डॉ० प्रद्युम्न कुमार कुलश्रेष्ठ की कविताएँ

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डॉ० प्रद्युम्न कुमार कुलश्रेष्ठ की कविताएँ 

(1)

गीत नहीं मैं मन की पीर कहा करता हूँ
भर जाने से बहुत अधीर रहा करता हूँ
पके आम की डाली भी कुछ झुक जाती है
दे देती सब कहाँ कभी कुछ खुद खाती है
सुना यही था अब तक मैंने बड़े -बड़ों से
इन नए बड़ों के देख बहुत डरपा करता हूँ
नीले नभ में पंछी गीत सुनाते जाते
गा-गाकर सबको निज मीत बनाते जाते
करुण प्रार्थनाओं से कम्पित वर्तमान में
निरपेक्ष भाव से चिंतित सत्ता देखा करता हूँ
रोज सबेरा नई आस लेकर आता है
नव सूर्य प्रभा से मन भी खिल जाता है
किन्तु साँझ के बाद फिर वही घोर तिमिर है
लिए चांदनी हाथ सत्य खोजा करता हूँ
ढेर विचारों की स्याही का बढ़ता जाता
मूल प्रश्न जो था कभी उत्तर न पाता
कभी सुना क्या मेड खेत को खा जाती है
मैं तो ये ही देख भ्रमित हुआ करता हूँ
कैसी विपदा है कैसी मजबूरी है प्रभु
हाय आज रक्षक ही भक्षक होते जाते
जिनको दे अधिकार बिठाया सिर पे अपने
तेवर उनके देख विचलित हुआ करता हूँ
राजनीति अब नीति कमाने औ खाने की
सेवा इसका धर्म बात है समय पुराने की
राजनीति के वैभवशाली इस जंगल  में
लोगों को गिरगिट होते देखा करता हूँ
मनुजों का क्या व्याघ्र-सिंह से सीधा नाता
यदि यह सच नहीं क्यों मनुज मनुज को खाता
क्यों पागल कुछ लोग खेलते बंदूकों से
देख धरम का अधर्म बहुत सोचा करता हूँ
जिनसे आशा रही सभी वे ढोंगी निकले
लालच से भरपूर सुखों के भोगी निकले
चमक खा गई पैसे की सन्तों-पीरों को
संतों के नव-संतत्व से चकित रहा करता हूँ
गीत नहीं मैं मन की पीर कहा करता हूँ
भर जाने से बहुत अधीर रहा करता हूँ!!
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(2)

तेरे बगैर ये जिंदगी भी हमनवां नहीं
जो तू नहीं कोई यहाँ अब हमज़ुबां नहीं
किसे साथ लूँ मैं राह में तेरी तलाश को
सब देखते टेढ़ी नज़र कोई मेहरबां नहीं
वो दौर कैसे लाऊँ के अब देर हो चुकी
कोई दोस्त अब नहीं कोई राज़दाँ नहीं
रक्से-विसाल थम गए मेहफिल भी सो गईं
कारवां ही लुट गया कोई निगहबां नहीं
उल्फतो-इश्क़ो-रस्मो-वफ़ा हैं दीगर बात दो
पर है कहाँ वो गोशा-ए-दिल वो जहाँ नहीं
उनसे क्या कहें जो खुद मुड़ के चल दिए
उनके बिना होती यहाँ कोई दास्ताँ नहीं
उस वक़्त से ये ज़िंदगी बोझिल सी हो चली
कहने को ज़िंदा हूँ पर है मुझमें जां नहीं
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(3 )

हद-ऐ-बर्दाश्त हुई अब और न जिल्लत दे मौला
तेरी क़ायनात का ज़र्रा मैं थोड़ी राहत दे मौला
ढेर मसाइल मौजू हैं न और मुसीबत दे मौला
बेबस बेपंख परिंदा मैं जीने की ताक़त दे मौला
दिल बोझिल नाकाम हसरतों से और दर्द न दे मौला
थोडा-थोडा मैं भी जी लूँ इतनी रहमत दे मौला
ज़ोर-जबर की दुनिया में कमज़ोर बनाये क्यों मौला
सब तेरे ही तो बन्दे हैं थोड़ी बरक़त दे मौला
तेरे जहाँ की दस्तूरी जो आए रोता जाये मौला
टेढ़े-नुकीले रस्तों पे चलने की हिम्मत दे मौला
जैसा करता वैसा पाता गीता में कहा तूने मौला
भला किसी का कर पाऊँ इतनी क़ुव्वत दे मौला !!
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(4)

खिलखिलाती,
बल खाती
इठलाती,
कल-कल कर गाती नदी !
हँस कर जिन्दगी को
गुदगुदाती नदी !
जोश से भरी
सबको
जीवन देती जाती नदी !
मगर क्यों
अक्सर रहती
बहुत बेचैन
उदास
और छटपटाती नदी
क्या खुद है
बहुत प्यासी नदी ?
खोज में शायद
सागर की
चीरकर पहाड़ों का सीना
नीचे आती और
आगे बढती जाती नदी!
कभी तोड़ बंध मर्यादा के
बिरह व्यथा में हो निबद्ध
उन्मुक्ता सी
चंचला बन
विकराल हो जाती नदी !
जा पहुँचती सागर द्वारे
फिर उतर कर
डूबती
गहराइयों में
शांत, खारे सागर की
समाकर उसमें सुख पाती नदी !
अपनी
प्यास बुझाती नदी ?
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(5 )

खड़ी मुस्कुराती रही कभी इस मोड़ तो कभी उस मोड़ पर
बढे हाथ तो नए मोड़ पर खिलखिलाती मिली मेरी ज़िन्दगी
राबिता रखते रहे अपने क़दमों का उसकी हर चाल से
साथ अपने न पाकर कभी बुदबुदाती मिली मेरी ज़िन्दगी
खैर तूफानों ने की जो आते रहे बरक्स मेरी सोच के
कभी छाँव में धूप के बिछोने बिछाती मिली मेरी ज़िन्दगी
चलते हुए राह में कितने ही छींटे गिरे दामन पर मेरे
बाँहों में अपनी लेने मुझे कभी बुलाती मिली मेरी ज़िन्दगी
तराशा मुद्दतों ख्वाब वो जो अब भी हैं दिल में मेरे
नींद में मिल कभी ख्वाबों को मनाती मिली मेरी ज़िन्दगी
पहिया वक़्त का चलता रहा लम्हा रेत सा फिसलता रहा
क्या खोया क्या पाया कभी ये जोड़ लगाती मिली मेरी ज़िन्दगी
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(6)
यदि लिखता तो क्या लिखता
उपवन लिखता पतझड़ लिखता
अपनी विरह कथा लिखता
या सम्पूर्ण व्यथा लिखता
मादक अधरों के रस लिखता
मकरन्दित स्वर्ण कलश लिखता
उस केश-राशि के बल लिखता
दो नयना खिले कंवल लिखता
सिमटे आँचल के रंग लिखता
क्यों नहीं हो मेरे संग लिखता
अपनी अधीरता के पल लिखता
मन हुआ विकल चंचल लिखता
उस पायल की छन-छन लिखता
तुम्हें बिछड़ा हुआ सजन लिखता
भौरों का मादक गुंजन लिखता
ऊषा की एक किरन लिखता
खिलती स्निग्ध हँसी लिखता
उससे मिलती जो ख़ुशी लिखता
अम्बर पर उड़ता मन लिखता
तुमको उन्मुक्त पवन लिखता
वो रूप-राशि अनुपम लिखता
मन भाव भरा मधुरम लिखता
वो मृदुल-मधुर बतरस लिखता
अर्पण उस पर सरबस लिखता
रमणी लिखता सजनी लिखता
प्रिये बता और मैं क्या लिखता
क्या लिखता मैं क्यों लिखता
तुम होती तो मैं क्या लिखता ?
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dr Pradyumna Kumar Kulshreshta ,डॉ० प्रद्युम्न कुमार कुलश्रेष्ठपरिचय
डॉ० प्रद्युम्न कुमार कुलश्रेष्ठ

उत्तर प्रदेश के नगर आगरा में जन्म! यही के एस एन मेडिकल कॉलेज से पी० एच० डी० की शिक्षा पूर्ण की ! बचपन में अपने स्वर्गीय पिताश्री को  कवितायेँ रचते देखा करता था ! बहुत से कवि सम्मेलनों में कविता का आनंद लेने का अवसर भी जीवन में बहुत शुरू में ही मिला !

बाद में संस्कार भारती संस्था से उसके प्रारम्भ से ही परोक्ष रूप से जुड़ा रहा बाद में सीधे जुड़ने का भी अवसर मिला !  तो बस कविता ने कहीं न कहीं धीरे से एक स्थान बना लिया मेरे अंतर में !

फिर कभी कुछ लिख दिया यूँ ही… फिर फाड़ भी दिया… अब जब मन में कोई ज्वार सा उमड़ता है तो शब्दों के रूप में बाहर आ जाता है… उसे कविता/ग़ज़ल या कोई और नाम जो उचित लगे दिया जा सकता है !

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