दिव्या शुक्ला की पांच रचनाएँ

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दिव्या शुक्ला की पांच रचनाएँ

1-
इस अनंत यात्रा में कितना कुछ अनकहा रह जाता है
प्राणों की तलहटी में हिमनद सा जमा मौन
देह प्रस्तर खंड सी
भटकता मन बावरा सा
कभी निरलस कभी प्राणवान —
डरती हूँ यदि पिघला एक भी टुकड़ा हिमखंड
तो कितना कुछ बहा ले जायेगा —

2-   कुछ तुम करना कुछ मै
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कल अलसुबह आना
मै मुट्ठी भर सपने लाऊंगी
तुम उन्हें कांच सा तोड़ देना
बचे खुचे विश्वास को रेत में बिखेर देना
आंचल में भरी चांदनी पर रात उड़ेल देना
मै रात को सूरज में लपेट दूंगी
तुम दिन को सियाह कर देना
मै नीम की फुनगी पर चाँद टांग दूंगी
पत्तियों से छन के आती मध्यम रोशनी में
कुछ जोड़े घटाएंगे –ये भी तुम ही करना
मुझे जीवन का गणित नहीं आता
मन का बोझ उतार फेकना —–
रात आते ही तुम जहाँ चाहो चले जाना —
बिना कोई बोझ लिए अपने ज़मीर पे
मै आवाज़ नहीं दूंगी न अभी— न ही फिर कभी
जाते जाते मेरा भरोसा मेरा विश्वास
मुझे लौटा जाना जो तुम्हे सौंपा था
–तुम बाकी जिंदगी आराम से सोचना
क्या खो दिया क्या पाया —और मै
-मेरी बात छोडो—-तुम नहीं समझोगे
ख़ैर छोडो जाओ भी अब —
मै हूँ ही नहीं इस दुनिया की

3-  
तुम्हारी जैसी खूबसूरत औरतें चंद रुपयों में मिल जाती है —
इस गुमान में मत रहना तुम्हारे बगैर काम नहीं चलेगा
इतना गुरुर किस बात का -आखिर और काम ही क्या है तुम्हारा
—– सन्न सी रह गई मै पल भर को अपने स्त्रीत्व का इतना घोर अपमान —
बस इतना ही तो कहा था -आज मन नहीं ठीक है कल सही —
—उफ़ घिन आ गई और मै क्रोध से तिलमिला उठी —
उनकी तरफ एक हिकारत भरी नजर डाल के कहा —-
—— सुनो मुझे तो तुम जैसा नहीं चाहिए .. कोई पैसे भी नहीं खर्च करने पड़ेंगे
तुम जैसे बल्कि तुमसे बेहतर मर्द तो फ्री में उपलब्ध होते है हर जगह घर बाहर आसपडोस हर कहीं –
फिर भी नहीं चाहिए वरना तुममे और मुझमें क्या फर्क रह जाएगा —
कह कर व्यंग से मुस्करा दी पर शूल सा गड गया मन में बहुत पीड़ा हुई
किंतु उसकी एक रेख तक चेहरे पर नहीं आने दी मुस्कराती रही
—आखिर किस बात का घमंड है तुम्हे बेशर्मी से जुबान चलाना ही सीखा है
औरत हो औरत की तरह रहो मर्द बनने की कोशिश मत करना —
—- सुनो मुझे मर्द बनने का कोई शौक नहीं -मुझे अभिमान है
मै औरत हूँ और हर जन्म में औरत ही बनना चाहूंगी —

4- उफ़ — अब तो हद्द हो गई
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-सुनो –सुन रहे हो ना
मेरी जिंदगी बिस्तर से गीले तौलिये उठाते /
तो कभी स्लीपर्स का दूसरा जोड़ा खोजते गुजरती जा रही है
बाथरूम में टूथपेस्ट का ढक्कन खुला / मोइश्च्राइज़र की बोटल लुढकी
पर हाँ कोलोन और परफ्यूम हमेशा अपना कैप पहने रहते
हाँ भई प्रिय है तुम्हे /देखो बस बहुत हो गया अपने जूते तो अंदर न लाओ
बारिश के कीचड़ से भरे हैं आज कितना पानी बरसा /उफ़ कितने लापरवाह हो तुम
सारा कारपेट गंदा कर दिया और मोज़े देखो इन्हें बाथरूम में डालना वरना देखना फिर …अब यही आदतें तुम्हारे बेटे भी खुदबखुद सीखते जा रहे हैं / पर तुम्हे क्या तुम्हे कहाँ फुरसत है
सब देखने की / तुम से कोई बात कहती हूँ तो सारी बात ख़तम होने के बात पूछते हो तुम ने कुछ कहा — इतनी देर बकबक करती रही और तुम पूछ रहे हो कुछ कहा क्या
रोज़ सुबह पेपर ले कर टायलेट जाना कौन सी अच्छी आदत है और तो और सीट के बगल मैगज़ीन होल्डर लगवाना याद रहा पर मेरे लिए मोगरे के गजरे लाना तो भूल ही गये अब /हाँ क्यों याद रहेगा वो दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था /अब तो टायलेट में ही वर्ड पालिटिक्स डिसकस होती है ओबामा के साथ / जितना वक्त मुझसे दूर गुज़रे कम है / पर मिसेज़ जैन को gudmorning कहना न भूलना /सुनो मेरा comparison तो करना मत किसी से मुझे अच्छा नहीं लगता समझे —एक मै ही जो तुमसे निभा रही हूँ दूसरी होती तो कब की छोड़ के चली गई होती —–
सबसे बुरी कौन सी आदत है तुम्हारी जानते हो नहीं ? खाना तो सिर्फ मेरे हाथ का बना शौक से खाओगे पर तारीफ़ के एक बोल भी नहीं फूटेंगे मुंह से /
कल से खाना तो क्या काफी भी नहीं बना कर दूंगी समझे — -सोचती हूँ कभी तुम्हे अगर तलाक़ दूंगी तो इसकी यही वज़ह काफी होगी / बिस्तर पर गीला तौलिया फेंकना / मेरा फोन इग्नोर करना / सोफे पर सो जाना /और हाँ रात को बिना ब्रश किये सोना /और हाँ तुम्हारा बाथरूम में पेपर पढना उफ़ कितना – / पैरों के नाख़ून खुद तो काटना ही नहीं मै काटूँ तो बडबडाना
मुस्कराओ मत जी जल जाता है मेरा / सच कह रही हूँ चली जाउंगी छोड़ कर —-
—ख़ैर इतना कुछ काफी है अब भी तुम्हे छोड़ने के लिए

5- चलो न मीता

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तुम कितने खराब हो गए हो मीता कब से तुम्हारी बाट जोह रही हूँ
और तुम न भुलाय बैठे हो हम को ऐसा पत्थर का करेजा न था तुम्हारा
कितनी बार समझाया काहे करते हो इतनी मेहनत जब हम साथ न बैठ पायें
तुम कहे थे न हमको इस बार माघ मेला जरुर ले जाओगे ,,,और याद है का कहे थे
अपनी बैल गाडी में ले कर बस हम और तुम ,,, ऐ सुनो न तुम तो जानते हो
हमको बैलगाड़ी में तुम्हारे साथ दूर की यात्रा करने की कितनी साध है
एक लालटेन टंगी हो बैलों के गले में घंटी टुनटुनाती हो
तुम हो और हम हों बस और कोई नहीं हमारी परछाईं भी नहीं ,,,,तुम पूरे स्वर में गाओ
वही गीत जो तुम हमारे लिए अक्सर गुनगुनाते हो ,,,,सच्ची मीता और कुछ ना चाहिए
ठंड बहुत है पाला पड़ रहा है तुम कहाँ हो ,,,अभी वो महुआ घटवारिन की कहानी भी तुमने पूरी नहीं सुनाई ,,जानते हो मुझे मेला नहीं घूमना मुझे तो तुम्हारे साथ बस यात्रा करनी है वो भी बैलगाड़ी में ,,जब तुम नहीं होते हो हिरामन तो मै तुम्हारी सारी शिकायत इस मिट्ठू से करती हूँ ,,अब हंस क्यूँ रहे हो जाओ नहीं बोलती तुमसे ,,,,तुम बहुत खराब हो ,,,,,,
अब तुम मेरे मीता हो न ,,,और मै ? मै तो बावली हूँ तुम्हारी तस्वीर से बातें करती हूँ ,,,,अरे हाँ याद आया इस बार मेले में हम दोनों तस्वीर भी खिंचवायेंगे ,,,दिन रात सफर करेंगे रस्ते में नदी के घाट पर रुकेंगे ,,,,लकड़ी जला कर साथ बैठेगे मै रोटी बनाउंगी उसी आग में और आलू भी भूनेगे ,,,,तुम बार बार कहोगे बस रात बीतते बीतते पहुँच जायेंगे और मै मन ही मन देवी देवता मनाउंगी रास्ता कभी न ख़तम हो ,,,,, कुछ ज्यादा तो चाह नहीं की हमने बस तुम्हारे संग साथ रुकते चलते जिंदगी चलती कट जाए ,,,न ये रस्ते ख़त्म हों न तुम्हारे किस्से कहानियां ,,,
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divya shukla,invc newsपरिचय
दिव्या शुक्ला
लेखिका व् समाजसेविका

सोशल एक्टिविष्ट सेव वुमेन सेफ वुमेन पर काम कर रहीं हैं !

 निवास : लखनऊ –  संपर्क  divyashukla.online@gmail.com

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3 COMMENTS

  1. I AM PROUD SUCH TYPE ACTIVIST WHO IS WORKING FOR THE WOMEN &I AM A COUNSELLORI AM ALSO WORKING FOR SAVE HUMAN CREATURE BY COUNSELLING FREE NO CHARGE . JAY BHARAT

  2. अनेकों बधाईयाँ और शुभकामनाएं बहन को
    सखी को मित्र को

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