डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी की कविताएँ

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कविताएँ

1. जलता हिन्दुस्तान

योगी नहीं
सन्त नहीं
लिप्साओं का
अन्त नहीं
चहुंओर मौत का ताण्डव,
दुर्योधन का वध कैसे
कोई नहीं है जब पाण्डव।
मौत के सन्नाटे में
कैसी आस
परिवर्तित हुआ जीवन परिदृश्य
वाह- कैसा है यह मंजर,
छाती, पीठ, पेट में
धंसे हुए खंजर।।
किसके हैं ये अस्त्र/शस्त्र
अपनों के और किसके?

 2. चुप हो जा-
जा पेट पर हाथ रखकर
सो जा।
माँ कहती है बच्चे से
जो भूख से बिलख रहा है
और निरावस्त्र है।
दरकार दो जून की रोटी
हे समाजसेवी-
मानवता के नाम पर
कुछ इमदाद कर दो
इनकी जठराग्नि को
शान्त कर दो।
इन्हें भी चाहत है
एक पूर्ण जीवन का।
इन्हें भी चाहत है
एक पूर्ण जीवन की।
इन्हें मत मानो गैर
भूखों की कोई जाति नहीं
मत करो इनसे बैर।।
इन्हें मानो अपना भाई
नाच गाने जैसे आयोजन
पेट नहीं भरा करते हैं
गरीब तो हर लय-ताल पर
तिल-तिलकर मरता है।
माना कि आयोजन गरीबी
उन्मूलन के लिए है
इस तरह के कार्यक्रम वर्षों से
चल रहे हैं।
अभी तक गरीब
पूर्ववत् ही चल रहे हैं।
क्यों कहते हो-
मेरा भारत महान
पूरा हिन्दुस्तान।।।

3. कामना

समग्रता की
आपसी सौहार्द की
दूर हो-
वैर-भाव
मिटे कटुता
गिरे आंगन में
दरार डालने वाली दीवार
छटे दूरियाँ
बढ़ें नजदीकियाँ
विस्तृत हो अपनापन।
ऐसी महत्वाकांक्षा नहीं
जिसमें दरकार हों
ढेर सारी भौतिक वस्तुएँ
जिन्हें पाने लिए
भाई-भाई को जुदा
होना पड़ता है।
आओ-
मिलकर बहार बांटे
प्यार उड़ेल दे।
भारत महाने है
और
भारतवासी महानतम्
मजहब नहीं सिखाता
आपस में बैर रखना
इस सूक्ति को
हम सबको याद रखना
कामना है-
सोना उगलने वाली इस
देश की महान धरती
हमारे लहू से रक्तरंजित
न हो।।।

4. एकाकीपन
मुझे
एक भीड़ ने घेर रखा था
क्योंकि-
मैं अपने घर का रास्ता
भूल गया था
मैं
उस भीड़ में
अपने को असहाय
महसूस कर रहा था
मुझे
मात्र अकेलापन
भयाक्रान्त किए था
मैं
अपने एकाकीपन से
शीघ्र छुटकारा पाना चाहता था
इसलिए-
भीड़ पर दृष्टिपात
करता हुआ
अपने
किसी सहायक की खोज में
जुटा था।
मैं
अपनी पहचान बनाने के लिए
याचक भाव से
हरेक पर नजरें घुमाता था
पर भीड़ और
भीड़ के चेहरों में से
किसी ने मेरा साथ
नहीं दिया था
मैं-
अपनी कातर भाव-भंगिमा से
भीड़ को प्रभावित
करने का असफल प्रयास
करता था।
फिर भी भीड़ ने
मेरी आँखों की तरलता
की तरफ
ध्यान नहीं दिया था।
मैं अपने को
खोया-खोया सा महसूस
करने लगा था।
मैं सोचने लगा था कि-
आज हर कोई घर के रास्ते
भूले हुए मेरी तरह
अपनी-अपनी आँखों में
‘याचना’ भाव लिए
खड़ा है
अपने शहर की भीड़ में
अपनी पहचान
बनाने के लिए।

5. मैंने देखा……..

रात को मैं
शहर की सुनसान सड़क से
गुजर रहा था।
मैंने देखा-
घण्टाघर के पास
जहाँ मूंगफली वाला
बैठा करता है,
वहीं एक कृशकाय लड़का
ठण्डक से बचने के लिए
एक चद्दर ओढ़े
सिमटा हुआ लेटा था।
उसे ठण्ड के कारण
नींद नहीं आ रही थी।
वह ठण्ड से
थरथर कांप रहा था।
विचारों के तानेबाने में उलझा
अपने घर की तरफ
जा रहा था।
मैं रूक गया था,
रात में चांदनी छिटकी हुई थी
तारे टिमटिमाते हुए
शरद ऋतु की रात में
आकाश पर छाये हुए थे।
मुझे चांदनी रात
सुखद लग रही थी- लेकिन
ठण्ड से ठिठुरते लड़के को देखकर
मुझे लगा था कि
यह भाग्य की बेइमानी है।
किसी को शीत ऋतु की
चांदनी अच्छी लगे
और कोई-
वही रात किसी तरह
काटने पर विवश हो।।।

6. विलुप्त हुई भीड़

मियाँ
ट्रेन का सफर
नींद का झोका
और-
स्वप्न देखता हूँ कि-
मैं बूढ़ा हो गया हूँ।
अपरिचित स्थान
एकाएक उठे हुए हाथों का
गिर जाना
किसी सकरे स्थान से होकर
गुजरने का आभास।
एक प्रश्न चिन्ह
अपने आप उभरा
और स्वयं से एक प्रश्न-
वे हाथ गुलदस्ते और
वह भीड़ का रेला
कहाँ गया?
क्या-
सबकुछ समाप्त?
मेरे चारों तरफ नीरवता
लगता है सीकचों में
कैद हो गया हूँ।।
घबराहट
पुनः सोचने पर विवश
मेरे परिचितों और स्नेहियों
की भीड़ कहाँ है?
उत्तर स्वयं मिल जाता है-
समय का फेरा
लोगों को हकीकत का ज्ञान
अब सबकी आँखें
खुल गई
और इसीलिए मैं अब
उनके लिए
निष्प्रयोज्य हो गया हूँ
एकाएक ट्रेन का रूकना
झटके में नींद का
खुल जाना
पता चला गंतव्य
आ गया-
और मै प्लेटफार्म पर
हाथ में एक झोला लिए
किंकर्तव्य विमूढ़ सा
उतर जाता हूँ।।।

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Bhupendra-Singh-Gargvanshiडॉ.-भूपेन्द्र-सिंह-गर्गवंशी1परिचय :

डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

वरिष्ठ पत्रकार/टिप्पणीकार

रेनबोन्यूज प्रकाशन में प्रबंध संपादक

संपर्क – bhupendra.rainbownews@gmail.com

अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.) मो.नं. 9454908400

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