खतरनाक अंदाज़-ए-सियासत के दौर से गुजरता देश

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– तनवीर जाफ़री –

tanvir-jafriदेश में इन दिनों भारतीय मुद्रा की बड़ी करंसी नोट के विमुद्रीकरण को लेकर चारों तरफ अफ़रा-तफ़री मची हुई है। देश के जाने-माने अर्थशास्त्री सरकार के नोट बंदी के इस फ़ैसले के पक्ष तथा विरोध में अपने-अपने बयान दे रहे हैं। ज़ाहिर है नोट बंदी का फ़ैसला लेने वाली केंद्र सरकार अपने इस बड़े फ़ैसले के बचाव में उतर चुकी है तथा अपने फ़ैसले के पक्ष में जो दलीलें पेश कर रही है वह बड़ी ही हैरतअंगेज़ तथा भारतीय समाज को दो भागों में विभाजित करने वाली प्रतीत हो रही हैं। इस समय पूरे देश का मीडिया यह दिखा रहा है कि किस प्रकार देश भर में आम लोग अपने घरों से बाहर निकल कर अपने तमाम ज़रूरी कामों को छोडक़र या तो अपनी हज़ार-पांच सौ के नोट की शक्ल में सुरक्षित की गई जमापूंजी को बैंक में जमा करने हेतु क़तारों में लगे हुए हैं या छोटी मुद्रा हासिल करने के लिए उन्हें लंबी लाईन में लगना पड़ रहा है। देश की आम जनता अपने सामने अचानक आने वाली इस प्रकार की परेशानी को लेकर भारी गुस्से मे हैं परंतु केंद्र सरकार के मुद्रा विमुद्रीकरण के फैसले के पक्षधर लोगों द्वारा यहां तक कि केंद्र सरकार के जि़म्मेदार मंत्रियों, सांसदों तथा सत्तारुढ़ दल भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की ओर से इस फ़ैसले के बचाव में जो तर्क पेश किए जा रहे हैं वह चौंकाने वाले हैं।

सरकार ने ऐसा महसूस किया है कि एक हज़ार और पांच सौ की नोट को रद्द करने के परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार किया जा सकेगा। और कई अरब डॉलर की बड़ी धनराशि को बैंकों में जमा कराया जा सकेगा। गौरतलब है कि इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था में अस्सी प्रतिशत से अधिक की करंसी का प्रसार इन्हीं दो बड़ी नोटों में हो रहा था। सरकार बड़ी नोटों की शक्ल में खासतौर पर पाकिस्तान की ओर से भारतीय बाज़ार में धकेली गई जाली मुद्रा पर भी अंकुश लगाना चाहती है। कहा जा रहा है कि आतंकवादियों को पहुंचाई जाने वाली आर्थिक सहायता भी प्राय: इसी बड़ी करंसी में आया करती थी। बताया जा रहा है कि इन सब पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से सरकार द्वारा यह फैसला लिया गया है। परंतु क्या हमारे देश के किसी अर्थशास्त्री, रिज़र्व बैंक के पूर्व गर्वनर, किसी बुद्धिजीवी, मीडिया के किसी वर्ग को अथवा पत्रकारों को इस विषय पर अपनी बात खुलकर कहने का अधिकार नहीं कि वास्तव में सरकार द्वारा लिया गया यह फैसला सही है अथवा गलत? क्या भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी को सरकार के फैसले पर उंगली उठाने, उसकी आलोचना करने या उसमें संशोधन किए जाने का सुझाव देने का कोई हक़ नहीं है?

इसी अंदाज़ की बातें 2014 के लोकसभा चुनाव में कई भाजपाई नेताओं द्वारा की जा रही थीं। यानी यदि आप नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं तो आप राष्ट्रवादी नहीं हैं, आपको देश में रहने का अधिकार नहीं है, आप को पाकिस्तान चले जाना चाहिए आदि। और इसी मानसिकता के लोग जो आज एक बार फिर देश में मुद्रा के विमुद्रीकरण के विषय को लेकर जनता पर आए संकट पर अपनी आलोचना सहन नहीं कर पा रहे तथा जनता के ग़ुस्से का जवाब नहीं दे पा रहे वह अपने बचाव में इस तरह की बातें कर रहे हैं जो न केवल तथ्यहीन हैं बल्कि यह एक तरह की ख़तरनाक क़िस्म की अंदाज़-ए-सियासत का भी प्रमाण है। मिसाल के तौर पर सरकार के कथन के मुताबिक़ नोट बंदी के फ़ैसले से कश्मीर में पत्थरबाज़ी व अलगाववादियों के उपद्रव में कमी आई है। जनता को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि कश्मीर में पत्थरबाज़ी करने वाले युवकों को पांच सौ व एक हज़ार की नोट दी जाती थी जो अब ख़त्म की जा चुकी हैं। और अब उन्हें पैसे नहीं मिल पा रहे हैं। अब यदि कुछ अर्थशास्त्री या विपक्षी लोग सरकार के बड़ी मुद्रा के विमुद्रीकरण पर उंगली उठा रहे हैं तो उनसे यह सवाल किया जा रहा है कि क्या विपक्ष चाहता है कि कश्मीर में अलगाववादियों के उत्पात को जारी रहने दिया जाए? देश में कतार में लगे करोड़ों लोगों को यह बताया जा रहा है कि यह विपक्षीदलों के लोग हैं और सरकार को बदनाम करने की साज़िश के तहत यह लाईनें लगवाई गई हैं। इतना ही नहीं बल्कि सरकार की इस नीति व फैसले की आलोचना करने वाले लोगों को काला धन रखने वालों का पक्षधर व पैरोकार बताया जा रहा है। उन्हें भ्रष्टाचार का समर्थक तथा आतंकवादियों की सहायता करने वाली सोच का पैरोकार कहा जा रहा है।

ख़बरों के मुताबिक़ देश में अब तक 55 लोग मुद्रा संकट से संबंधित परेशानियों के कारण अपनी जानें गंवा बैठे हैं, पैसों की कमी के चलते कई लोग दवा-इलाज के अभाव में स्वर्ग सिधार गए। शादी-विवाह के समय में आए इस मुद्रा संकट ने हज़ारों घरों की शादी की रस्म फीकी कर दी। दूर-दराज़ के गांवों में गरीबों, मज़दूरों व दिहाड़ीदारों का तो कोई पूछने वाला भी नहीं है। यदि दुकानदार उधार में राशन आदि दे भी रहा है तो वह भी रुसूखदार व संपन्न लोगों को। ग़रीबों का यहां भी कोई पूछने वाला नहीं। परंतु आप को इन सब बातों को उजागर करने या इन्हें प्रचारित करने का गोया कोई अधिकार ही नहीं है? आज कतारों में लगे लोगों को यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि यह सब कुछ देशहित में हो रहा है। यह सब काला धन के िखलाफ चलाए गए अभियान का एक हिस्सा है। परंतु यदि सरकार से कोई यह पूछता है कि आपने देश के उन लगभग दो सौ पचास लोगों के नाम उजागर क्यों नहीं किए जिनके विदेशों में काला धन जमा हंै तो ऐसे सवाल पूछने वाला काला धन का समर्थक कैसे हो गया? यदि सरकार को देश की जनता की खून-पसीने की कमाई से जमा की गई पूंजी काला धन नज़र आती भी है तो भी यह कुल मुद्रा 12 लाख करोड़ अर्थात् लगभग चार सौ लाख करोड़ के काले धन का मात्र तीन प्रतिशत बनती है। अर्थात् सरकार के इस फैस्ले से भी अनुमानित तौर पर एक प्रतिशत काला धन भी समाप्त नहीं हो सकेगा।

हमारे देश में विमुद्रीकरण का फैसला भी कोई नया फैसला नहीं है। 1978 में भी जनता पार्टी की सरकार द्वारा एक हज़ार रुपये की करंसी को अवैध घोषित किया गया था। हालांकि उस समय किसी आम आदमी को इतना परेशानी का सामना नहीं उठाना पड़ा था परंतु सरकार के इस फैसले का देश की अर्थव्यवस्था को उस समय भी कोई फायदा नहीं हुआ था। परंतु आज स्थिति 1978 से बहुत अलग है। आज एक हज़ार के नोट 1978 के मुकाबले में 16 हज़ार गुणा अधिक हैं। गोया आम लोगों के पास हज़ार पांच सौ की करंसी की शक्ल में जमापूंजी अधिक थी छोटी करंसी के रूप में कम। ऐसे में वर्तमान दौर में लिए गए इस फैसले का प्रभाव आम जनता पर पडऩा स्वाभाविक था। जहां तक आतंकवादी गतिविधियों में एक हज़ार व पांच सौ की नोट के आवागमन का प्रश्र है तो यह बात भी पूरा विश्व भलीभांति जानता है कि आतंकवादी गतिविधियों के लिए लेन-देन करने वाले लोग अथवा संगठन ई बैंकिंग का सहारा लेते हैं। वैसे भी यदि आतंकवादियों को लगाम लगाने के लिए या कश्मीर में पत्थरबाज़ी रोकने अथवा नकली मुद्रा के प्रचलन को रोकने जैसी सरकार की दलीलों को मान भी लिया जाए तो भी उपरोक्त सारी कमज़ोरियां सरकार की ही हैं। चाहे वह सीमापार से विदेशी नकली करंसी का भारत में आना हो या देश में काला धन व जमाखोरों को मिलने वाला प्रोत्साहन या ढील इन सभी के लिए निश्चित रूप से सरकार ही जि़म्मेदार है। ऐसे में सरकार की गलतियों का ठीकरा आम जनता के सिर पर फोडऩा कहां का न्याय है? और यदि कोई आलोचना करे तो उसे आतंकवादियों या काले धन वालों का पक्षधर घोषित करने का फतवा जारी कर देना एक ऐसा खतरनाक अंदाज़-ए-सियासत है जिसके नतीजे निश्चित रूप से अच्छे नहीं हो सकते।

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tanvir-jafri1About the Author

Tanveer Jafri

Columnist and Author

Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.
He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.

Contact – :
Email – tjafri1@gmail.com –  Mob.- 098962-19228 & 094668-09228 , Address – Jaf Cottage – 1885/2, Ranjit Nagar,  Ambala City(Haryana)  Pin. 134003

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