सुशांत सुप्रिय की हे राम और अन्य चार कविताएँ

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कविताएँ

 1. हे राम !

उनके चेहरों पर लिखी थी
‘ भूख ‘
उनकी आँखों में लिखे थे
‘ आँसू ‘
उनके मन में लिखा था
‘ अभाव ‘
उनकी काया पर दिखता था
‘ कुप्रभाव ‘
मदारी बोला —
‘ यह सूर्योदय है ‘
हालाँकि वहाँ कोई सवेरा नहीं था
मदारी बोला —
‘ यह भरी दुपहरी है ‘
हालाँकि वहाँ घुप्प अँधेरा भरा था
सम्मोहन मुदित भीड़ के साथ
यही करता है
ऐसी हालत में
हर नृशंस हत्या-कांड
भीड़ के लिए
उत्सव की शक्ल में झरता है

                            ——

  2. स्त्रियाँ और वृक्ष

श्श्श
कि स्त्रियाँ बाँध रही हैं धागे
इस वृक्ष के तने से
ये विश्वास के धागे हैं
जो जोड़ते हैं स्त्रियों को
ईश्वर से
केवल स्त्रियों में है वह ताक़त
जो वृक्ष को ईश्वर में बदल दे
श्श्श
कि गीत गा रही हैं स्त्रियाँ
पूजा करते हुए इस वृक्ष की
ये विश्वास के गीत हैं
जो जोड़ते हैं स्त्रियों को
ईश्वर से
केवल स्त्रियों में है वह भक्ति
जो गीत को प्रार्थना में बदल दे
आश्वस्त हैं स्त्रियाँ अपनी आस्था में
कि वृक्ष के तने से बँधे धागे
उनकी प्रार्थना को जोड़ रहे हैं
उनके आदिम ईश्वर से

                          ———-०———-

 3. एक , दो , तीन और पाँच पैसे के सिक्के

मेरे बालपन की
यादों की गुल्लक में
अब भी बचे हैं
एक , दो , तीन
और पाँच पैसे के
बेशक़ीमती सिक्के
उन पैसों में बसी है
उन्नीस सौ सत्तर के
शुरुआती दशक
की गंध
उन सिक्कों में बसा है
माँ का लाड़-दुलार
पिता का प्यार
हमारे चेहरों पर
मुस्कान लाने का
चमत्कार
अतीत के कई लेमनचूस
और चाकलेट
बंद हैं इन पैसों में
तब पैसे भी
चीज़ों से बड़े
हुआ करते थे
एक दिन
न जाने क्या तो
कैसे तो हो गया
माँ धरती में समा गई
पिता आकाश में समा गए
मेरा वह बचपन
कहाँ तो खो गया
अब केवल
बालपन की यादों
की गुल्लक है
और उस में बचे
एक, दो , तीन
और पाँच पैसे के
बेशक़ीमती सिक्के हैं …
हज़ार-हज़ार रुपये के
नोटों के लिए नहीं
इन बेशक़ीमती पुराने
सिक्कों के लिए
अब अक्सर
बिक जाने का
मन करता है

                         ———-०———-

 4. काम पर बच्चे

सुबह के मटमैले उजाले में
दस-ग्यारह बरस के
कुम्हलाए बच्चे
काम पर जा रहे हैं
बुझी हुई हैं उनकी आँखें
थके हुए हैं उनके चेहरे
नहीं गा रहे वे
कोई नर्सरी-राइम
नहीं देख रहे वे स्वप्न
देव-दूतों या परियों के
जब उन्हें खेलना था
साथियों संग
जब उन्हें हँसना था
तितलियों संग
जब उन्हें घूमना था
तारों संग
वे काम पर जा रहे हैं
पूरा खिलने से पहले ही
झड़ गई हैं
उनके फूलों की
कोमल पंखुड़ियाँ
पूर्णिमा से पहले ही
हो गई है अमावस
उनके चाँद की
वसंत से पहले ही
आ गया है पतझर
उनके ऋतु -चक्र में
हर रोज़
सुबह के मटमैले उजाले में
यही होता है
हमारा अभागा देश
इसी तरह
अपना भविष्य खोता है

                      ————०————

5. नट बच्चा

शहर के गंदे नाले के
एक किनारे
डेरा लगाया है नटों ने
उन्हीं नटों में
एक बच्चा भी है
उसकी बाज़ीगरी ही उसकी
बाल -सुलभ लीलाएँ हैं
ऊँची रस्सियों पर
सँभल-सँभल कर चलना ही
उसके बचपन का खेल है
सुदूर ग्रह-नक्षत्रों जैसे
दूर हैं हम-आप उससे
उसके दुखों से
उसकी चिंताओं से
सारी पंच-वर्षीय योजनाएँ
उससे बहुत दूर हैं
बहुत दूर है
दिल्ली उससे

                         ————०————-

Sushant-supriy-poemsपरिचय -:

सुशांत सुप्रिय

कवि , कथाकार व अनुवादक

शिक्षा: अमृतसर ( पंजाब ) व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ : हत्यारे , हे राम, दलदल ( कथा-संग्रह ) ।
एक बूँद यह भी , इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं (काव्य-संग्रह)।
सम्मान :  # भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा

रचनाएँ पुरस्कृत ।
# कमलेश्वर – कथाबिंब कथा प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम

पुरस्कार ।
अन्य प्राप्तियाँ : # कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी , उड़िया ,
असमिया , मराठी , कन्नड़ व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित
व प्रकाशित ।
#  कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में
शामिल ।
#  कविताएँ पुणे वि.वि. के बी.ए. ( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में
शामिल ।
#  कहानियों पर आगरा वि.वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. व गुरु नानक देव
वि.वि.,अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधकर्ताओं द्वारा शोध-कार्य ।
#  अनुवाद की पुस्तक ” विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ” प्रकाशनाधीन ।
# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ” इन गाँधीज़ कंट्री ” प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ” द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ” प्रकाशनाधीन ।
# सम्पर्क : मो – 8512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com
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  आत्म-कथ्य
मुझमें कविता है , इसलिए मैं हूँ : सुशांत सुप्रिय
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कविता मेरा आॅक्सीजन है । कविता मेरे रक्त में है , मज्जा में है । यह मेरी धमनियों में बहती है । यह मेरी हर साँस में समायी है । यह मेरे जीवन को अर्थ देती है । यह मेरी आत्मा को ख़ुशी देती है । मुझमें कविता है , इसलिए मैं हूँ । मेरे लिए लेखन एक तड़प है, धुन है , जुनून है । कविता लिखना मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर ख़ुद को टूटने, ढहने , बिखरने से बचाना है । लेकिन सामाजिक स्तर पर मेरे लिए कविता लिखना अपने समय के अँधेरों से जूझने का माध्यम है , हथियार है , मशाल है ताकि मैं प्रकाश की ओर जाने का कोई मार्ग ढूँढ़ सकूँ । मेरा मानना है कि श्रेष्ठ कविता शिल्प के आगे संवेदना के धरातल पर भी खरी उतरनी चाहिए । उसे मानवता का पक्षधर होना चाहिए । उसमें व्यंग्य के पुट के साथ करुणा और प्रेम भी होना चाहिए । वह सामाजिक यथार्थ से भी दीप्त होनी चाहिए । कवि जब लिखे तो लगे कि वह केवल अपनी बात नहीं कर रहा , सबकी बात कर रहा है । यह बहुत ज़रूरी है कि कवि के अंदर एक कभी न बुझने वाली आग हो जिससे वह काले दिनों में भी अपने हौसले और संकल्प की मशाल जलाए रखे ।उसके पास एक धड़कता हुआ ‘रिसेप्टिव’ दिल हो ।उसके पास एक ‘विजन’ हो, एक सुलझी हुई जीवन-दृष्टि हो । श्रेष्ठ कवि की कविता कभी अलाव होती है, कभी लौ होती
है , कभी अंगारा होती है…
( २०१५ में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह
” एक बूँद यह भी ” में से )

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