सतीश सक्सेना के पाँच गीत

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सतीश सक्सेना के पाँच गीत

1-
नमन करूं ,
गुरु घंटालों के  !
पाँव छुऊँ ,
भूतनियों  के !
राजनीति के मक्कारों ने,धन से खेली  होली है !
आओ छींटें मारे रंग के ,  बुरा न मानो होली है !
गुरु है, गुड से
चेला शक्कर
गुरु के गुरु
पटाये जाकर  !
गुरुभाई से राज पूंछकर , गुरु की गैया,दुह ली है !
जहाँ मिला मौका देवर ने जम के खेली होली है !
घूंघट हटा के
पैग बनाती !
हिंदी खुश हो
नाम कमाती !
पंत मैथिली सम्मुख इसके, अक्सर भरते पानी है !
व्हिस्की और कबाब ने कैसे,हंसके खेली होली है !
जितना  चाहे
कूड़ा लिख दो !
कुछ ना आये ,
कविता लिख दो
एक पंक्ति में,दो शब्दों की, माला लगती सोणी है !
कवि बैठे हैं माथा पकडे , कविता कैसी होली  है !
कापी कर ले ,
जुगत भिडाले !
लेखक बनकर
नाम कमा  ले !
हिंदी में हाइकू लिखमारा,शिकी की गागर फोड़ी है !
गीत छंद की बात भी अब तो,बड़ी पुरानी होली है !
अधर्म करके
धर्म सिखाते
धन पाने के
कर्म सिखाते
नज़र बचाके,कैसे उसने,दूध में गोली, घोली है !
खद्दर पहन के नेताओं ने, देश में खेली होली है !
ब्लू लेवल,
की बोतल आयी !
नई कार ,
बीबी को भायी !
बाबू जी का टूटा चश्मा,माँ  की चप्पल आनी है  !
समय ने, बूढ़े आंसू देखे , छैल छबीली होली है !

2-

तुम मुझे क्या दोगे
समय प्रदूषित लेकर आये , क्या दोगे ?
कालचक्र विकराल,तुम मुझे क्या दोगे ?
दैत्य , शेर , सम्राट
ऐंठ कर , चले गए !
शक्तिपुरुष बलवान
गर्व कर  चले गए !
मैं हूँ प्रकृति प्रवाह, तुम मुझे क्या दोगे ?
हँसता काल विशाल,तुम मुझे क्या दोगे ?
मैं था ललित प्रवाह
स्वच्छ जल गंगे का
भागीरथ के समय
बही, शिव गंगे का !
किया प्रदूषित स्वयं,वायु, जल, वृक्षों को ?
कालिदास संतान ! तुम मुझे  क्या  दोगे ?
अपनी तुच्छ ताकतों
का अभिमान लिए !
प्रकृति साधनों का
समग्र अपमान किये
करते खुद विध्वंस, प्रकृति संसाधन के !
धूर्त मानसिक ज्ञान,तुम मुझे क्या दोगे !
विस्तृत बुरे प्रयोग
ज्ञान संसाधन  के  !
शिथिल मानवी अंग
बिना उपयोगों  के !
खंडित वातावरण, प्रभामण्डल  बिखरा ,
दुखद संक्रमण काल,तुम मुझे क्या दोगे !
यन्त्रमानवी बुद्धि ,
नष्ट कर क्षमता को,
कर देगी बर्वाद ,
मानवी प्रभुता को !
कृत्रिम मानव ज्ञान, धुंध मानवता पर !
अंधकार विकराल,तुम मुझे क्या दोगे !

3-

हिन्दु मुसलमानों से , अंशदान चाहिए
समस्त राजनीति, स्व
समृद्धि हेतु बिक चुकी
समस्त बुद्धि देश की
दिवालिया सी हो चुकी
हिन्दु  मुसलमानों से , अंशदान  चाहिए !
शुद्ध, सत्यनिष्ठ, मुक्त  आसमान चाहिए !
चाटुकार भांड यहाँ
राष्ट्र भक्त बन गए !
देश के दलाल सब
खैरख्वाह बन गए !
चोर बेईमान सब, ध्वजा उठा के चल पड़े !
तालिबानी  देश में , कबीर  ज्ञान चाहिए !
अकर्मण्य बस्तियां
शराब के प्रभाव में !
खनखनातीं थैलियां
चुनाव के प्रवाह में !
बस्तियों के जोश में,उमंग नयी आ गयी !
मानसिक अपंग देश, बोध ज्ञान चाहिए !
निस्सहाय, दीन और
निरक्षरों में रंज क्या ?
राजकाज कौन करे ,
इससे सरोकार क्या ?
तालियां बजायेंगे, जहाँपनाह जो कहें !
सौ करोड़ भीड़ को,रथी महान चाहिए !
धूर्तमान के लिए
अभूतपूर्व साथ है !
धन अभाव के लिए
महा कुबेर साथ हैं !
महान देश के लिए,महारथी तो मिल गया !
जाहिलों को, देव भी , दैदीप्यमान चाहिए !
यही समय दुरुस्त है
निरक्षरों को लूट लें !
विदेशियों से छीन के
ये राज्यभक्त लूट लें !
दाढ़ियों को मंत्रमुग्ध , मूर्ख तंत्र, सुन रहा !
समग्र मूर्ख शक्ति को, विचारवान चाहिए !

चेतना कहाँ से आये
जातियों के, देश में
बुरी तरह से बंट  चुके
विभाजितों के देश में
प्यार की जगह जमीं पै नफरतों को  पालते !
गधों के इस समाज में , विवेकवान चाहिए !
धर्मोन्मत्त देश में ,
असभ्य एक चाहिए
असाधुओं से न डरे
अशिष्ट एक चाहिए
सड़ी गली परम्परा में ,अग्निदान चाहिए !
अपाहिजों के देश में, कोचवान चाहिये !

4-

तुम्हें देखकर बस मचल ही तो जाते
मुखौटे  लगाकर , बदल  ही तो जाते,
बिना देखे हमको निकल ही तो जाते !
विदाई से पहले , खबर तक नहीं की
तुम्हें देखकर, बस मचल ही तो जाते !

बुलावा जो आता तो आहुति भी देते
हवन में भले हाथ, जल ही तो जाते !
अगर विष न होता तो नारी को दुमुहें
न जाने कभी का,निगल ही तो जाते !
अगर हम तुम्हें , बिन मुखौटे के पाते !
असल देखकर बस दहल ही तो जाते

5-

मानवता खतरे में पाकर, चिंतित रहते मानव गीत
हम तो केवल हंसना चाहें
सबको ही, अपनाना चाहें
मुट्ठी भर जीवन  पाए  हैं
हंसकर इसे बिताना चाहें
खंड खंड संसार बंटा है , सबके अपने अपने गीत ।
देश नियम,निषेध बंधन में,क्यों बांधा जाए संगीत ।
नदियाँ,झीलें,जंगल,पर्वत
हमने लड़कर बाँट लिए।
पैर जहाँ पड़ गए हमारे ,
टुकड़े,टुकड़े बाँट लिए।
मिलके साथ न रहना जाने,गा न सकें,सामूहिक गीत ।
अगर बस चले तो हम बांटे,चांदनी रातें, मंजुल गीत ।
कितना सुंदर सपना होता
पूरा विश्व  हमारा  होता ।
मंदिर मस्जिद प्यारे होते
सारे  धर्म , हमारे  होते ।
कैसे बंटे,मनोहर झरने,नदियाँ,पर्वत,अम्बर गीत ।
हम तो सारी धरती चाहें , स्तुति करते मेरे गीत ।
काश हमारे ही जीवन में
पूरा विश्व , एक हो जाए ।
इक दूजे के साथ  बैठकर,
बिना लड़े,भोजन कर पायें ।
विश्वबन्धु,भावना जगाने, घर से निकले मेरे गीत ।
एक दिवस जग अपना होगा,सपना देखें मेरे गीत ।
जहाँ दिल करे,वहां रहेंगे
जहाँ स्वाद हो,वो खायेंगे ।
काले,पीले,गोरे मिलकर
साथ जियेंगे, साथ मरेंगे ।
तोड़ के दीवारें देशों की, सब मिल गायें  मानव गीत ।
मन से हम आवाहन करते, विश्व बंधु बन, गायें गीत ।
श्रेष्ठ योनि में, मानव जन्में
भाषा कैसे समझ न पाए ।
मूक जानवर प्रेम समझते
हम कैसे पहचान न पाए ।
अंतःकरण समझ औरों का,सबसे करनी होगी प्रीत ।
माँ से जन्में,धरा ने पाला, विश्वनिवासी बनते गीत ?
सारी शक्ति लगा देते हैं
अपनी सीमा की रक्षा में,
सारे साधन, झोंक रहे हैं
इक दूजे को,धमकाने में,
अविश्वास को दूर भगाने,सब मिल गायें मानव गीत ।
मानव कितने गिरे विश्व में,आपस में रहते भयभीत ।
जानवरों के सारे अवगुण
हम सबके अन्दर बसते हैं ।
सभ्य और विकसित लोगों
में,शोषण के कीड़े बसते हैं ।
मानस जब तक बदल न पाए , कैसे कहते, उन्नत गीत ।
ताकतवर मानव के भय की,खुल कर हँसी उड़ायें गीत ।
मानव में भारी  असुरक्षा
संवेदन मन,  क्षीण  करे ।
भौतिक सुख,चिंता,कुंठाएं
मानवता  का  पतन करें ।
रक्षित कर,भंगुर जीवन को, ठंडी साँसें  लेते  गीत ।
खाई शोषित और शोषक में, बढती देखें मेरे गीत ।
अगर प्रेम,ज़ज्बात हटा दें
कुछ न बचेगा  मानव में ।
बिना सहानुभूति जीवन में
क्या रह जाए, मानव में ।
जानवरों सी मनोवृत्ति पा,क्या उन्नति कर पायें गीत ।
मानवता खतरे में  पाकर, चिंतित रहते मानव गीत ।
भेदभाव की, बलि चढ़ जाए
सारे राष्ट्र  साथ मिल  जाएँ,
तन मन धन सब बांटे अपना
बच्चों से निश्छल बन जाएँ ,
बेहिसाब रक्षा धन, बाँटें, दुखियारों में, बन के मीत ।
लड़ते विश्व में,रंग  खिलेंगे ,पाकर सुंदर,राहत गीत ।
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satish saxena,satish saxena poetपरिचय :
सतीश सक्सेना
कवि , लेखक व् गीतकार 

 

रिटायर्ड इंजीनियर भारत सरकार से

निवास : A 346 Sector 19, Noida

संपर्क :  9811076451

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