– सुनील दत्ता –
तंत्र के माने है शक्ति | शक्ति के माने है अधिकार | स्पष्ट बात है कि जनतंत्र का सीधा – सपाट मतलब है , जनता की शक्ति या जनता का अधिकार | समस्त जनता की कमोवेश बराबरी की शक्ति व अधिकार | जनतंत्र की विरोधी शब्द या अवधारणा का नाम है ‘तानाशाही ‘ | आमतौर पर तानाशाही शब्द कहते ही दिलो – दिमाग पर शासन – सत्ता का हिंसात्मक , दमनात्मक चरित्र उभर आता है | यह गलत भी नही है | लेकिन अधूरा जरुर है | क्योंकि तानाशाही का वास्तविक मतलब जनतंत्र का विरोध है | जन की शक्ति की , जन के अधिकार की कटौती या उसका हनन – दमन है | यह कटौती किन पद्धतियों व तरीको से की जाती है यह मामला एकदम अलग है | चाहे वह प्रत्यक्ष दमनात्मक व दंडात्मक कानूनों के जरिये की जाए या फिर शान्ति के साथ व अप्रत्यक्ष रूप में लोगो को साधनहीनता व अक्षमता की तरफ धकेलते हुए की जाए | दोनों पद्धतियों या तरीको में भारी अन्तर होने के वावजूद दोनों ही तरीके जनसाधारण पर तानाशाही के ही ध्योतक है | साथ ही वे एक दूसरे के पूरक भी है |
किसी भी शासन सत्ता का शांतिपूर्ण , अहिसात्मक तथा प्रत्यक्ष दिखने में जन-हितैषी व जन्तत्रात्म्क स्वरूप भी तभी तक नजर आता है , जब तक राष्ट्र व समाज का आम जन अपने न्यायोचित अधिकारों के हनन व कटौती का विरोध नही करता | उसे चुपचाप बर्दास्त करता रहता है | लेकिन ज्यो ही वह उसके विरुद्ध संगठित विरोध व आन्दोलन के लिए उठ खड़ा होता है , अहिसात्मक , शांतिप्रिय या फिर जनतांत्रिक दिखने वाली शासन सत्ता का हिंसात्मक , दमनात्मक तानाशाही स्वरूप स्पष्टत: सामने आ जाता है | हमारे अपने देश में आम प्रजाजनों पर , समाज के कमजोर वर्गो पर राजशाही या बादशाही के युग में यह तानाशाही एकदम स्पष्ट एवं नग्न रूप में विद्यमान थी |ब्रिटिश गुलामी के काल में हुए तमाम महत्वपूर्ण परिवर्तनों के वावजूद एक बात स्पष्ट थी और है कि वह राज्य अंग्रेजो का हिन्दुस्तानियों पर तानाशाही राज्य था | हालाकि हिन्दुस्तानियों के बीच में भी अधिकार सम्पन्न हिन्दुस्तानी बेशक मौजूद थे और यह भी सच है कि अधिकारहीन हिन्दुस्तानियों यानी इस देश कि रियाया और मजदूर हिन्दुस्तानियों पर अंग्रेजो के साथ अधिकार सम्पन्न हिन्दुस्तानियों कि दोहरी तानाशाही चलती रहती थी |
1947 के बाद देश इस देश में जनप्रतिनिधियों की पहले अस्थायी और फिर बाद में स्थायी सरकार की स्थापना के बाद इसे देश की समस्त जनता का जनतांत्रिक राज्य और जनतांत्रिक समाज व्यवस्था बताया जाता रहा है | चुनावी व संसदीय प्रणाली तथा संविधान के जरिये यह भी बढाया व बताया जाता रहा है कि अब इस देश में किसी किस्म की कोई तानाशाही व्यवस्था नही है |बल्कि समस्त जनता में कमोवेश बराबरी के अधिकार वाला राज्य व समाज स्थापित हो चूकि है और वह निरन्तर विकास कर रही है | क्या यह सच है ? एक तरफ अत्यंत अल्प सख्या में विद्यमान छोटी की धनाढ्यतम खरबपति कम्पनियों से लेकर तमाम क्षेत्रो के अरबपति , करोडपति धनाढ्य व उच्च हिस्से और दूसरी तरफ बहुत बड़ी सख्या में विद्यमान नितांत साधनहीन या अत्यंत छोटी सम्पत्तियों , साधनों आमदनियो वाले व्यापक जन समुदाय के बीच के सम्बन्ध क्या जनतांत्रिक सम्बन्ध है ? कमोवेश बराबरी के सम्बन्ध है ? क्या वे राष्ट्र व समाज पर कमोवेश बराबरी का अधिकार रखते है ? अथवा सच्चाई यह है की सम्पूर्ण राज्य व समाज पर धान्ध्य एवं उच्च वर्गो का तानाशाही पूर्ण अधिकार मौजूद है और लगातार बढ़ता भी जा रहा है |अगर 1950 के बाद के देश के जनसाधारण को ब्रिटिश तथा सामंतशाही व जमींदारी तानाशाही पूर्ण अधिकारों से कुछ मुक्ति मिली भी तो अब उस पर देश दुनिया की धनाढ्य कम्पनियों के बढ़ते अधिकार प्रभाव – प्रभुत्व वाली तानाशाही थोपी जा रही है |उन पर पैसे , पूंजी और माल मुद्रा बाज़ार की तानाशाही स्पष्टत: लादी व बधाई जा रही है | वैसे तो यह तानाशाही ब्रिटिश शासन काल से ही लगातार बढती रही है | लेकिन 1985 – 90 से लागू की जा रही वैश्वीकरणवादी नीतियों व डंकल प्रस्ताव तथा नई शिक्षा व उपभोक्तावादी सांस्कृतिक नीतियों आदि के जरिये इसे एकदम प्र्ताय्क्ष व नग्न रूप में बढाया जा रहा है |
क्योंकि इन नीतियों के जरिये देश दुनिया के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों को मिलने वाली छूटो , अधिकारों तथा प्रभावों – दबावों को खुलेआम और लगातार बढाने के साथ – साथ आम मजदूरो , बुनकरों , किसानो तथा छोटे व अन्य अत्यंत छोटे व्यापारियों औसत शिक्षा प्राप्त नवयुवको को मिले थोड़े बहुत अधिकारों व छूटो , अवसरों , साधनों को अहिसात्मक व हिंसात्मक ढंग से काटा घटाया जा रहा है | यह जनसाधारण के लिए तानाशाही है , न की जनतंत्र | यह धनाढ्य व उच्च वर्गो की जनसाधारण पर तानाशाही है | समाज के थोड़े से लोगो को धनी धनाढ्य और अधिकार सम्पन्न बनाने के लिए व्यापक जनसाधारण को प्रत्यक्षत:या अप्रत्यक्षत: अधिकारहीन रखना बनाना है | इसकी कोई दूसरी प्रक्रिया न तो है और न हो सकती है |क्योंकि राष्ट्र व समाज के थोड़े से लोगो की साधन सम्पन्नता और अधिकाधिक सम्पन्नता राष्ट्र व समाज के बहुसख्यक मेहनतकशो के अधिकाधिक शोषण , लूट व दमन से ही सम्भव है | घोषित या अघोषित तानाशाही शासन – सत्ता से ही सम्भव है |
इसलिए यह तानाशाही मात्र शासन सत्ता में बैठे नेताओं , पार्टियों या घोषित अघोषित तानाशाह शासको की ही तानाशाही कदापि नही होती , बल्कि यह तानाशाही उन सारे वर्गो – तबको की है , जो उस शासन तंत्र व उसके नीतियों व कानूनों के जरिये सर्वाधिक एवं स्थायी रूप से लाभान्वित एवं अधिकार सम्पन्न होते रहते है | साथ ही यह उन जनसाधारण लोगो पर तानाशाही होती है जिनके बुनियादी अधिकारों तक पर रोक लगती और बढती जाती है | वर्तमान युग की इन स्थितियों में न तो भारत जैसे जनतांत्रिक कहे जाने वाले देशो में जनसाधारण का वास्तविक जनतंत्र है और न ही किसी अन्य देश में यह राजशाही व फौजी तानाशाही के शासको की ही तानाशाही मात्र है | बल्कि यह इस युग में विभिन्न नामो से चल रही विश्वव्यापी साम्राज्यी ताकतों ,धनाढ्य कम्पनियों की तानाशाही है , जो कही तानाशाही के नाम पर तो कही संसदीय जनतंत्र के नाम पर चलती बढती जा रही है | हिटलर , मुसोलीन , ताजो जैसे तानाशाह तो विभिन्न देशो में धनाढ्य देशो के घोषित मुखौटे मात्र है |उनकी तानाशाही दरअसल इन देशो के धनाढ्यतम कम्पनियों की तानाशाही थी जो एकदम नग्न रूप में फैलती रही थी | अत: इस धनाढ्य वर्गीय तानाशाही के विपरीत जनसाधारण के अधिकारों की बहाली और खुशहाली के लिए तो राष्ट्र समाज के मेहनतकश हिस्सों की ,जनसाधारण की वह तानाशाही शासन व्यवस्था अनिवार्य एवं अपरिहार्य है , जो धनाढ्य एवं उच्च वर्गो की छूटो , अधिकारों पर कठोरता पूर्वक नियंत्रण लगा दे |जोसेफ स्टालिन जैसे समाजवादी व जनवादी नेताओं , शासको के बारे में तानाशाही शासक होने के चलते रहे प्रचार दरअसल सोवियत रूस जैसे देशो के मेहनतकशो के बढ़ते जनतांत्रिक अधिकारों के साथ और वह के धनाढ्य व उच्च वर्गो पर कठोर तानाशाही नियंत्रण का ही द्योतक था और है | क्या इन्हें या अन्य किसी भी शासक को अपने आप में जनतांत्रिक या तानाशाह मान लेना और उस शासन से अधिकार पाने और खोने वाले सामाजिक वर्गो व तबको को नजरंदाज़ कर देना ठीक है ? क्या यह वास्तविकता को अनदेखा करके प्रचारों में बहकाना नही है ?
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सुनील दत्ता
स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
वर्तमान में कार्य — थियेटर , लोक कला और प्रतिरोध की संस्कृति ‘अवाम का सिनेमा ‘ लघु वृत्त चित्र पर कार्य जारी है
कार्य 1985 से 1992 तक दैनिक जनमोर्चा में स्वतंत्र भारत , द पाइनियर , द टाइम्स आफ इंडिया , राष्ट्रीय सहारा में फोटो पत्रकारिता व इसके साथ ही 1993 से साप्ताहिक अमरदीप के लिए जिला संबाददाता के रूप में कार्य दैनिक जागरण में फोटो पत्रकार के रूप में बीस वर्षो तक कार्य अमरउजाला में तीन वर्षो तक कार्य किया |
एवार्ड – समानन्तर नाट्य संस्था द्वारा 1982 — 1990 में गोरखपुर परिक्षेत्र के पुलिस उप महानिरीक्षक द्वारा पुलिस वेलफेयर एवार्ड ,1994 में गवर्नर एवार्ड महामहिम राज्यपाल मोती लाल बोरा द्वारा राहुल स्मृति चिन्ह 1994 में राहुल जन पीठ द्वारा राहुल एवार्ड 1994 में अमरदीप द्वारा बेस्ट पत्रकारिता के लिए एवार्ड 1995 में उत्तर प्रदेश प्रोग्रेसिव एसोसियशन द्वारा बलदेव एवार्ड स्वामी विवेकानन्द संस्थान द्वारा 1996 में स्वामी
विवेकानन्द एवार्ड
1998 में संस्कार भारती द्वारा रंगमंच के क्षेत्र में सम्मान व एवार्ड
1999 में किसान मेला गोरखपुर में बेस्ट फोटो कवरेज के लिए चौधरी चरण सिंह एवार्ड
2002 ; 2003 . 2005 आजमगढ़ महोत्सव में एवार्ड
2012- 2013 में सूत्रधार संस्था द्वारा सम्मान चिन्ह
2013 में बलिया में संकल्प संस्था द्वारा सम्मान चिन्ह
अन्तर्राष्ट्रीय बाल साहित्य सम्मेलन, देवभूमि खटीमा (उत्तराखण्ड) में 19 अक्टूबर, 2014 को “ब्लॉगरत्न” से सम्मानित।
प्रदर्शनी – 1982 में ग्रुप शो नेहरु हाल आजमगढ़ 1983 ग्रुप शो चन्द्र भवन आजमगढ़ 1983 ग्रुप शो नेहरु हल 1990 एकल प्रदर्शनी नेहरु हाल 1990 एकल प्रदर्शनी बनारस हिन्दू विश्व विधालय के फाइन आर्ट्स गैलरी में 1992 एकल प्रदर्शनी इलाहबाद संग्रहालय के बौद्द थंका आर्ट गैलरी 1992 राष्ट्रीय स्तर उत्तर – मध्य सांस्कृतिक क्षेत्र द्वारा आयोजित प्रदर्शनी डा देश पांडये आर्ट गैलरी नागपुर महाराष्ट्र 1994 में अन्तराष्ट्रीय चित्रकार फ्रेंक वेस्ली के आगमन पर चन्द्र भवन में एकल प्रदर्शनी 1995 में एकल प्रदर्शनी हरिऔध कलाभवन आजमगढ़।
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