कांग्रेस- एक थका हुआ काफिला

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राजनीति के अज्ञात गर्त में डूबती और विरासत की दहलीज पर हांफती, लड़खड़ाती कांग्रेस का यह थका हुआ काफिला आज अपरिपक्व नेतृत्व के हाथ

अधःपतन के मार्ग से फिसलते हुए एक ऐसी दलदल में जा फंसा है जहां दबे दबे पनपते रहे महारोग पार्टी की संपूर्ण काया को संदिग्ध रूप से संडांध में परिवर्तित करते रहे हैं।

– डॉ डी पी शर्मा  – 

यूं तो कांग्रेस का गठन सन 1885 में एओ ह्यूम के नेतृत्व में इस उद्देश्य से किया था कि यदि अंग्रेज शासकों द्वारा भारत को मजबूरन छोड़कर भागना पड़ा तो वे भारत की सत्ता किसके हाथ सौंपकर जायेंगे। भारतीय स्थानीय शासकों के हाथ? अंग्रेजी अंग्रेज शासकों के हाथ? या फिर शंकरित श्रेणी के भारतीय अंग्रेज शासकों के हाथ ? इस संपूर्ण परियोजना की योजना बनाने का नेतृत्व अंग्रेज एओ ह्यूम को इसलिए सौंपा गया ताकि वे अंग्रेजी शासन के अलोकप्रिय कानूनों को नवीन पैकेज में तर्कों, कुतर्कों, वितर्कों एवम सतर्कों के माध्यम से पुनः स्थापित कर सकें, भारतीय जनता पर थोप सकें। यह सारा षड्यंत्र अंग्रेजी शासन के ‘हार्ड’ मॉडल को भारतीय परिष्कृत ‘सॉफ्ट’ मॉडल के डिब्बे में पेश कर अंग्रेजों की सरकार को नये कलेवर में पुनर्स्थापित करना था, न कि भारत को आजाद करना और नतीजतन भारत आज तक गुलाम ही बना रहा। जो भारतीय मानसिकता के क्रांतिकारी या स्वतंत्रता सेनानी थे उनको इस बात का बखूबी अहसास था कि अंग्रेज यह धोखा भारत के साथ क्यों कर रहे हैं मगर आपसी फूट और स्वतंत्रता संघर्ष के और लंबा खिंचने की आशंका के कारण उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया । शायद सोचा होगा कि अंग्रेज जब चले जाएंगे तो आपस में बैठकर इन काले कानूनों और गुलामी के प्रतीक चिन्हों को भी भारतीय जरूरतों के मुताबिक बदल लिया जाएगा। मगर आजादी के 70 सालों तक ऐसा हो ना सका ‌। ज्ञात रहे कि इससे पहले सुभाष चंद्र बॉस ने तो इंडियन नेशनल आर्मी एवम भारतीय राष्ट्रीय सरकार की स्थापना कर विदेशी धरती से ही स्वतंत्र भारत की सरकार और मुद्रा बैंक का पहले ही एलान कर दिया था। यह भी सच है कि अंग्रेज भारत छोड़ना नहीं चाहते थे मगर हिटलर ने द्वितीय विश्व युद्ध में इंग्लैंड को तबाह कर दिया था और इसका फायदा उठाकर सुभाष चंद्र बोस ने स्वतंत्र भारत की सरकार का गठन भी कर लिया था जिसको 11 देशों ने मान्यता भी दे दी थी । परंतु सत्ता के लोलुप पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके कुछ समर्थकों ने गुपचुप अंग्रेजों से सांठगांठ कर  महात्मा गांधी को समझा लिया के सुभाष चंद्र बोस को सत्ता के रास्ते से हटाना ही होगा। नतीजतन स्वतंत्र भारत में नई सरकार का गठन और सुभाष चंद्र बोस के लिए एक विशेष संदिग्ध सजा का समझौता अंग्रेजों के साथ कर लिया। चूंकि बॉस गरम दल के थे इसलिए उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों का साथ न दे कर एडोल्फ हिटलर का साथ दिया था और वे अंग्रेजों की इच्छा के विरुद्ध भारत को पूर्ण स्वतंत्र देखना चाहते थे। उन्होंने जो सरकार बनाई वह भी अंग्रेजी हुकूमत की पिछलग्गू कांग्रेस पार्टी को स्वीकार नहीं थी विशेष रूप से उसके कुछ नेताओं को जो कि स्वार्थी और सत्ता के महत्वाकांक्षी थे। अंततः कांग्रेस ने षड्यंत्र के तहत जो अंग्रेजों के साथ समझौता किया उसके दो पहलू थे। पहला देश की स्वतंत्रता और दूसरा सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी की तबाही। अंततः देश जिस स्वरुप में आजाद हुआ उसमें संघर्ष दो रसिक नेताओं के बीच था जिनके नाम थे पंडित जवाहरलाल नेहरू एवं मोहम्मद अली जिन्ना। संघर्ष इस बात का था कि देश का प्रधानमंत्री कौन होगा । तर्क यह दिया गया कि जब भारत अंग्रेजों ने मुसलमान शासकों से अपने हाथ में लिया तो उसकी बागडोर भी मुस्लिम शासक के हाथ ही सौंपी जानी चाहिए। जब देश का विभाजन हो गया और पाकिस्तान अलग हो गया तब अधिकांश यानी 90% से अधिक कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य सरदार वल्लभ भाई पटेल के समर्थन में वोट देकर यह प्रतिबद्धता व्यक्त कर चुके थे कि वे ही भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे परंतु पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी सोच और स्वार्थपरता को अधिक महत्व दिया। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन भी यही चाहते थे क्योंकि सरदार बल्लभ भाई पटेल विशुद्ध देशी आदमी थे और वह लंबे समय तक भारतीय जमीन पर अंग्रेजी शासन और उसके कानूनों के मॉडल को चलते देखना नहीं चाहते थे । पंडित जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी के अधिक करीब थे ‌ साथ ही वे शरीर एवं नागरिकता के आधार पर तो भारतीय थे परंतु उनके चरित्र और क्रियाकलाप किसी भी दृष्टि से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से मेल नहीं खाते थे। ये वही चरित्र थे जो किसी व्यक्ति को सार्वजनिक जीवन में चरित्रवानता की विशिष्ट सीढ़ी से घसीट कर जमीन पर ला देते हैं। आखिर उनकी रूठा रूठी और महात्मा गांधी की विशेष मोहब्बत के साथ-साथ लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा तत्कालीन वायसराय के रूप में अंग्रेजी हुकूमत के मॉडल को भारत के अर्थात आज स्वतंत्र भारत के भविष्य पर थोप दिया गया । बात यहीं खत्म नहीं हुई वल्कि धार्मिक अंधता के लिए प्रसिद्ध एवं सत्ता लोलुपता के लिए नेहरू के प्रतिद्वंदी मोहम्मद अली जिन्ना ने अपना जो चरित्र दिखाया उससे उस वक्त हिंदू मुस्लिम एकता का विध्वंस ही नहीं हुआ वल्कि मानवता शर्मसार हुई। लाखों लोग बेघर हुए और मौत के घाट उतार दिए गए। आखिर देश को क्या मिला सिर्फ एक ऐसा प्रधानमंत्री जो अल्पमत के आधार पर बना हो । और एक ऐसा देश जो अभी भारत राष्ट्र के रूप में पूर्ण स्वतंत्र न हो कर भारत राज्य के रूप में अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ हो चाहे आंशिक ही क्यों ना हो । उसमें भी जिन लोगों को संविधान बनाने का जिम्मा सौंपा गया था वे भी पूरी तरीके से भारतीय नहीं थे और उन्होंने भारत के लोकतंत्र को एक ऐसा भानुमती का पटेरा बना डाला जो ना तो भारतीय था और ना ही अंग्रेजी । भानुमति के पटेरे की तरह जोड़ तोड़ के कागजों से  बना संविधान भारत में सन 1950 में लागू तो हो गया परंतु तब से आज तक अनेकों संशोधन, अनेकों समस्या, अनेकों अनसुलझे प्रश्न और अतार्किक कानून प्रावधान आज भी इसे अपरिपक्व बनाये हुए हैं।
आखिर सत्ता अंग्रेजों की छाया में लोकतांत्रिक पद्धति से भारतीय शासकों के हाथ में आ गई और आई भी तो भारत के दो टुकड़े होने के बाद । एक टुकड़ा जिन्ना के हिस्से में गया और दूसरा टुकड़ा नेहरू के हाथ। उस समय मोहम्मद अली जिन्ना तो अपनी खानदानी राजशाही सत्ता पाकिस्तान में स्थापित ना कर सके परंतु चतुराई से भी चतुर पंडित नेहरू हिंदुस्तान में वंशवाद के कलेवर में लोकतांत्रिक पद्धति से राजशाही स्थापित करने में सफल हुए।
पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद सत्ता नेहरू खानदान के हाथ से फिसली और लाल बहादुर शास्त्री के हाथों गैर नेहरू खानदान के हाथ में चली गई परंतु यह लंबे समय तक चलने वाला स्थाई हस्तांतरण नहीं था। और अंततः पंडित नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी अपने एजेंडे के तहत लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद भारत की  प्रधानमंत्री बन गयीं। लाल बहादुर शास्त्री विदेशी जमीन पर अपनी समाधि ले गए या उन्हें समाधि दिला दी गई यह बहस और अन्वेषण का विषय है।
अब क्या था श्रीमती इंदिरा गांधी ने जो विरासत में सीखा, आत्मसात किया उसको शक्ति से भारतीय लोकतंत्र और उसकी जनता के ऊपर थोप दिया गया। एक बार तो यहां तक स्थितियां बन गई कि देश में आपातकाल लगाना पड़ा। लोकतांत्रिक पद्धति का चीर हरण कर लिया गया। बंदूक और ताकत के दम पर लोकतंत्र की पैरोकारी करने वाले नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया। परंतु यह स्थिति देश में सत्ता परिवर्तन तो लाई जयप्रकाश नारायण या मोरारजी देसाई के नेतृत्व में ही सही परंतु एक अस्थाई सरकार ही दे सकी जिसे प्रथम लोकतांत्रिक सरकार कहा जा सकता है । असफल गठबंधन हुए और देश के लोकतांत्रिक मंच पर मोरारजी देसाई, गुलजारी लाल नंदा, चौधरी चरण सिंह विश्वनाथ प्रताप सिंह, हरदनहल्ली देवगौड़ा, आई के गुजराल, चंद्रशेखर आजाद जैसे कई नेता देश के प्रधानमंत्री बने जो गैर कांग्रेसी परिवारवादी राजशाही से परे लोकतंत्र में कुछ हद तक सफल हुए। इन सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल बिखरे हुए थे । सिर्फ अटल बिहारी वाजपेई  13 दिन की सरकार के बाद 5 साल की सरकार को पूरा कर सके।
एक दौर ऐसा भी आया जब बिना किसी अनुभव के एक पायलट को देश का प्रधानमंत्री बना दिया गया उसने पूरे 5 साल देश का नेतृत्व किया और उसके असामयिक देहावसान के बाद कांग्रेसी परंतु गैर नेहरू गांधी परिवार का व्यक्ति प्रधानमंत्री बना और वह थै पीवी नरसिंह राव। उनके विवादित कार्य और कांग्रेस पार्टी और सरकार के बीच टकराव जगजाहिर रहे । उस वक्त कांग्रेस पार्टी सीताराम केसरी के नेतृत्व में अनेक फाड़ में परिवर्तित हो गई यथा टीएमसी कांग्रेस, अर्जुन सिंह कांग्रेस, शरद पवार कांग्रेस एवं अन्यथा कांग्रेस।
यह वह दौर था जब कांग्रेस अपने अधपतन के शिखर पर थी परंतु देश की मानसिकता और गुलामी का जहर धमनियों में इस कदर भरा हुआ था कि उन्होंने एक विशुद्ध भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को मात्र 13 दिन में सत्ता से बेदखल कर दिया और मध्यावधि चुनाव हुए। नतीजतन अधपतन के मार्ग से फिसलती हुई कांग्रेस एक बार फिर डूब गई और देश के प्रधानमंत्री के रूप में भारतीय जनता पार्टी के अटल बिहारी वाजपेई देश के ऐसे प्रधानमंत्री बने जो पूरे 5 साल गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा कर सके।
देश की धमनियों में भरा हुआ गुलामी की मानसिकता का रक्त पुनः कुलांचे मारने लगा और 5 साल के सफल कार्यकाल के बाद भारतीय जनता पार्टी बहुमत खोकर सत्ता से बाहर हो गई । कांग्रेस दो कार्यकाल के लिए सत्ता में तो आई परंतु परिवारवाद और गुलामबाद के दंश में एक ऐसा प्रधानमंत्री भारत को दी गई जो “मन से काम तो करता था लेकिन मौन रहकर करता था”! एक ऐसा प्रधानमंत्री जो कठपुतली की तरह एक फिरंगी अध्यक्षा और उसके महत्वाकांक्षी बेटे के हाथों दौड़ते, हांफते, लड़खड़ाते 10 साल तक इस देश की छाती पर प्रधानमंत्री बन कर बैठा रहा। इतने घोटाले हुए कि लोग गर्दन तक घोटालों में डूबे ही नहीं वल्कि घुटने तक धंस गए थे। अनेक ऐसे सीमा समझौते हुए देश में जो अब तक कभी नहीं हुए। आतंकवाद ने भी पैर पसार लिए थे जिनका जिक्र करना ही अत्यंत शर्मनाक है।
एक बार पुनः देश के लोकतंत्र और जनता की मानसिकता ने पलटते हुए भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी को देश की सत्ता सौंप दी। अपनी कार्यकुशलता, देश के प्रति समर्पण, जनता के प्रति भाव, ईमानदारी और अपनी कर्मठ क्षमता के कारण देश का यह प्रधानमंत्री अनेकों ऐसे अनसुलझे कार्यों को सुलझाने में सफल रहा जो अब तक देश की दहलीज पर असंभव कहे जाते थे। जब भी कोई उन्हें हल करने की कोशिश करता तो पड़ोसी राष्ट्र, विदेश नीति एवं आंतरिक अंतर्विरोध उसे ऐसा करने से न केवल रोकते थे वल्कि उसको सत्ता से बेदखल करने का डर भी दिखाते थे।
5 साल पूरा कार्यकाल करने के बाद पुनः सत्ता में लौटे नरेंद्र मोदी ने एक झटके से कश्मीर की धारा 370 खत्म करते हुए 3 केंद्र शासित प्रदेशों में जम्मू एंड कश्मीर को विभाजित कर दिया। ना बंदूक चली ना बम, लोकतांत्रिक पद्धति का एक ऐसा फार्मूला स्थापित किया कि न्यायपालिका ने भी राम मंदिर का लटका हुआ दशकों पुराना मामला एक झटके में खत्म कर दिया।  पाकिस्तान की आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं वल्कि कूटनीतिक दृष्टि से भी कमर तोड़ दी गई । यहां तक कि चीन जो स्वयं को अत्यंत ही शक्तिशाली देश समझता था और किसने भारत की जमीन को भी हड़प लिया था उसको भी चुनौतियां दी गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेकों ऐसे कीर्तमान स्थापित किए गए कि पहली बार ऐसा लगा कि देश भारतीय संस्कृति, संस्कार और शिक्षा वाले विशुद्ध भारतीय प्रधानमंत्री के हाथ में है । आज हम यह देख रहे हैं कि कांग्रेस लोकतांत्रिक तरीके से परे अनेकों स्टंट अपनाते हुए सत्तासीन देश के प्रधानमंत्री पर न केवल झूठे आरोप लगाती है वल्कि ऐसे कार्य भी करती है जो कि न संवैधानिक है और ना ही लोकतांत्रिक । परंतु फिर भी देश चल रहा है, देश दौड़ रहा है, देश प्रगति कर रहा है, और अनेकों चुनौतियां जैसे कोरोना काल में भी देश आगे बढ़ रहा है।

देश सुचारू रूप से चल रहा है, दौड़ रहा है मगर एक राजसी ठाठ वाली पार्टी के राजशाही सदस्य एक दूसरे को पार्टी की कमान सौंपकर लोकतांत्रिक पद्धति की खिल्ली उड़ा रहे हैं। ऐसा लगता है कि यह लोकतांत्रिक पार्टी ना होकर किसी खानदान की कंपनी है जिसका नाम है कांग्रेस। कांग्रेस का युवराज नित नए शिगूफे छोड़कर मस्खरे अंदाज में देश के लोकतंत्र को शायद गाली देकर भी सत्ता में आना चाहता है।
जहां पूरे देश में कांग्रेस का शासन हुआ करता था आज सिमटकर कुछ राज्यों में सिर्फ कसम खाने के लिए रह गया है। जिस पार्टी की लोकसभा में तूती बोलती थी वह पार्टी अपने राष्ट्रीय पार्टी होने के गौरव को खोने से बचाने के लिए एड़ी चोटी का प्रयत्न कर रही है। जिस सीट पर कभी कोई कांग्रेसी हारा नहीं उस पर उस पार्टी का युवराज लोकतंत्र की दहलीज पर घुटने टेक देता है और हार कर दक्षिण भारत भाग जाता है। जिस पार्टी में बड़े-बड़े दिग्गज नेता अपने सुझाव देकर पार्टी को नई दिशा प्रदान करने की कोशिश किया करते थे वे सभी आज मौन व्रत धारण किए हुए हैं । शायद वे सोच रहे होंगे कि-
घिरी है आज तूफानों में इस कांग्रेस की कश्ती,
इसे मिलता है जाकर कब किनारा देखना यह है।

 
About the Author
Prof.(Dr.) DP Sharma
International consultant/adviser (IT), ILO (United Nations)-Geneva

PhD [Intranet-wares], M.Tech [IT], MCA, B.Sc, DB2 &WSAD-IBM USA, FFSFE-Germany, FIACSIT- Singapore , AMIT, AMU MOE FDRE under UNDP and Ex. Academic  Faculty Ambassador for Cloud Computing Offering (AI), IBM-USA ,  External Consultant & Adviser (IT), ILO [ An autonomous Agency of United Nations]- Geneva

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