डॉ राजीव राज की कविताएँ

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  कविताएँ

1 सब जले

आचार जले सुविचार जले।
मानवी लोक व्यवहार जले।
हर चौखट पर लपटंे लिपटीं,
अवतारों के दरबार जले।
परिवर्तन की तोड़ खुमारी जाग बाबरे जाग।
आग लगी है आग लगी है आग लगी है आग।।

घर की तुलसी को तोड, विदेशी नागफनी को रोपा है।
सत्ता लोलुप हो रहे भरत, मिल रहा राम को धोखा है।
मर्यादा घोल वारूणी में, नथ लूटे जनक जानकी की।
रिश्तों की रेशम तार-तार, कर रहा काम का झौंका है।

सम्बन्ध जले अनुबन्ध जले,
शब्दों के सुरभित छंद जले।
इस व्यर्थ अर्थ की ज्वाला में,
भावना सुमन मकरंद जले।
झुलसी मन वीणा मानस के हुए बेसुरे राग।
आग लगी है आग लगी है आग लगी है आग।।

यह कैसा लोकतंत्र जिसमें कि प्रदूषित सारे तंत्र हुये।
आचरण बधिर हो गया मंत्र सब व्यर्थ सहारे यंत्र हुए।
दौड़ रहा है संग लहू के भ्रष्टाचार शिराआंे में।
खाकी, खादी अवसरवादी, सब सिक्को के संयत्र हुए।
ईमान जले सब मान जले,
नैतिकता के प्रतिमान जले।
मतलब की हिंसक होली में,
गांधीवादी अभियान जले।
जले वंश सब हंसों के चहुँ ओर दीखते काग।
आग लगी है आग लगी है आग लगी है आग।।

संस्कृति के दर्शन दूर दूरदर्शन से दूषित दृष्टि हुई,
आदर्श संकुचित हैं विदूषकों से अनुप्रेरित सृष्टि हुई।
अब नहीं फूटते स्वर अंकुर बंशी वाले की बंशी के,
भारतीय वाङमय पर पश्चिय के कोलाहल की वृष्टि हुयी।

ज्यांेनार जले, मल्हार जले,
भंवरों के सरस सितार जले।
वीणा के तारांे पर झंकृत,
भगवत्गीता के सार जले।
चौपाल तरसती, अब होली पर नहीं गूँजती फाग।
आग लगी है आग लगी है आग लगी है आग।।

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2 कह दूँ

अपना कहूँ कि सपना कह दूँ।
सपना कहँू , कल्पना कह दूँ।
खुशी कहँू ना तो खुशियों के
दर पर सजी अल्पना कह दूँ।
मोड़ जिदंगी का फिर द्वार तुम्हारे लाया है।
ऐसा लगता है यादों का मौसम आया है।।

सोया मधुवन सारा, गंध अकेली जाग रही।
अश्कों से धो-धोकर चाँद, सहेली जाग रही।
घात रात की सहता कहता व्यथा नहीं मन की,
दीपक इधर जल रहा उधर चमेली जाग रही।

पूरी कहँू , अधूरी कह दूँ।
जाती सही न दूरी कह दूँ।
सूनी माँग कभी आशा की,
हो न सकी सिंदूरी कह दूँ।
विरह वारूणी पीकर मौन मुखर हो आया है
ऐसा लगता है यादों का मौसम आया है।।

तुम्हीं हृदय की धड़कन जीवन का अहसास तुम्हीं।
भले गगन में दूर हृदय के सबसे पास तुम्हीं।
मन मंदिर में बजी चेतना की घंटी का स्वर।
जाकर वापस लौटी साँसों का विश्वास तुम्हीं।
चंदन कहँू कि वंदन कह दँू
या सुख का गठबन्धन कह दूूंँ
जीवन की आपा धापी में
कर न सका अभिनंदन कह दूूँ
आज समय ने स्वयं आरती थाल सजाया है।
ऐसा लगता है यादों का मौसम आया है।।

चंदा के मुख पर देती है थकन दिखायी सी।
लजा रहे हैं हंस, सुबह लगती शरमायी सी।
ओस, कली के मुख पर जैसे बूँद पसीने की,
भेद रात का खुलने के भय से घबरायी सी।

पायल कहूँ कि आँचल कह दूँ।
खुली विगत की साँकल कह दूूंँ।
कल न कहीं पा सका आज तक
मन, तुमको ही हाँ, कल कह दूूँ।
गीतों के पथ ने भी बस तुम तक पहुँचाया है।
ऐसा लगता है यादों का मौसम आया है।।

जो भी खोया-पाया, रोया-गाया बस तुमको।
दर्द गीत में भर-भर कर पहुँचाया बस तुमको।
जब नयनों का दीप बुझाकर सोयी निंदिया भी
कंगन की खन-खन-खन बना, जगाया बस तुमको।

साधन कहूँ ,साधना कह दँू।
पूजन कहूँ , अर्चना कह दूँ।
पीठ कहूँ जिसकी परिक्रमा
की या भक्ति भावना कह दूँ।
मन का पंछी उड़ जहाज को छोड़़ न पाया है।
ऐसा लगता है यादों का मौसम आया है।।]

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3  झूठ न बोलेंगे।

रिश्तों की माला मुरझायी।
लब पर खामोशी गहरायी।
शब्दों को लकवा मार गया,
तब आँख बेचारी भर आयी।
बूँद-बूँद दर गाँठ वेदना की अब खोलेंगे।
आँसू आईना होते हैं, झूठ न बोलंेगे।।

सपनों की इन सड़कों पर चलते चलते कितने।
छाले पैरों में पड़ गये कौन बतलायेगा।
स्वाभिमान को दफनाने पर ही सम्मान मिला,
प्रिय, यह दर्द उमर भर हमको बहुत सतायेगा।

सपनों की चकाचौंध भायी।
अपनों की गोदी ठुकरायी।
जब रात उमर की बीत गयी।
तब सच की सुबह निकल आयी।
पछतावे के जल में मन का मैला धोलेंगे।
आँसू आईना होते हैं, झूठ न बोलेंगे।।

सोने के मृग के पीछे वनवासी सा यौवन।
भटका है जिस भोली अभिलाषा के इंगन पर।
वह भी तो खुद लाँघ गयी देखो निज मर्यादा।
छल बल वश बंधक हो कर जा पहुँची हेम नगर।

जीवन बस बहता पानी है।
साँसंे गिनना बेमानी है।
औरों की कौन सुने सबकी
अपनी ही राम कहानी है।
जीवन का लेखा ले नदिया तट पर डोलंेगे।
आँसू आईना होते हैं, झूठ न बोलेंगे।।

अब हर ओर दिखाई देतीं धूल भरी राहें।
बुझती लौ जैसी कँप-कँपा रहीं मन की चाहें।
साँसें आशा का मृगछौना लेकर लेट गयीं।
काश! पाश में भरने को आयें उसकी बाहंे।

माथे पर हलकी थपकी दे।
निंदिया की मीठी झपकी दे।
मिट जाय हमेशा को थकान,
कर ऐसा जादू अबकी दे।
भोर नयी पाने की खातिर जी भर सो लेंगे।
आँसू आईना होते हैं, झूठ न बोलेंगे।।

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4 फूल मैं किस पर चढ़ाऊँ

अर्घ्य गंगाजल का चाहे देवता।
आँख के आँसू न कोई देखता।
अर्थपूरित हो गयी हैं अर्चनाएं।
अथ प्रदूषित हो गयीं हैं सर्जनाएं।
घंटियों में अब नहीं संगीत है।
मंदिरों ने भी बदल दी नीत है।
पीर अंतर में लिए,
जाऊँ कहाँ किसको सुनाऊँ।
वेदना के फूल मैं किस पर चढ़ाऊँ।।

दर्द अब केवल नहीं कश्मीर है।
भारती के अंग अंग में पीर है।
मुम्बई, गुजरात देखो रक्तरंजित।
और काशी घाट भी लगता प्रकम्पित।
बम से थर्रायी है जब-जब राजधानी,
अँजुरी भर ढूँढ़ता जल स्वाभिमानी।

आह माँ की भूल कैसे मैं खुशी के गीत गाऊँ।
राष्ट्र ऋण का बोध मैं कैसे भुलाऊँ।।
वेदना के फूल मैं किस पर चढ़ाऊँ।।

आह उठती है हृदय में हूक सी।
चल रही सीने पे है बन्दूक सी।
कल हृदय के अंश को दी थी विदाई,
हाथ की मंेहदी भी थी छुटने न पायी।
जालिमों की अर्थलिप्सा की तपन में।
जल के स्वाहा हो गयी बहिना अगन में।
श्रावणी की पूर्णिमा पर जा कहाँ राखी बंधाऊँ।
या कि यह सूनी कलाई काट आऊँ।।
वेदना के फूल मैं किस पर चढ़ाऊँ।।

भोर पर छायी निशा की कालिमा।
भूख ने बचपन की छीनी लालिमा।
काश! जो करते कलम की नोंक पैनी,
उन करों में है हथौड़ा और छैनी।
शीश पर अपने गरीबी ढो रहे हैं।
भोजनालय में पतीली धो रहे हैं।

जो खिलौना चाँद का माँगे, कहाँ वो कृष्ण पाऊँ।
रो रहा बचपन मैं कैसे मुस्कराऊँ।।
वेदना के फूल मैं किस पर चढ़ाऊँ।।

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5 जिम्मेदारी

जो अपने बाबुल के आँगन की किलकारी है।
राखी का सम्बल है, जीवन जननि हमारी है।
असुरक्षित अस्तित्व उसी का संरक्षित करना,
जिम्मेदारी है, समाज की जिम्मेदारी है।।

विहँस उठेगा हृदय सुमन, तितली सी डोलूँगी।
तुतलाते-तुतलाते मुख से बाबुल बोलूँगी।
मन अधीर होगा जब सूनी देख कलाई को,
तिलक भाल पर कर राखी बाँधूगी भाई को।
सबको सुख दूँगी, मुझ पर विश्वास जताओ तो
अभी अजन्मी हूँ , मुझको दुनियां में लाओ तो।

मुझे मारने को तत्पर क्यों मैया प्यारी है।।
जिम्मेदारी है, समाज की जिम्मेदारी है।।

मैं अल्हड़ अबोध थी जग ने जो दस्तूर कहा।
जिसको सौंपी गयी, हृदय से वह मंजूर कहा।
किन्तु वेदना की मुझ पर कैसी बरसात हुयी।
नियति क्रूर, सिन्दूर धुला, दिन मंे ही रात हुयी।
पथरायी आँखों से बहता खारी झरना है।
यौवन के वन में एकाकी विचरण करना है।।

पूछ-पूछ अपराध स्वयं का सबसे हारी है।
जिम्मेदारी है, समाज की जिम्मेदारी है।
हम कैसे मानव को ईश्वर की संतान कहें।
अब मनुष्य की खाल ओढ़कर के शैतान रहें।
कामुक नाखूनों से कोमल कली नोंचते हैं।
पाखण्डों के पट से रिसते घाव पोंछते हैं।
अरे पापियों ने संस्कृति का पृष्ठ किया काला।
खिलने के पहले कलियों को हाय मसल डाला।।

मानवता के शव पर धुनती शीश बेचारी है।
जिम्मेदारी है, समाज की जिम्मेदारी है।।

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3परिचय -:

डा0 राजीव राज

शिक्षा- :
एम0एस-सी0, पी0एच-डी0;रसायनद्ध, बी0एड0 ,एम0ए0;हिन्दी साहित्यद्ध ,एम0ए0;संस्कृत साहित्यद्ध , एम0ए0;भूगोलद्ध,साहित्य रत्न ;प्रयाग विश्वविद्यालयद्ध,

सम्मान – :
श्री के0एल0गर्ग सर्वश्रेष्ठ शिक्षक सम्मान-2014 ,मा0मुख्यमन्त्री उ0प्र0 शासन द्वारा प्रदत्तद्ध,  शिवाजी दर्पण साहित्य सम्मान ग्वालियर, म0प्र0 ,  ईश्वरीदेवी एवं वीरेन्द्र सिंह स्मृति सम्मान
मा0 लोक निर्माण मन्त्री उ0प्र0 शासन द्वारा प्रदत्तद्ध, श्री अग्रवाल सभा चैन्नई, श्री खेड़ापति हनुमान सेवासमिति, धार-म0प्र0,  सहित विभिन्न प्रदेशों में अनेकानेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मान

सम्पादन-  :
श्रीकृष्ण उद्घोष ;हिन्दी त्रैमासिक पत्रिकाद्ध, ज्योत्स्ना ;हिन्दी वार्षिक पत्रिकाद्ध, प्रकाशन- श्रीकृष्ण करमायण ;हिन्दी प्रबन्ध काव्यद्ध
रचनायें –  :
वेदना के फूल ;प्रकाशित काव्य संग्रहद्ध, अहसासों की डोली में ;प्रकाशनाधीन गजल संग्रहद्ध , सम्प्रति- शिक्षण एवं स्वतन्त्र लेखन

सम्पर्क-
239, प्रेम बिहार विजय नगर इटावा-206001 ,  मो0. 9412880006,9012780006 ,ईमेल –  dr_rajeevraj@yahoo.com

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