खुशियों का पैमाना बनती जा रही शराब

0
26


– डाँ नीलम महेंद्र –

वैसे तो हमारे देश में अनेक समस्याएँ हैं जैसे गरीबी बेरोजगारी भ्रष्टाचार आदि लेकिन एक समस्या जो हमारे समाज को दीमक की तरह खाए जा रही है,वो है शराब।
दरअसल आज इसने हमारे समाज में जाति, उम्र, लिंग, स्टेटस, अमीर, गरीब,हर प्रकार के बन्धनों को तोड़ कर अपना एक ख़ास मुकाम बना लिया है।
समाज का हर वर्ग आज इसकी आगोश में है।
अब यह केवल गम भुलाने का जरिया नहीं है,बल्कि खुशियों को जाहिर करने का पैमाना भी बन गया है।
आनंद के क्षण, दोस्तों का साथ, किसी भी प्रकार का सेलिब्रोशन,कोई भी पार्टी, जन्मदिन हो या त्यौहार ये सब पहले बड़ों के आशीष और ईश्वर को धन्यवाद देकर मनाए जाते थे लेकिन आज शराब के बिना सब अधूरे हैं।
हमारे समाज की बदलती मानसिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शराब ही इस पृथ्वी की एकमात्र चीज़ है जिसके लिए इसे न पीने वाले से दुनिया भर के सवाल पूछे जाते हैं और उस बेचारे को इसे न पीने के अनेकों तर्क देने पड़ते हैं।
कारण ,विज्ञापनों के मायाजाल और उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे जीवन की परिभाषाएँ ही बदल दी हैं।
कुछ मीठा हो जाए, ठंडा मतलब कोका कोला, खूब जमेगा रंग जब मिलेंगे तीन यार,जैसी बातें जब वो लोग कहते हैं जिन्हें आज का युवा अपना आइकान मानता हैं तो उसका असर हमारे बच्चों पर कितना गहरा पड़ता है यह इन उत्पादों की वार्षिक सेल रिपोर्ट बता देती है।
और इस सबका हमारी संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ रहा है वो आज के भौतिवादी युग में जीवन जीने के इस आधुनिक मंत्र से लगाया जा सकता है कि, “जिंदगी न मिलेगी दोबारा” इसलिए  “जी भर के जी ले मेरे यारा”।
क्या हम लोग समझ पा रहे हैं कि इस नए मंत्र से इन कम्पनियों का बढ़ता मुनाफ़ा हमारे समाज के घटते स्वास्थ्य और चरित्र के गिरते स्तर का द्योतक बनता जा रहा है?
विभिन्न अध्ययनों से यह बात साबित हो चुकी है कि  हमारे आस पास बढ़ते बलात्कार और अपराध का एक महत्वपूर्ण कारण शराब है।
कितनी ही महिलाओं और बच्चों को शराब का नशा वो जख्म दे गया जिनके निशान उनके शरीर पर से समय ने भले ही मिटा दिए हों लेकिन रूह तो आज भी घायल है। (यह सिद्ध हो चुका है कि घरेलू हिंसा में शराब एक अहम कारण है)।
कितने बच्चे ऐसे हैं जिनका पिता के साथ प्यार दुलार का उनका हक शराब ने ऐसा छीना कि वे अपने बचपन की यादों को भुला देना चाहते हैं।
तो फिर इतना सब होते हुए भी ऐसा क्यों है कि हम इससे मुक्त होने के बजाय इसमें डूबते ही जा रहे हैं?
ऐसा नहीं है कि सरकारें इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाती परेशानी यह है कि अपेक्षित नतीजे नहीं निकलते।
विश्व की अगर बात की जाए तो सबसे पहले संयुक्त   राज्य अमेरिका ने 1920 में अपने संविधान में 18 वाँ संशोधन करके मद्य पेय के निर्माण एवं बिक्री पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगा कर इसके सेवन पर रोक लगाने के प्रयास किए थे जिसके परिणामस्वरूप लोग अवैध स्रोतों से शराब खरीदने लगे और वहाँ पर शराब के अवैध निर्माताओं एवं विक्रेताओं की समस्या उत्पन्न हो गई। अन्ततः 1933 में संविधान संशोधन को ही निरस्त कर दिया गया।
यूरोप के अन्य देशों में भी 20 वीं सदी के मध्य शराब निषेध का दौर आया था जिसे लोकप्रिय समर्थन नहीं मिलने की स्थिति में रद्द करना पड़ा। कुछ मुस्लिम देश जैसे साउदी अरब और पाकिस्तान में आज भी इसे बनाने या बेचने पर प्रतिबंध है क्योंकि इस्लाम में इसकी मनाही है।
भारत की अगर बात करें तो भले ही गुजरात और बिहार में शराबबंदी लागू हो ( यह व्यवहारिक रूप से कितनी सफल है इसकी चर्चा बाद में) लेकिन आन्ध्रप्रदेश,तमिलनाडु, मिज़ोरम और हरियाणा में यह नाकाम हो चुकी है।
केरल सरकार ने भी 2014 में राज्य में शराब पर प्रतिबंध की घोषणा की थी जिसके खिलाफ  बार एवं होटल मालिक सुप्रीम कोर्ट गए  लेकिन कोर्ट ने सरकार के फैसले को बहाल रखकर इस प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त राज्य में पर्यटन को देखते हुए केवल पाँच सितारा होटलों में इसकी अनुमति प्रदान की।
तो सरकार भले ही शराब बिक्री से मिलने वाले बड़े राजस्व का लालच छोड़ कर इस पर प्रतिबंध लगा दे लेकिन उसे इस मुद्दे पर जनसमर्थन नहीं मिल पाता। बल्कि हरियाणा जैसे राज्य में जहाँ महिलाओं के दबाव में सरकार इस प्रकार का कदम उठाती है, उस राज्य के मुख्यमंत्री को मात्र दो साल में अपने निर्णय को वापस लेना पड़ता है। कारण कि जो महिलाएं पहले इस बात से परेशान थीं कि शराब उनका घर बरबाद कर रही है अब इस मुश्किल में थीं कि घर के पुरुष अब शराब की तलाश में सीमा पार जाने लगे थे। जो पहले रोज कम से कम रात में घर तो आते थे अब दो तीन दिन तक गायब रहने लगे थे। इसके अलावा दूसरे राज्य से चोरी छिपे शराब लाकर तस्करी के आरोप में पुलिस के हत्थे चढ़ जाते थे तो इन्हें छुड़ाने के लिए औरतों को थाने के चक्कर काटने पड़ते थे सो अलग।
जिन राज्यों में शराबबंदी लागू है वहाँ की व्यहवहारिक सच्चाई सभी जानते हैं। इन राज्यों में शराब से मिलने वाला राजस्व सरकारी खजाने में न जाकर प्रइवेट तिजोरियों में जाने लगा है और जहरीली शराब से होने वाली मौतों की समस्या अलग से उत्पन्न हो जाती है।
इसलिए मुद्दे की बात तो यह है कि इतिहास गवाह है, कोई भी देश कानून के द्वारा इस समस्या से नहीं लड़ सकता।
चूंकि यह नैतिकता से जुड़ी सामाजिक समस्या है तो इसका हल समाज की नैतिक जागरूकता से ही निकलेगा। और समाज में नैतिकता का उदय एकाएक संभव नहीं है, किन्तु इसका विकास अवश्य किया जा सकता है। नैतिकता से परिपूर्ण समाज ही इसका स्थायी समाधान है कानूनी बाध्यता नहीं।

___________________

परिचय -:

डाँ नीलम महेंद्र

लेखिका व्  सामाजिक चिन्तिका

 राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय समाचार पत्रों तथा औनलाइन पोर्टल पर लेखों का प्रकाशन फेसबुक पर ” यूँ ही दिल से ” नामक पेज व इसी नाम का ब्लॉग, जागरण ब्लॉग द्वारा दो बार बेस्ट ब्लॉगर का अवार्ड

 संपर्क – : drneelammahendra@hotmail.com & drneelammahendra@gmail.com

 Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here