हिमांशु कश्यप की पाँच कविताएँ

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 हिमांशु कश्यप की पाँच कविताएँ

श्यामल सुमन की टिप्पणी : प्रतिभा को कौन दबा सका है आजतक? प्रतिभा उम्र, जाति, मज़हब, अमीरी, गरीबी से ऊपर उठकर हमेशा अपनी अलग पहचान बनाती आयी है और बनाती रहेगी। देखिये किशोर वय का एक बच्चा हिमांशु कश्यप जो सुदूर देहात में रहते हुए विपरीत परिस्थिति में भी कठिनाई  से इस साल बी० ए० में प्रवेश ही किया है पर “काल” को अपनी ऊँगलियों पर नचाने को आतुर है। इस जज्बे की जितनी तारीफ की जाय कम है। ऐसा लगता है कि हिमांशु ने जीवन को बहुत शिद्दत से महसूसा और जीया है तभी तो जीवन के हर रंग इनकी कविताओं मे स्पष्टता से परिलक्षित होता है। आज के इस भोगवादी दुनिया में जहाँ इस उम्र के बच्चे पिज्जा, बरगर और अन्य भौतिकतायुक्त जिन्दगी का लुत्फ उठाते अक्सर दिखते हैं वहीं हिमांशु की गम्भीर कविताएँ बहुत कुछ सोचने को विवश करतीं हैं। अपार साहित्यिक सम्भावनाओं से युक्त हिमांशु कश्यप की कुछ रचनाएँ पाठकों की समीक्षा हेतु प्रस्तुत है। सादर श्यामल सुमन

1. प्रतिकार
अंगारों को सिर पर धरकर,
जग की घिरनी पर पग रखकर,
मैं तुझको अपने वश में कर,
तुझे उल्टा पाठ पढ़ाऊँगा,
ऐ काल तुझे मैं अपनी ऊँगली,
पर अब नाच नचाऊँगा।

तेरी माया, मेरी काया,
जिसे छोड़ मैं पहले ही आया।
दूं तुझे हार, लूं प्रतिकार,
ये प्रण मैं करके हूँ आया।
तेरी ही माया में तुझको,
मैं आज यहाँ उलझाऊँगा।
ऐ काल तुझे मैं अपनी ऊँगली,
पर अब नाच नचाऊँगा।

सागर को गागर में भरकर,
मां के आँचल में तारे भर।
सूरज को भी गागर में भर,
सूरज की आग बुझाऊँगा।
ऐ काल तुझे मैं अपनी ऊँगली,
पर अब नाच नचाऊँगा।

कहता था मुझसे न टकराना,
मेरी खुशियों को न खाना।
तूने न मुझको पहचाना,
तेरी ग्रसनी को मैं सीके,
अब सुख की ज्योति जलाऊँगा।
ऐ काल तुझे मैं अपनी ऊँगली,
पर अब नाच नचाऊँगा।

2. समय की परिभाषा

इस उथल-पुथल की दुनिया में,
दिन-रात यूँ हीं मैं चलता हूँ।
दिन चलता है, मैं चलता हूँ,
दिन ढ़लता हैं, मैं चलता हूँ।
इस उथल-पुथल की दुनिया में,
दिन-रात यूँ हीं मैं चलता हूँ।

रातों की काली चादर में,
जब नैन मट्टका होता है,
कोई रिश्ता पक्का होता है।
जब मन भी कोई मचलता है,
ये देख मैं हौले चलता हूँ।
इस उथल-पुथल की दुनिया में,
दिन-रात यूँ हीं मैं चलता हूँ।

कितने आये और चले गए,
दिल में ये गम भी खलता है।
दिल जलता है, मैं चलता हूँ।
दिन ढ़लता है, मैं चलता हूँ।
इस उथल-पुथल की दुनिया में,
दिन-रात यूँ हीं मैं चलता हूँ।

पंछी जब नीड़ों में जाते,
बच्चों को वहाँ नहीं पाते।
व्याकुल हो खग जब चिल्लाते,
बेचैनी दिल में पलता है।
सब देख मैं फिर भी चलता हूँ।
इस उथल-पुथल की दुनिया में,
दिन-रात यूँ हीं मैं चलता हूँ।

क्षण भर को न विश्राम मिला,
बस सुबह मिली और शाम मिला।
बेला भी वो गोधूली मिली,
नभ जिसमें रंग बदलता है।
मैं तब भी टिक-टिक चलता हूँ।
इस उथल-पुथल की दुनिया में,
दिन-रात यूँ हीं मैं चलता हूँ।

मैं समय बड़ा दुःखदायी हूँ,
मैं काल की इक परछाई हूँ।
गिरगिट की तरह ही अपने,
मैं क्षण में रंग बदलता हूँ।
इस उथल-पुथल की दुनिया में,
दिन-रात यूँ हीं मैं चलता हूँ।

3.दर्द के अफ़शाने

आँखों की फुसलाती मुस्कानें
होठों की हँसी वो क्या जानें।
जो रूह से मेरे खेल रहा
दिल के अरमां वो क्या जानें।

है सोचता तू, कि मैं खुश हूँ
ये दर्देदिल तू क्या जानें।
इस बेजान सी मूरत के
बस तुम तो हो दीवानें।

न कोई यहाँ जो मेरे सपनें-
अरमानों को पहचानें।
है जिस्म पड़ी एक लाश़ की जैसी
कुत्तों से पड़ें हैं दीवानें।

मन से उनकों क्या मतलब है
बस जिस्म के है वो मस्तानें।
वो परवानें इन आँखों के
मन की भाषा वो क्या जानें।

वीरानीं इस दुनिया में
कोई मुझको अपना मानें।
यही आश लिये मैं जिंदा हूँ
मेरे मन को कोई पहचानें।
इस दिल के कोरे कागज पर,
लिखती हूँ दर्द के अफ़शानें।

4. तेरी बेवफ़ाई

बह के आँसू भी मेरे ये कहते गये,
भूल जा तू उसे, जो दगा दे गये।
प्यार करके ही तुमने बड़ी भूल की,
क्या हुआ गर वो तुमको सज़ा दे गये।
बह के आँसू भी मेरे ये कहते गये।

साथ रहने के वादे किये थे मगर,
वो हमें सिर्फ तन्हाईयां दे गये।
हम भी रोते रहें, दिल भी रोता रहा,
बिन बताए वो रूसवाईयां दे गये।
बह के आँसू भी मेरे ये कहते गये।

लोग कहते हैं, तुमने था परख़ा नहीं,
उसको समझा नहीं, उसको जाना नहीं।
ज़ख्म मेरा अभी इक भरा भी नहीं,
लोग आकर मुझे दूसरा दे गये।
बह के आँसू भी मेरे ये कहते गये।

‘चाँद’ चेहरा तेरा मेरी आँखों में है,
लोग क्या जाने, तुम मुझको क्या दे गये ?
मेरी आँखों में आँसू, और गम के सिवा,
अपनी यादों का तुम सिलसिला दे गये।
बह के आँसू भी मेरे ये कहते गये।

5.सच्चा प्यार

जुल्फों का काला बादल था,
और तेरे प्यार का आँचल था।
तेरे मोहपाश का कैदी मैं,
मैं तेरे नैंनों का घायल था।
तेरे गेशुओं में वो क्रीड़ा थी,
जो मेरी बेचैनी और पीड़ा थी।
सब बातों में तेरी बात नयी,
हर रात थी तेरी रात नयी।
क्यों मन को ऐसा रोग लगा ?
क्यों तुझ संग प्रेम का जोग लगा ?
सब जान भी तुझसे प्यार किया,
फिर तूने क्यों इनकार किया ?
क्यों तूने मेरा दिल तोड़ा ?
क्यों बीच भँवर लाकर छोड़ा ?
क्या मुझसे कोई खता हो गई ?
जो तू भी मुझसे खफा हो गई।

तेरे प्यार के न मैं लायक हूँ,
मैं तो एक तवायफ़ हूँ।
जो मुझसे प्रीत निभाएगा,
ये जग बैरी हो जाएगा।

जग की मुझको परवाह नहीं,
कितनें जग रोज बनाता हूँ,
हर जग को पग की ठोकर से,
मिट्टी में रोज मिलाता हूँ।
अब जान मेरी इनकार न कर,
एक बार तो अब इजहार तू कर।

ले अब मैंने इजहार किया,
तुझसे ही सच्चा प्यार किया।

himanshu kashyap,poet himanshu kashyapपरिचय:
 हिमांशु कश्यप

युवा कवि व् लेखक

S/O- इन्द्र मोहन मिश्र
पत्राचार पता- हिमांशु कश्यप
C/O- Anand Jha, At+po- Chainpur (Arjin Kunj),
dist- Saharsa, Bihar, Pin- 852212

himanshu kashyap : kashyaph005@gmail.com

3 COMMENTS

  1. बहुत ही सुन्दर कवितायें …अपनी लेखनी को निरंतर गति दें , अभिव्यंजना को स्पष्ट होने दें , इसके लिए कोई आवश्यक नहीं की काव्य ” प्रगीत ” ही हो …वैसे आपकी लेखनी में धार काफी तेज़ है . मुझे विश्वास है की मिथिला का नाम रौशन करेंगें . राष्ट्रभाषा में लिखने मैथिल वर्ग की वर्तमान पीढ़ी का नेतृत्व अभी मेरी समझ से मनोज कुमार झा ( तथापि जीवन काव्य के रचनाकार ) कर रहे हैं उनके आगे की पीढ़ी का सारथी आप बन सकते हैं . काफी संभावनाएं हैं आपमें ….शुभाशीष

    • आपके सार्थक सुझाव के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद SHIV KUMAR JHA जी

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