सत्ता और बाजार के चक्रव्यूह में फंसती पत्रकारिता

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– संजय रोकड़े –

Honest-is-journalism-Deadविकास के दौर में कुछ अच्छाइयां छूटती है तो कुछ बुराईयां जुड़ती भी है। परिवर्तन के काल में सब कुछ पुराना रहे सर्वथा संभव नहीं हैं, जबकि हम चाहते है कि कुछ नया घटित हो तो फिर पुराना ,पुराना कैसे रह सकता है। चिंता तो तब बढ़ जाती है जब पुराने का स्वरूप ही विकृत हो जाता है। यहां इस बात का जिक्र स्वतंत्रता के पूर्व और बाद की पत्रकारिता में आए बदलावों के संदर्भ में है। इन बदलते प्रतिमानों ने मीडिया को सत्ता के बहुत करीब लाकर छोड़ दिया है, जो पत्रकारिता कभी आम की हुआ करती था वह अब खास की होकर रह गयी है। मीडिया में बदलाव के इस दौर में संपादक नामक पद का भी तेजी से मान घटा है। देखा जाए तो अब संपादक का मुख्य काम खबरों का संपादन न होकर प्रबंधन करना हो गया है। चुनावी समय में यह संपादक पूरी तरह से नेता और मीडिया संस्थान के बीच की कड़ी बन कर विज्ञापन के बहाने अर्थ प्रबंधन करने वाला प्राणी मात्र बन कर रह गया है। देश ही नही बल्कि राज्यों के चुनाव में अब पत्रकारों का काम केवल और केवल जुगाड़ बिठाने का रह गया है। सत्ता और मीडिया संस्थानों के बीच जो व्याापारिक संबंध बने थे वे बीते लोक सभा चुनाव में बेहतर तरीके से उभर कर सामने आए। यह लोकसभा चुनाव इस बात का जीवंत प्रमाण बना कि अब पत्रकारिता का मुख्य ध्येय मात्र सत्ता और सत्ता रह गया है। सन 1947 से 2017 तक पत्रकारिता का सफर कहां तक पहुंचा है इसके आत्म परीक्षण और आत्म निरीक्षण का समय अब आ गया है। इतने समय में पत्रकारिता ने अपने कई रूप बदले हैं। आज जिस रूप में पत्रकारिता उभर कर सामने आयी है वह मानवीय से बदल कर व्यावसायिक हो गयी है। मीडिया संस्थानों द्वारा कुछ हद तक पत्रकारिता में व्यावसायिकरण करना संस्थागत मजबूरी हो सकती है लेकिन संस्थानों को ही व्यवसाय के हवाले कर देना ये सबसे बड़ी चिंता है। मीडिया संस्थानों ने जब से अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से छुटकारा पाया है तब से इस क्षेत्र में बड़ा अंधेरा पसरा है। एक तरह से घातक बना हुआ है। हालाकि सत्ता और पत्रकारिता का यह संबंध कोई नया नहीं है लेकिन पिछले कुछ दशक से पत्रकारिता का सत्ता के प्रति जो मोह बढ़ा है वह चितंनीय होने के साथ-साथ जन सरोकार रखने वाली पत्रकारिता के लिये भी घातक बन गया है।

बड़ी खुशी की बात है कि दर्जनों इलेक्ट्रानिक्स मीडिया के संवाददाता अपनी कठिन परिश्रम शक्ति के चलते चुनावों की एक-एक खबर पर पैनी नजर रख कर दर्शकों को हर एक खबर से रूबरू करते है। इनके द्वारा की गई मेहनत के बावजूद जो कुछ देखने में आता है उसे देखते हुए तो ऐसा ही लगता है कि मिडिया सत्तारूढ़ पक्ष का ही गुणगान करता है। पत्रकारिता जगत में सत्ता पक्ष का झुठा गुणगान करके जिस तरह से 15 वीं लोकसभा में भाजपा को सत्तारूढ़ करने की कहानी गढ़ी गयी उससे उसकी विश्वसनीयता पर तो आंच आयी , साथ ही पत्रकारिता का दोगला चेहरा भी उभरकर सामने आया। चैनलों ने मोदी की हवा है का झुठ परोस कर यही साबित किया कि अब पत्रकारिता का ध्येय मात्र सत्ता के गुणों का गीत गान करना ही रह गया है। इससे यह भी सामने आया कि आज की पत्रकारिता के सामने कोई उदेश्य नहीं बचा है। सूचना आते ही सोचना बंद की पत्रकारिता करने वाले मिडिया मालिक और तथाकाथित मठाधीश पत्रकार अब सत्ता और बाजार के आगे नतमस्तक होकर, जो भी सूचना आई परोसने का काम कर रहे है। जो गुणवत्ता कभी पत्रकारिता में  हुआ करती थी वह आज के परिपेक्ष्य में काफी हद तक बदल गई है। पत्रकारिता का सन 1857 से 1947 तक का जो दौर था वह एकवादी न होकर बहुवादी था। सामाजिक सुधार सामाजिक न्याय, सामाजिक समानता, नारी उत्थान, अछूतोध्दार, राष्ट्रीय जागरण, साम्राज्यवाद का विरोध और देश के नागरिकों की संपूर्ण आजादी ही इसके मुख्य ध्येय थे, लेकिन बदलते समय के साथ यह आंदोलनवादी चेहरा सत्ता और बाजार की भेंट चढ़ता चला गया। जिस मकसद के साथ पत्रकारिता को एक नई पहचान देनी था वह सत्ता और बाजार के फेर में भटक कर रह गयी है।

हमारे बुजुर्ग पत्रकारों और समाज के रणनीतिकारों ने मीडिया के माध्यम से समाज उत्थान की जो रणनीतिनाएं बनाई थी अब वह कहीं से कहीं तक दिखाई नहीं दे रही है। हमारे ऐतिहासिक मराठा, बंगवासी, हिन्दी प्रदीप, अमृत बाजार पत्रिका, केशरी, भारत मित्र, संजीवनी, हिंदोस्थान, मार्तण्ड, प्रताप,  स्वराज्य, यंग इंडिया, नवजीवन, कर्मवीर स्वदेश-मित्र,नेशनल हेराल्ड, लीडर जैसे सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं ने राजसत्ता की परवाह किये बगैर जनसरोकार की पत्रकारिता को प्राथमिकता दी थी। अब इस तरह की पत्रकारिता का खासा अभाव दिखाई दे रहा है। उस दौैर की पत्रकारिता में राज्यों के निर्माताओं (राजनेताओं और ब्यरोक्रेट्स) पर अंकुश लगाते हुए उन्हें दूसरे दर्जे का स्थान दिया था, वहीं अब हम इन राज्य नियंताओं की वाहवाही करने से बाज नहीं आ रहे हैं। अखबारों के बड़े-बड़े रंगीन पृष्ठ और चैनलों के स्क्रीन राजनेताओं की प्रसिद्घियों से पटे पढ़े होते है। लोक सरोकार की पत्रकारिता इस समय लूप्त सी हो गयी है। पत्रकारिता का जो मिशनवादी चेहरा था वह शनै: शनै: बदलता चला गया या इसे यूं कहे की यह पूरी तरह से नष्ट हो गया है तो अतिश्योक्ति नही होगा। इस समय पत्रकारिता में व्यवसायिकता और पूंजी का बोलबाला हो गया है। सन् 1947 से 1964 तक के नेहरूकाल की विकासवादी पत्रकारिता भी इस पूंजीवादी दौर की भेंट चढ़ गयी है। हालाकि नेहरूकाल की पत्रकारिता ने अपने को इधर-उधर भटकने से रोकने का भरसक प्रयास किया था। देश की एकता एवं विकास को केन्द्र बिन्दु बना कर उस दौर में पत्रकारिता होती थी। कभी भी सत्तापक्ष को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। सत्ता पक्ष की परवाह न करने वाले तत्कालीन क्षेत्रीय दैनिक प्रतिष्ठित अखबार नईदुनिया, आज, आर्यवर्त, सन्मार्ग से राज्य सरकारे हमेशा भयभीत और डरी रहती थी। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि पत्रकारिता और राजनीति ने अपनी-अपनी सीमाएं तय कर रखी थी। दोनों ने ऐसे गठबंधन को जन्म देने की कोशिश नहीं की जिसकी वजह से वे किसी अपराध बोध के तले दबते चले जाएं और जनता के समक्ष स्वयं को गुनहगार समझे। क

थित रूप से तत्कालीन समय में नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान जैसे राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक भी सत्ता पक्ष की पैरवी करने वाली भूमिका निभाने से बचते रहे थे। बावजूद इसके कि तत्कालीन समय में उनके ऊपर राजनीतिक दबाव और प्रभाव खासा रहा था। नेहरूजी की मृत्यु के बाद पत्रकारिता का चेहरा पुरी तरह से पलट गया। यह दो खेमों में बंटकर रह गया। एक खेमा व्यावसायिक पत्रकारिता का पक्षधर था तो दूसरा राजनीतिक पत्रकारिता का पक्षधर बन गया। इस दौर में अब यही जिंदा है। कांग्रेस की राजनीति में अपना आभामंडल बिखेरने वाले नेहरू के बाद तेज तर्रार इंदिरा ब्राण्ड की राजनीति के उदय होने पर राजनीति एवं पत्रकारिता एक दूसरे को अलग नहीं करक पायी और इसी दौर से पत्रकारिता के राजनीतिकरण की शुरूआत हो गयी। राहुल- मोदी के युग में आते आते मीडिय़ा घरानों व मक्कार प्रवृत्ति के पत्रकारों ने पत्रकारिता का पूरी तरह से व्यावसायिकरण और राजनीतिकरण कर दिया है। इस समय प्रेस मालिक, पत्रकार और राजनीतिज्ञ एक दूसरे के इतने करीब आ गये कि पत्रकारिता में मात्र व्यक्ति निष्ठा ही दिखाई देने लगी है। आब्जेक्टिविटी खत्म सी हो गयी है। मीडिय़ा को जब- जब भी जनता के पक्ष में खड़ा होते दिखाई देना चाहिए था तब- तब वह बाजार की ताकतों के साथ खड़ा दिखाई दिया। चाहे देश के चुनावी समय का दौर हो या चाहे आपातकाल का समय, हर दौर में मीडिय़ा मालिकों ने जनता के साथ छलावा किया। उस समय भी कुछ खुदगर्ज किस्म के प्रेस मालिकों, संपादकों, पत्रकारों ने दोहरी भूमिका निभाकर पत्रकारिता का जन विरोधी चेहरा पेश किया था। सन् 1977 की जनता की ‘जनता पार्टीÓ के शासन काल से लेकर 1980 में इंदिरा वापसी और 1984 में राजीव के उदय तक हिन्दी पत्रकारिता का चेहरा और भी बदल चुका था। इस समय बड़ी संख्या में क्षेत्रीय अखबारों का विस्तार हुआ इसी समय इलेक्ट्रानिक मीडिया भी अपने पैर पसारने में लग गया था। इसी दौर में क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियां भी सामने आई और इन टुच्ची राजनीतिक शक्तियों ने सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली। इस पैठ को जमाने के लिए नये राजनेताओं को प्रेस का सहयोग चाहिए था और उन्होंने धनबल के चलते प्रेस का भरपूर दुरूपयोग किया। जिस तरह से राजनीति में राजनेताओं के आने का सिलसिला शुरू हुआ उसी तरह पत्रकारिता के व्यवसाय में शराब ठेकेदार, बिल्डर, और छोटे-छोटे पूंजीपति आते चले गये। इनके आने से पत्रकारिता का तेजगति से गंदगीकरण हुआ। इनके आने से पत्रकारिता का पूरी व बुरी तरह से राजनीतिकरण हो गया। इनके आने से पत्रकारिता का जो मिशनरी काल था वह भी पूरी तरह से समाप्त हो गया। इसका असर समाज पर जो भी पड़ा हो लेकिन पत्रकारिता ने एक नया मोड़ जरूर ले लिया।

इसके बाद जिस तरह से राजनीतिक घटनाक्रम में तीव्रता आती गयी उसी के साथ पत्रकारिता का मानवीय धर्म भी बदल कर रह गया, रही सही कसर भूमंडलीकरण ने पूरी कर दी। अब जो दौर पत्रकारिता का आया है वह पत्रकारिता मेें गुणवत्ता और लोक सरकारों को दूर कर घटनाओं के कवरेज और विस्तार का रह गया है। आज की पत्रकारिता सन सनीखेज फैलाने वाली रह गयी है। चुनावी चंदे के साथ चलने वाली इस पत्रकारिता में अब समाज के प्रति कोई भी सरोकार नही रह गया है। इलेक्ट्रानिक मीडिय़ा का हाल तो बेहाल हो गया है। यहां व्यावसायिकता का भूत मालिकों के सिर पर इस कदर चढ़ गया है कि वे अपने साथी सहयोगियों के हित अहित को भी ध्यान में नही रख रहे है। हाल ही में एक ऐसा मामला खबरिया चैनल के माध्यम से सामने आया है। बताया जाता है कि इस चैनल के मालिक ने एक राजनीतिक दल के नेता को विशेष तवज्जों देने और कथित तौर पर उसका झूठा प्रचार प्रसार कराने के लिए अपने कर्मचारी पर दबाव बनाया लेकिन उसने इस दबाव को दरकिनार करते हुए नौकरी छोडऩा मुनासिब समझा। असल में इस समय इलेक्ट्रानिक मिडिया में साक्षात्कार जब तक खबर के लायक नहीं बन जाता हैं जब तक उसे प्रसारित करने का औचित्य नहीं समझा जाता है। इस गैर जिम्मेदाराना और अनैतिक सोच के चलते खबरों को तोड़-मरोड़कर पेश करने की एक नयी परीपाटी भी चल निकली है। चैनलों में साक्षात्कार करने वाला बीच-बीच में बात काटकर उत्तर देने वाले पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का प्रयास करते हुए कहता है कि अच्छा में आपकी बात को काटते हुए अपने अनुसार खबर निकालने का प्रयास कर बात को दूसरे शब्दों में कहता हूं और इसी बीच साक्षात्कार के दौरान ऐसे शब्दों को घूसाने की कोशिश करता है जिससे साक्षात्कार एक सनसनी खेज खबर बन कर रह जाए। अब पत्रकारिता सत्तारूढ़ पार्टियों के पक्ष और हितों की हितैषी बन गयी है।

जिस तरह से पत्रकारिता में ये नयी सोच और प्रवृत्तियां दिन रात आती जा रही है उससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही कुठाराघात हो रहा है। आज टी.वी. चैनलों पर समाचारों के नाम पर जो दिखाया जा रहा है वह मात्र अपने व्यावसायिक हितों को साधते ही दिख रहे हैं। पत्रकारिता का राजनीतिकरण होने के चलते अब स्थिति यह आ गयी है कि जो कभी पत्रकार हुए करते थे वे मीडिया जगत के उद्यमी हो गये है। पत्रकारों ने राजनीति में अपनी हैसियत के चलते या यंू कहे कि राजनीतिक सांठ गांठ के चलते बड़े-बड़े समाचार चैनल व अखबार शुरू कर दिए है। चौंकाने वाली बात यह भी है कि जब से राजनेताओं ने तबादलों को एक उद्योग का रूप दिया है तब से कुछ राज्यों में मंत्रियों पर दबाव डालकर तबादले करवाने का कोटा भी पत्रकारों ने अपने नाम करवा रखा है। तबादलों के इस करोड़ों के गोरख धंधे में अब पत्रकार और राजनेता साथ-साथ मिलकर इसका व्यवसाय कर रहे हैं। इसके चलते स्थिति और भी विकराल व खतरनाक हो गयी हैं। नेहरू, इंदिरा, राजीव, से अटल राहुल, मोदी के युग तक आने में मीडिय़ा ने यह साबित कर दिया है कि अब कोई भी गुण उसमें ऐसा नहीं बचा जिस पर विश्वास कर देश की आम जनता न्याय की अपेक्षा रख सके। अब वह समय नही है जिसमें जनता को इस बात का विश्वास दिलाया जा सके कि आज भी पत्रकारिता खास की नहीं बल्कि आम की ही है। पत्रकारिता के बदलते स्वरूप के साथ अब यह यक्ष प्रश्न खड़ा होता है कि भारतीय राष्ट्र-राज्य-जन और लोकतंत्र से सरोकार रखने वाली पत्रकारिता की यह भूमिका सही है या मुनासिब चिंतन कर इस पर लगे राजनीतिकरण के धब्बे को मिटाने की आवश्यकता है।

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sanjay rokdeपरिचय – :

संजय रोकड़े

पत्रकार ,लेखक व् सामाजिक चिन्तक

संपर्क – :
09827277518 , 103, देवेन्द्र नगर अन्नपुर्णा रोड़ इंदौर

लेखक पत्रकारिता जगत से सरोकार रखने वाली पत्रिका मीडिय़ा रिलेशन का संपादन करते है और सम-सामयिक मुद्दों पर कलम भी चलाते है।

Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his  own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS.

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