गब्बर इज़ बैक एण्ड ही इज मोर डेंजर

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Gabbar Is Back And He's More Danger– जावेद अनीस –  

शोले फिल्म के ओरिजिनल क्लाइमैक्स में ठाकुर द्वारा गब्बर को मारते हुए दिखाया गया था  जिसे बाद में सेंसर बोर्ड की दखल के बाद बदलना पड़ा,सेंसर बोर्ड नहीं चाहता था कि फिल्म में ठाकुर का किरदार कानून को अपने हाथ में ले। लगभग चालीस साल बाद आयी “गब्बर इज बेक” केक्लाइमैक्स में सरकारी कर्मचारियों की बेधड़क हत्यायें करने वाले फिल्म के “हीरो” को किसी शहीद की तरह फांसी की सजा पाते हुए दिखाया गया है,यही वह फर्क है जो हम 1975 और 2015 के बीच की अपनी फिल्मों में पाते हैं। तो क्या यह परिवर्तन सिर्फ फिल्मों के मामले में हुआ है और हमारे समाज, संस्कृतिऔर राजनीति के कोने इससे अछूते है? जरा ठहर कर विभिन्न क्षेत्रों केसितारों पर एक नज़र डाल लीजिये जवाब खुद बखुद मिल जायेगा,आज साहित्य के सबसे बड़े ब्रांड और सितारे चेतन भगत है, संगीत मेंहनी सिंह और मिक्का सिंह,  सिनेमा में सलमान खान,अक्षय कुमार, अध्यात्म में बाबा रामदेव,आशाराम,राजनीति में नरेंद्र मोदी,केजरीवाल,अमित शाह, ओवेसी ब्रदर्स हैं। इस लिस्ट को देख कर स्पष्ट है कि अब हमारे नायक बदल गये है, अब वे दूध केधुले नहीं हैं और ना ही वे मूल्यों की परवाह करते हैं, श्रेष्ठ  होने कापैमाना भी बदल चूका है।लीडरों, नायकों के साथ चलने की जगह उनके पीछे चलने की भेड़चाल की प्रवृति और ज्यादा हावी हो गयी है।

हम उदारीकरण के दौर में हैं जहाँ अपने आप को बाजार में बनाये रखने के वास्तेसब को ब्रांड बननेके लिए संघर्ष करना पड़ रहा है,अगर एक बार भी आप ब्रांड बन गये तो सक्सेस हैं, फिर  आप चाहे अन्दर से कितने भी खोखले और फर्जी ही क्यों ना हो और जो ब्रांड नहीं बन पाता है उसेहाशिये पर ही रहना है, फिर वह चाहे कितना भी प्रतिभाशाली क्यों ना हो, इस खेल का  दूसरा नियम यह है कि ब्रांड वही बनता है जो मार्किट के रिक्वायरमेंट के हिसाब से फिट बैठता है, तभी तो ठीक पार्लियामेन्ट के पास आत्महत्या कर लेने वाला एक किसान न्यूज़ इंडस्ट्री के लिएएक ब्रांड बन जाता है जबकि वर्षों से ग्रामीण भारत के अलग–अलग हिस्सों में आत्महत्या कर रहे हजारों किसानों की आत्महत्यायें का कोई न्यूज़ वैल्यू नहीं बन पाता है, इन ब्रांड्स को ही रोल माडल के रूप में गढ़ा जा रहा है, लोगों में इनकी लत डाली जा रही है जो बाद में  करोड़ों की संख्या में फैन्स बनते हैं, फैन्स होने की पहली शर्त अंधभक्त होना है।हमारे दौर के “रोल माडल” तानाशाह भी होते जिनका करोड़ों फैन्स आँख और कान बंद करके फालो करते है।सलमान खान से जुडी हालिया घटना इसका ताजा मिसाल है।

1975 में आई फिल्म शोले का खलनायक गब्बर सिंह इस फिल्म का ही नहीं हिंदी सिनेमा का भी एक ब्रांड है, अब 2015में फिल्मी परदे पर गब्बर एक बार फिर वापस आ गया है, इस बार वह विलेन नहीं हीरो है, हालांकि उसके कारनामे एकविलेन की ही तरह हैं लेकिन उसके विलेननुमा करतूतों का ना केवल महिमामंडित किया है बल्कि ‘नाम विलेन का, काम हीरो का’ जैसेपंच लाइन के साथ उसे स्थापित करने की कोशिश भी की गयी है।शोले फिल्म में गब्बर अगर अपने करतूतोंपर शर्मिंदा नहीं भी था तो भी कम से कम उसने नायक बनने की कोशिश नहीं की थी। लेकिन गब्बर इज बैक का गब्बर एलान करता है “ना मैंसरकारी हूँ ना गैर कानूनी, ना मैं कोई नेता हूँ और ना ही कोई टेररिस्ट, काम से हीरो नाम से विलेनहूँ, मैं गब्बर हूँ”।

गब्बर इज बैक 2002 की तमिल फिल्म ‘रमन्ना’ का रीमेक है। इसका निर्देशन मशहूर दक्षिण भारतीय निर्देशक क्रिश और निर्माण संजय लीला भंसाली ने किया है, फिल्म का मुख्य किरदार कॉलेज प्रोफेसर है जो दिन में पढ़ाने का काम करता है और रात में एक शहरी गुरिल्ला समूह का नेता बन जाता है, उसका भ्रष्टाचार से निपटने का सीधा तरीका है, पहले वह टारगेट  विभाग के दस सबसे ज्यादा भ्रष्ट अधिकारियों का लिस्ट बनाकर उनका अपहरण करवाता है फिर उनमें से टॉप करप्ट को मार कर चौराहे पर लटका देता है और बाकि लोगों को फ्री कर देता है, इससे उस विभाग के सभी अधिकारियों में गब्बर का खौफ पैदा हो जाता जिसके डर से वे रिश्वत लेना बंद कर देते हैं, अपने इस काम से वह एक तरह से जनता खासकर युवाओं के  बीच हीरो बन जाता है, उसके गुरिल्ला समूह के सदस्य उसके स्टूडेंट्स ही होते हैं। खुद का एंटी करप्शन फोर्स बनाने से पहले अजय (अक्षय कुमार) अपनी गर्भवती पत्नी के साथ आम जिंदगी जी रहा होता है, लेकिन जिस फ्लैट में वह रहा होता है वह खराब जमीन पर बने होने के कारण अचानक भरभरा कर ढह जाता है, इस हादसे में वह अपनी पत्नी को खो देता है, बिल्डर के खिलाफ सबूत होने के बावजूद उसे इन्साफ नहीं मिलता है, अंत में वह इस बिल्डर से बड़ा ब्रांड बनने और उसको मारने में कामयाब हो जाता है, गब्बर को पकड़ने के लिए लगायी गयी पुलिस बेकवूफ़ है और वह ज्यादातर एक कांस्टेबल का मजाक उड़ाने का काम करती है जो उन सबके बीच ज्यादा काबिल और स्मार्ट है क्योंकि उसके पास गब्बर को पकड़ने के लिए ज्यादा अच्छे आईडियाज हैं। फिल्म के आखिरी हिस्से मेंजब गब्बर को गिरफ्तार कर जेल ले जाया जाता है तो लाखों के संख्या में गब्बर के प्रशंसक पुलिस वैन को चारों ओर से घेर लेते हैं और उसे बेगुनाह घोषित करते हुएरिहा करने की मांग करते हैं। यह भीड़ गब्बर की इतनी बड़ी अंधभक्त होती है कि पुलिस ऑफिसर को गब्बर से रिक्वेस्ट करना पड़ता है कि अपने प्रशंसकों को रास्ता छोड़ने के लिए कहे। इसके बाद पुलिस वैन की छत पर चढ़ने के लिए वह अपनी हथेलियों को आगे करता है ताकि गब्बर ऊपर चढ़ सके। इस सीन के जरिये दिखाया गया है कि कैसे व्यवस्था के लोग भी गब्बर के विचारों से सहमत है,लेकिन कानून से बंधे होने के कारण वह मजबूर है।फिल्म का कोई भी किरदार ऐसा नहीं है जो गब्बर और उसके तौर तरीकों को गलत बताता हो।क्लाइमैक्स में कई हत्याओं के दोषी फिल्म के “हीरो को अपने उन्मादी समर्थकों को संबोधित करने का मौका भी दिया जाता है जिसमें वह कहता है कि “मैंने जो किया वह सही है लेकिन जो रास्ता चुना वह गलत है” यहाँ वह अपनी गलती मानते हुए भीअपराधियों को मार कर सड़क पर लटका देने के कृत्य को ग्लेरोफाईकरता है। हालांकि उसे फांसी की सजा मिलते हुए दिखाया गया है लेकिन इसमें भी उसे बाकायदा भगत सिंह बनाने की कोशिश की गयी है।फिल्म में केवल एक प्राइवेट संस्था को टारगेट किया गया है और फिल्म का यही हिस्सा वास्तविक और प्रभावी बन पड़ा है, इसमें प्राइवेट अस्पतालों की असंवेदनशीलता और उनका किसी भी कीमत पर मरीज और उसके परिवार के खून का आखरी कतरा तक चूस लेने की लालच को दिखाया गया है।लेकिन अंत में यह एक खतरनाक विचार पर आधारित फिल्म है जो भीड़ तंत्र के न्याय और तानाशाही की वकालत करती है इसमें हमारे समय के कुछ गंभीर मुद्दों को बहुत ही वाहियात तरीके से हल करते हुए दिखाया गया है।कोई कितना बड़ा गुनाहगार क्यों ना हो उसको इस तरह से मार देना गैर कानूनी और बीमार मानसिकता है, इसी तरह से लोगों में खौफ पैदा करने के लिए हत्यायें करना भीआतंकवाद की श्रेणी में आता है।

गब्बर इज बैक कमाई के मामले में 2015 की सबसे बड़ी ओपनर फिल्म बन कर उभरी है।जो फिल्म के पॉपुलरटी और इसके व्यापक स्वीकारता को दर्शाता है। तो क्या इसका मतलब है कि इसमें दर्शाये गए विचारों की हमारे समाज में व्यापक रूप सेस्वीकारता है? शायद ऐसा ही है, जरा याद कीजिये नागालैंड के दीमापुर की घटनाजहाँ हजारों की संख्या में उन्मादी भीड़ पहले दीमापुर केंद्रीय जेल को तोड़कर रेप के आरोपी को बाहर निकालती है फिर उसे नंग धडंग करके,पीट-पीट कर अधमरा कर देती है और अंत में उसे चौराहे पर फांसी पर लटका दिया जाता है।इस दौरान मध्युगीन मानसिकता और तौर-तरीकों को मात देती इस भीड़ के आधुनिक मोबाइल / स्मार्ट फोन के कैमरे, जब इस हिला देने वाले कृत्य को कैद करने के लिए चमचमाते है तो एक झटके में हमारे समाज का अँधेरा पक्ष सामने आ जाता है।

”पचास पचास कोस दूर तक जब कोई रिश्वत लेता है तो सब कहते हैं मत ले वरना गब्बर आ जाएगा” जैसे डायलाग सुनकर अरविन्द केजरीवाल की याद आ जाती है, गब्बर इज बेक और अरविन्द केजरीवाल दोनों का मुख्य थीमभ्रष्टाचार है।उन्होंने पिछलेचंदसालों में खुद को भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध सबसे बड़े ब्रांड के रूप में स्थापित किया है, वे घोषणा कर रहे हैं कि “ईमानदारी ही मेरी विचारधारा है” यह नायक भी चमत्कारी है जो अपने तीन साल के पोलिटिकल कैरियर में चूका हुआ मान लिए जाने के बावजूददिल्ली में सत्तर में से सरसठ सीटें जीत कर शानदार वापसी करता है, हर नायक अपने जलवे की कीमत वसूलता है। केजरीवाल भी अपने अधिनायकवादी रूप को सामने लाकर यही कर रहे हैं, फिल्म के एक दृश्य में टेक्सी वाला कहता है कि गब्बर के डर से रिश्वतखोरी कम हो गयी है जिसका उसे बहुत फायदा मिला हैजो दिल्ली के ऑटो वालों की कहानियों से मेल खाती हैं।

आज भारतीय राजनीति में मोदी और केजरीवाल सबसे बड़े ब्रांड है और अब राहुल एक ब्रांड बनने की कोशिश शुरू कर रहे हैं।“ब्रांड मोदी” को बहुत बारीकी से गढ़ा गया है, इसमें विकास औरहिन्दुतत्व का परफेक्ट मिश्रण है, मोदी और केजरीवाल कोउदारीकरण की पैदाइश, विचारधारा विहीन मध्यवर्ग और नौजवान पीढ़ी का जबरदस्त समर्थन प्राप्त है, यह भ्रष्ट, नाकाबिल और पुराने तौर–तरीकों के हिसाब से सियासत करने वाले राजनीतिज्ञों से उकता चूका है। फिल्म का एक डायलाग है “हमारे ज्यदातर नेता और मंत्री जाहिल और अपराधी हैं”,ध्यान रहे गब्बर इज बैक सिंगल स्क्रीन नहींमल्टीप्लेक्सको ध्यान में रखकर बनायीं गयी है।इसका  आडियंस मध्य, उच्च मध्यवर्ग, कालेज स्टूडेंट्स हैं, जिसका इस हद तक गैर-राजनीतिकरण किया जा रहा है जिससे वह महज  फैन और अंधभक्त और कंज्यूमर ही बना रहे ।

अभी तक हमारी मसाला फिल्मों के हीरो आम तौर पर छोटेऔर स्थानीय क्रिमनल्स को सबक सिखाने या उनसे निजात पाने के लिए कानून हाथ लेते थे,लेकिन इस फिल्म में गब्बर पूरे संस्थान को चैलेंज करता है और उसके समान्तर खुद को अराजकवादी संस्थान रूप खड़ा करने का प्रयास करता है, यह हमारे मध्य और उच्चमध्यवर्ग के उसी सोच का ही प्रकटीकरणहैजो समस्याओं को हल करने के लिए “सब को लाइन में खड़ा करके गोली मार देना चाहिए” जैसे ब्रहम सूत्र की वकालत करता है।अच्छे सिनेमा का मकसद समाज की स्याह हिस्से को सामने लाकर उसे आईना दिखाना है गब्बर इस बेक अच्छा सिनेमा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यह खुद उसी स्याही से रंगी हुई है।

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anis javed,javed anisपरिचय – :

जावेद अनीस

लेखक ,रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता

लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़  कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द  के मुद्दों पर काम कर रहे हैं,  विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !

जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास  मुद्दों पर  विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और  वेबसाइट में  स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !

Contact – 9424401459 –   anisjaved@gmail.com
C-16, Minal Enclave , Gulmohar clony 3,E-8, Arera Colony Bhopal Madhya Pradesh – 462039

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