आधी आबादी को रास्ता चाहिए – भेदभाव नहीं

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Need a way - No Discrimination

निर्मल रानी
लेखिका व सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर
निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं
न्यूज वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !

पिछले दिनों संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के सिविल सेवा परीक्षा 2021 के परिणाम घोषित हुये। यूपीएससी द्वारा चुने गये उम्मीदवारों की जो सूची जारी की गयी उसके अनुसार श्रुति शर्मा ने पहला स्थान प्राप्त किया जबकि श्रुति शर्मा के अतिरिक्त तीन अन्य महिला उम्मीदवारों अंकिता अग्रवाल, गामिनी सिंगला तथा ऐश्वर्या वर्मा ने  क्रमश: दूसरा, तीसरा और चौथा स्थान हासिल किया। गोया महिला उम्मीदवारों ने देश की सबसे प्रतिष्ठित सिविल सेवा की सूची में पुरुषों को सीधे पांचवें स्थान पर धकेल दिया। इनमें कई लड़कियां ऐसी भी हैं जिन्होंने अभावग्रस्त पारिवारिक परिस्थितियों के बावजूद केवल अपनी योग्यता,कठोर परिश्रम व लगन के बल पर इतना ऊँचा मुक़ाम हासिल किया। इस परिणाम ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि अवसर मिले तो महिलायें,क्या कुछ न कर दिखायें। यू पी एस सी की योग्यता सूची में आने वाली इन चारों लड़कियों के अतिरिक्त चुनी गयी सभी लड़कियां उच्च प्रशासनिक पदों पर तैनात होकर राष्ट्र की सेवा में अपना योगदान देंगी। इन्हें इसके बदले में उच्च मानदेय के अतिरिक्त अनेक प्रकार की सुविधाएं गाड़ी बंगला ऑफ़िस नौकर चाकर सब कुछ प्राप्त होगा। पूरे सेवाकाल तक प्राप्त होगा और अवकाशप्राप्ति के बाद भी पेंशन आदि नियमानुसार मिलती रहेगी।

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शिक्षण क्षेत्र की प्रतिभाओं से अलग, खेल कूद की अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपनी विजय पताका फहराकर अपने देश का नाम पूरे विश्व में रोशन करने वाले प्रतिभागियों को सरकारी सेवाओं में अवसर दिये जाने अथवा पेंशन आदि का चूँकि प्रायः कोई प्रावधान नहीं है। इसीलिये देश का नाम रौशन करने वाले ऐसे होनहारों के लिये केंद्र व राज्य सरकारें अनुकंपा के आधार पर उन्हें पर्याप्त धनराशियां उनके पदक व विजयी श्रेणी के अनुसार आवंटित करती रहती हैं। विभिन्न राज्य सरकारों ने इस तरह के प्रतिभागियों  के लिये पदक व श्रेणी के अनुसार अलग अलग धनराशियां निर्धारित भी की हुई हैं। ओलंपिक अथवा विश्व विजेता प्रतिभागियों के लिये तो कई बार सरकारें ख़ुश होकर ‘धनवर्षा ‘ कर देती हैं। उन्हें बांग्ला,प्लॉट करोड़ों रुपयों की प्रोत्साहन राशि यहाँ तक कि सरकारी सेवाओं तक से नवाज़ा जाता है। ज़ाहिर है इसतरह के प्रोत्साहन से खिलाड़ी प्रतिभागियों के हौसले बुलंद होते हैं,अन्य बच्चे इन्हें देखकर प्रेरणा लेते हैं और वे भी आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं।

 

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परन्तु यह हमारे देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि धर्म-जाति की बेड़ियों में जकड़े इस देश का एक बड़ा सांप्रदायिकतावादी व जातिवादी वर्ग खेल कूद प्रतिभागियों के प्रदर्शन को भी उनकी जाति व उनके धर्म के चश्मे से देखता है ? यदि टीम पराजित हो तो यह वर्ग उसका ज़िम्मा अपनी सुविधानुसार जाति या धर्म विशेष पर लगाने की कोशिश करता है और अगर वही खिलाड़ी पदक लेकर आये तो उसको प्रोत्साहित करने के बजाये उसके प्रति उदासीनता बरती जाये ? उसे प्रोत्साहन राशि व अतिरिक्त पुरस्कारों से वंचित रखा जाये ? खिलाड़ियों के साथ इस तरह का सौतेला व पक्षपातपूर्ण बरताव करने के बाद जनता या सरकार यह कैसे उम्मीद कर सकती हे कि देश की अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिभाओं में बढ़ोतरी हो ?और भारतीय तिरंगा विश्व फ़लक पर फहराता दिखाई दे ?

याद कीजिये  अगस्त 2021 में जब ओलंपिक में भारतीय महिला हॉकी टीम अर्जेंटीना से मैच हार गयी थी उसके कुछ ही देर बाद स्वयं को कथित ऊंची जाति का बताने वाले कुछ तत्व  हरिद्वार के एक गांव में रहने वाली भारतीय टीम की हॉकी खिलाड़ी वंदना कटारिया के घर पहुँच कर उसके दरवाज़े के बाहर कपड़े उतार कर नाच नाच कर पटाख़े फोड़ने लगे थे। इतना ही नहीं उन्होंने वंदना कटारिया व उसके परिवार पर जातिगत टिप्पणियां की। उन्हें गालियां दीं व अपमानित किया गया।  वंदना के परिजनों के अनुसार आक्रोशित व्यक्तियों का कहना था कि भारत मैच इसलिये हार गया क्योंकि भारतीय टीम में बहुत अधिक दलित खिलाड़ी थे.’इतना ही नहीं बल्कि वे यह भी कह रहे थे कि केवल हॉकी में से ही नहीं बल्कि हर खेल में से दलितों को बाहर निकाल देना चाहिए। ‘ जिस देश में दलितों को सफलता पाने पर किसी अतिरिक्त प्रोत्साहन की कोई व्यवस्था न हो वहां किसी हार का ज़िम्मा किसी खिलाड़ी पर केवल इसलिये थोपना कि वह किसी जाति या धर्म विशेष से सम्बद्ध है,यह आख़िर कहाँ का न्याय है ? क्या कभी किसी कथित ऊंची जाति के खिलाड़ी के घर पर भी किसी समाज विशेष के लोगों ने इसलिये प्रदर्शन व हंगामा खड़ा किया कि उसके चलतेअमुक मैच या प्रतियोगिता हार गयी ?

धर्म जाति के आधार पर सौतेले रवैय्ये का ताज़ातरीन उदाहरण पिछले दिनों पुनः देखने को मिला जबकि तुर्की के इस्तांबुल में मुक्केबाज़ी में भारत की निकहत ज़रीन “विश्व चैंपियन” बनी। निकहत इसलिये भी अतिरिक्त प्रोत्साहन की हक़दार हैं क्योंकि वह उस मुस्लिम समाज से आती हैं जिसमें कथित तौर पर विशेषकर लड़कियों की शिक्षा पर अधिक तवज्जोह नहीं दी जाती। ख़ासकर खेल कूद प्रतियोगिताओं में तो बिल्कुल नहीं या नाम मात्र। परन्तु यदि ख़ुशक़िस्मती से किसी मुस्लिम लड़की को पारिवारिक सहयोग,समर्थन व प्रोत्साहन मिले तो उसे सानिया मिर्ज़ा और निकहत ज़रीन बनने में देर भी नहीं लगती। हमारी केंद्र सरकार जब तीन तलाक़ पर क़ानून बनाकर  इस बात का श्रेय लेना चाहती है कि वह मुस्लिम महिलाओं की शुभचिंतक है।

वह बिना किसी पारिवारिक महरम पुरुष के महिलाओं को हज के लिये जाने की इजाज़त देती है। तो उसी मुस्लिम महिला निकहत को विश्व चैंपियन होने व दुनिया में तिरंगे की शान बढ़ाने के बावजूद आख़िर अतरिक्त या कम से कम सामान्यतः दी जानी वाली प्रोत्साहन राशि व पुरस्कार,गिफ़्ट आदि क्यों नहीं देती ?  उसे क्यों यह कहना पड़ा कि शायद -मैं मुस्लिम थी इसलिए मेरे हिस्से में केवल प्रशंसा आयी।’ वंदना कटारिया से लेकर निकहत ज़रीन व इन जैसे और भी कई खिलाड़ियों को आख़िर यह क्यों महसूस होने दिया जाता है कि उनके साथ हो रहे इस सौतेले व्यवहार का कारण यही है कि वे किसी धर्म व जाति विशेष से संबद्ध हैं ? हमारे समाज,सरकार,राष्ट्र प्रेमियों सभी को चाहिये कि वे देश में सद्भावपूर्ण व निष्पक्ष वातावरण पैदा करें। याद रखें कि रानी लक्ष्मी बाई,रज़िया सुल्तान और बेगम हज़रत महल से लेकर इंदिरा गांधी तक के इस देश में महिला प्रतिभाओं की आज भी कोई कमी नहीं है। बस आधी आबादी को केवल रास्ता व प्रोत्साहन चाहिये -भेदभाव नहीं।


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