जनता से रूबरू होते भी हैं तो भाजपा की बिहार में हार पर पाकिस्तान में पटाखे फूटने जैसा घटिया फलसफा पेश करते हैं।

उपरोक्त परिस्थितियों ने ही हालंाकि भारतीय जनता पार्टी तथा इसके दोनों मुख्य सिपहसालारों नरेंद्र मोदी व अमित शाह को सत्ता में आने के मात्र 8 महीने के बाद ही दिल्ल्ी विधानसभा के चुनावों में अच्छी तरह से आईना दिखा दिया था। परंतु एक छोटा प्रदेश होने के नाते दिल्ली वासियों के फैसले को नरेंद्र मोदी व अमितशाह ने अहमियत देना मुनासिब नहीं समझा। और अपने इसी दंभ व अहंकार,पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी व अनसुनी करने तथा अपने-आप में अत्यधिक आत्मविश्वास होने की गलतफहमी को पाले रखा। परिणामस्वरूप बिहार विधानसभा के चुनावों में भी पार्टी को कमोबेश दिल्ली जैसे हालात का ही सामना करना पड़ा। देश के इतिहास में अब तक किसी भी प्रधानमंत्री ने किसी एक राज्य में विधानसभा चुनावों के दौरान इतनी जनसभाएं नहीं कीं जितनी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली व बिहार में अपनी साख बचाने के लिए कर डालीं। परंतु इसके बावजूद बिहार में जिन 30 सीटों पर प्रधानमंत्री ने अपनी रैलियां कीं पार्टी वह सभी सीटें भी नहीं जीत सकी। इनमें केवल 13 सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई। बिहार के कुल 38 में से 14 जि़लों में भाजपा को एक भी सीट हासिल नहीं हुई। जबकि 13 जि़लों में भाजपा के नेतृत्व में लड़ रही एनडीए को एक भी सीट प्राप्त नहीं हुई। अभी मात्र डेढ़ वर्ष पूर्व ही 2014 के लोकसभा चुनाव में स्वयं नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों की जीत से उत्साहित होकर अमितशाह को मैन ऑफ की मैच की उपाधि से नवाज़ा था। परंतु दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणाम ने यह साबित कर दिया कि लोकसभा चुनावों में पार्टी की जीत नरेंद्र मोदी अथवा अमितशाह के किसी करिश्मे की जीत नहीं थी बल्कि यह कांग्रेस पार्टी की भ्रष्टाचार व मंहगाई के प्रति आंखें मूंदे रखने का ही परिणाम था।

बिहार की पराजय के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने अब अपनी चुप्पी तोड़ दी है। लाल कृष्ण अडवाणी ने पार्टी की नाकामी को लेकर मोर्चा खोल दिया है। पार्टी की हार की जि़म्मेदारी तय की जानी  चाहिए, इस विषय पर केवल अडवाणी ही नहीं बल्कि यशवतं सिन्हा,शांताकुमार, मुरली मनोहर जोशी,शत्रुघ्र सिन्हा,आर के सिंह जैसे और भी कई वरिश्ठ नेताओं ने बगावत के तेवर दिखाने शुरु कर दिए हैं। बिहार में बेगूसराय से दूसरी बार सांसद चुने गए भोला सिंह ने बिहार की हार के लिए सीधेतौर पर अमितशाह को जि़म्मेदार ठहराया है तथा यह भी कहा कि प्रधानमंत्री की घटिया व अशिष्ट भाषा बिहार में चुनाव के हार का कारण बनी है। भोला सिंह ने कहा कि कहां तो प्रधानमंत्री सबका साथ सबका विकास की बातें करते थे और कहां उन्होंने राज्य में गौमांस की बात की तथा अमितशाह ने बिहार की हार पर पाकिस्तान में पटाखे फूटने जैसी अशिष्ट भाषा का प्रयोग किया। इस प्रकार के आरोप यदि भाजपा के विरोधियों द्वारा लगाए जाएं या मात्र मीडिया द्वारा मढ़े जाएं फिर तो इन्हें महज़ आरोप या पार्टी को बदनाम करने का हथकंडा कहकर टाला जा सकता है। परंतु पार्टी के भीतर से वह भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की ओर से उठाई जाने वाली इस प्रकार की आवाज़ें निश्चित रूप से इस बात की ओर इशारा कर रही हैं कि रेत पर बना दिल्ली का सिंहासन अब डगमगाने लगा है। यहां एक बात यह भी गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की सत्ता हासिल करने के लिए यहां भी गुजरात जैसी रणनीति अपनाई थी। यानी उन्होंने जिस प्रकार गुजरात में अपने विरोधियों व विरोधी दलों के विद्रोहियों के लिए अपने दरवाज़े खोलकर विपक्ष को समाप्त करने की रणनीति अिख्तयार की थी वही रणनीति उन्होंने 2014 लोकसभा चुनावों में भी अपनाई। परिणामस्वरूप इस समय लगभग 120 भाजपा सांसद लोकसभा में ऐसे हैं जो अन्य दलों से आयातित हैं। ज़ाहिर है उनके ऊपर न तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नियंत्रण है न ही नरेंद्र मोदी का बल्कि यह उस प्रवृति के नेता हैं जो सिंहासन को डगमगाते हुए देखकर अपने राजनैतिक भविष्य को बचाने और सत्ता से चिपके रहने हेतु कभी भी कोई भी निर्णय ले सकते हैं।

लिहाज़ा कोई आश्चर्य नहीं कि पार्टी में बढ़ते आक्रोश तथा पार्टी के वरिष्ठतम नेताओं द्वारा उठाए जाने वाले आलोचना के स्वर देश की राजनीति में एक बार फिर 1979 की याद ताज़ा कर दें। और नरेंद्र मोदी व अमित शाह के दिल्ली व बिहार के राजनैतिक कौशल को देखकर एक बात यह तो प्रमाणित हो चुकी है कि इन दोनों में इस बात की कतई सलाहियत नहीं है कि यह पार्टी में उठने वाले किसी भी विद्रोह रूपी स्वर को दबा सकें। क्योंकि अब तक इनकी जो भी सफलता अथवा राजनैतिक कमाई नज़र आ रही है उसका पूरा श्रेय कांग्रेस की असफलता तथा इनके पीछे लगने वाली राष्ट्रीय स्वयं संघ की ताकत को ही जाता है। पिछले ही दिनों अमित शाह ने मार्गदर्शक मंडल के नेताओं पर यह कहकर एक निशाना साधने की कोशिश की थी कि साठ वर्ष से ऊपर के नेताओं को राजनीति छोडक़र समाज सेवा के क्षेत्र में चले जाना चाहिए। अमितशाह का यह निशाना भी ‘बैक फायर’ कर गया क्योंकि स्वयं उनके राजनैतिक आका नरेंद्र मोदी ही 65 वर्ष की आयु पार कर चुके हैं। लिहाज़ा मोदी व अमितशाह की जोड़ी द्वारा ‘आंखें बंद कर मुंह खोल देने’ का जो खतरनाक खेल खेला जा रहा है वह इस नतीजे पर पहुंचने के लिए काफी है कि दिल्ली का सिंहासन अब डोल उठा है?

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nirmalraninirmal-rani-invc-newsपरिचय – :

निर्मल रानी

लेखिका व्  सामाजिक चिन्तिका

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !

संपर्क : – Nirmal Rani  : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City13 4002 Haryana ,  Email : nirmalrani@gmail.com –  phone : 09729229728

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