आशा पाण्डेय ओझा की कविताएँ

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आशा पाण्डेय ओझा की कविताएँ

1 वो तिलचट्टे

मैं उसें जानती नहीं
उससें मुहब्बत भी नहीं करती
न ही पसंद भी
नापसंद भी नहीं करती
नापसंद उसें किया जाता है
जो कभी पसंद आया हो
जिससें कभी कोई
वास्ता ही ना रहा
ना तन का,,ना मन का
ना जीवन का
किसी बस स्टॉप ,रेल्वे स्टेशन ,
बाजार, राह चलते शहर,
ऑफिस या कॉलेज
नरेगा हो या फेमिन
बार-बार उसकी आँखें
अंधेरे में, गर्म स्थान खोजती हुई
तिलचट्टों सी रेंगती जब मुझ पर
या जानबूझकर बेवजह
छूने का करती यत्न
भोजन ढूंढती फिरती तिलचट्टे के
एक जोड़ी संवेदी श्रृंगिकाएँ  सी
वासना के कीच से लिपटी
उसकी गंदी उँगलियाँ मुझे
तब मैं खूबसूरत नहीं लगती खुद को
बल्कि लगता है
गंदी चिकनाई सी कुछ काइयां
उतर आई हों जैसे
मेरे जिस्म के चारों ओर
या कंही से कुछ उघड़ा छुट गया
मेरे बदन का बर्तन
यही सोचकर
बचा-बचा कर सबसें  नजर
जांचती हूँ अपने अंगों को कई-कई बार
सब कुछ ठीक होने की
तसल्ली के बावजूद
लगता है कुछ गड्ढे से हो आये हों
ज्यों मेरी  देह पर
उसकी घिनोनी पैनी नजर से
और तब अचानक
मेरे बदसूरत हो जाने का अहसास
होने लगता मुझे
बड़ी सिद्दत से
मेरा रूप-रंग लगने लगता
बैरी मुझे
मिचलाने लगता मन
जी करता है
अपने पैरों तले कुचल दूँ
उसकी उँगलियों के श्वासरंध्र
जो छु कर देह
छिलते हैं मेरी आत्मा
और तब
जाने कहाँ गुम हो जाते हैं
यकायक
मेरे अंदर के नारी वाले कोमल भाव
तुम अक्सर जिसें कहा करते हो
चंडी, दुर्गा या कि
चाहे फूलन ही सही
हाँ वैसा ही कुछ -कुछ
होने लगता है आभास
टूट कर मेरी सहन शक्ति
देने लगती जबाब
हाँ तब मैं पीटती हूँ उसें
फिर जानवरों की तरह
खो कर अपना आपा
कभी-कभी बीच बाजार
तय किया है मैंने
अब मैं नहीं करुँगी
घबराकर आत्म-हत्या
नहीं बैठूंगी चुप
अब दूँगी पलट कर जवाब
सुनो तिलचट्टों!
जिस दिन छूओगे हमारी इज्ज़त
जोखिम में होगी तुम्हारी भी जान
विचार लेना तुम

 2 लड़की का पिता

अलसुबह उठ
धो चिंता से चेहरा
आँखों पर चढ़ा तलाश का चश्मा
माथे पर धर अपनी आबरू,
माथे की पाग
कृत्रिम मुस्कान से दबाता
चेहरे पर उभर आई दर्द की दरारें
पहन कर फ़िक्र की मजबूत जूतियाँ
निकल पड़ता बेटी का बाप
तर-तर ताड़ सी बिन उम्र बड़ी हुई
या बरसों से चल रही
उपयुक्त साथी की तलाश में
दिन-दिन अधपक्की
अपनी बेटियों की खातिर वर ढूँढने
भरी सर्दी में भीग जाता कभी पसीने से
कभी भर गर्मी ठिठुर जाते उसके हाथ-पांव
बर्फ की शिलाओं पर रखी लाश सा
अकड़ जाता उसका वजूद जब लौटता वह
हर शाम खाली हाथ,उदास.निराश,हताश
यह संत्रास समझ सकता है
सिर्फ़ और सिर्फ़ बेटी का बाप
यह सब क्यूं और कैसे ?
नहीं मैं यह नहीं कहती
कि बेटी का जन्मना बुरा है ,
ना ही आशुभ ही मानती उन्हें,
न तो वे कड़वी,न ही बोझ,
बेटियां तो जीवन दात्री हैं ,
सरस सलिला हैं
आँख की पुतलियाँ,
काळजे की कोर है बेटियां
आनंद प्रवाहिनी होती है उनकी हसीं
मंगलमयी होता उनका मुख
जुगनू सी जुगजुगाती
उनकी हंसती हुई आँखें
कुमुद्नियों भरे पोखर सी
खूबसूरत लगती उनकी छब
गुलाबों भरे उपवन में
उड़ती तितलियों सरीखी लगती
उनकी फुदकती चाल
अपनी छुअन मात्र  से
भर देते
जड़ता में चेतना
ताजा खिले सुमनों से
उनके कोमल हाथ
पर बेटी के मां-बाप के लिए
जाने क्यों
खींचती नियति
पग -पग पर चिंता की रेखाएं
हर सांस पर उपजाती
डर का जंगल
प्रत्येक दृष्टि पर घेरता
असुरक्षा का भय
आशंकाओं का पिशाचिक रूप
हावी रहता मन मस्तिष्क पर
तिस पर न हो जब वो
रूपवती रंगवती, या हो कम पढ़ी-लिखी
या फिर बेटे के चाहना में हर बार
जन्म जाये ग़रीब बाप के यहाँ
एक-एक करती पांच छह या सात,
झूंड बनती बेटियां
कितना दुष्कर है
उनके लिए वर तलाशना
समझ पा रहे हो न तुम !
जब हर तरह से सक्षम हो दूल्हा
तब मांगी जाती
उनके साथ अखूट दौलत की पोटली
उस घर की बहू बनाये जाने के एवज में
या कंही उससें दुगनी उम्र का दूजवर
अपने साथ अपने दो चार बच्चों को
अपनाने के बदले में
सशर्तिया करना चाहता उसें अंगीकार
कभी तलाकशुदा वर के लिए
दूर की भूआएं मौसियाँ चाचियाँ ताइयां
तरस खा बड़े आपनेपन आत्मीयता से
सुझाती सुझाव
कहीं बड़ी उम्र के
निक्कमे निट्ठल्ले बेटे के लिए
घर भर के काम काज निपाटने की आस में
मिलती स्वीकारोक्ति
उस ग़रीब बाप पर तरश खाने के ढोंग के साथ
बदले में जिससें की जाती हैं उम्मीद
तमाम उम्र अपने ही ससुराल में
बनी रहे आया क़िस्म की
सुशील समझदार मूक बघिर बहू
कहीं बरसों ईलाज के बावजूद
कभी बच्चे पैदा न कर पाने के लिए
अनेकानेक चिकित्सकों द्वारा
अयोग्य घोषित किये गए
रईस बीमार नपुंसक नामर्द बेटे के लिए
दौलत के रेशमी गिलाफ़ में
बड़े सलीके से छुपाते हुवे उसके ऐब
बेझिझक व बेशर्माई से
मांग लेते हैं लड़के के रिश्तेदार
एक ग़रीब मजबूर बेबश लड़की का हाथ
दिखाते हुवे उसके मात-पिता पर
अथाह अनन्य दयाभाव
तब उपयुक्त वर की तलाश में निकला बाप
कितनी मौतें मरता है एक ही जिन्दगी में
कभी विचार पाए तुम
कितनी कितनी बार पीता
खून के घूँट कभी सोचा तुमने
कितने कदमो में कितनी बार गिरती
सम्मान की सूचक उसके माथे की पाग
कितना जलील होता
वो कितने ही लड़के वालों के घर
शायद अनुमान भी न हो तुम्हे
ओह यह क्या !क्यूं भूल रहे हैं हम !
वर यानि बेटा,बेटा यानि गरूर ,
बेटा यानि घोर निक्कमेपन आवारगी
तमाम कमजोरियों कमियों
असफलताओं के बावजूद
बैठे बिठाये
अथाह दौलत अर्जित करने का संयत्र
बेटा याने समाज,दुनिया में मान सम्मान
ख़ुशी हंसी बटोर लेने का लायसेंस
जबकि बेटी के मां बाप उसके  जन्म की
आंतरिक ख़ुशी के साथ पीने लगते
सामाजिक उपेक्षाओं प्रताडनाओं उलहानों का
कड़वा सा बाह्य परिताप
घोंटने लगते खुद की
हर छोटी-छोटी जरूरत व ख़ुशी का गला
ताकि जी सके बेटी ढकी ओढी पहनी
इज्ज़त आबरू मर्यदा के साथ
बावजूद इन सबके
हर पग पर खड़े मिलते
दुश्चेष्टाओं के दुर्योधन
जो कभी अपनी तीखी आँखों से छिलते
उनकी आबरू के परिवेष्टन
कभी अपनी ताक़त व पौरूष के
गरूर में अंधे दुर्योधन
जोर जबरदस्ती बनाते
इन मासूमों को
हर गली,नुक्कड़,शहर,देश
अपनी हवस का शिकार
पोसता जिन्हें हमारा समाज
हमारा धर्म हमारा न्याय
समाज रूपी अँधा कोरव
जिसके अंधेपन को स्वीकारती हुई
धर्म की गांधारी भी
बाँध लेती है अपनी आँखों पर पट्टी
समाज व धर्म का पक्षधर न्याय
भीष्म सा करता आचरण
लड़के-लड़कियों के बीच
समाज का दोगला व्यवहार
थमा देता लड़की को कभी
कभी उनके मां बाप को,
कभी -कभी सामूहिक तौर पर
फांसी का फंदा ,या जहर की पुड़िया
नदी तालाब कुंवे बावड़ी झील
ले लेते हैं उन्हें अपनी आगोश में
जिसके बाद अखबारों में
बड़ी-बड़ी हेडलाइन के साथ
सुर्ख़ियों में होती है
उनकी आत्महत्या खबरें
फलां परिवार ने शाम खाने में
मिलाया ज़हर,की आत्महत्या
सरकारी कारिंदे देते
महज अपनी ड्यूटी को अंजाम
सभ्य समाज के सभ्य पड़ोसी
घड़ियाली आंसूं बहाते
निभाते अपना कर्तव्य,
देकर उस पीड़ित परिवार के प्रति
पुलिस को छोटा सा हकलाता बयान
कुछ माह,सालों की जांच के बाद
बंद हो जाती फाईलें
युग बदला पर नहीं बदला समाज
नहीं बदले लोग,उनकी सोच
तब लड़की का होना अखरता है
तब लड़की होना भी अखरता है

3 ऐसा सुना है मैंने

बर्फ़ हुए लम्हों को
फिर पिघलाने लगी
तेरे ख़यालों की धूप
डर है मुझे
कंही फिर ना बह पड़े
ख्वाहिशों की वो नदी
जो इक दिन गुम हो गई थी
जुदाई के सहरा में
गर ऐसा हुआ तो
दर्द की वो सारी चट्टानें
फिर निकल आएंगी बाहर
जो दबी है तो अभी तो
रिश्तों की मखमली रेत में
वर्तमान की रेत से निकली
अतीत की चट्टानें
पथरीला बना देती है
जीवन पथ
ऐसा सुना है मैंने

4अश्कों की उँगलियाँ

स्मृतियों के
कंठ से
जब भी
ज़िन्दगीजब भी
गुनगुनाती है
तेरा नाम
पलकों की सितार पर
खुद बी खुद
थिरक उठती है
अश्कों की उँगलियाँ

  5तीनों

मुहब्बत
दीप शिखा
और
नदी का प्रवाह
तीनो में
कितनी  है समानता
जब तक
मिट न जाये अस्तित्व
थमने का
नाम नहीं लेती
तीनों

6अपने मरने के बाद

किसी को
दान में दे जाना चाहती थी
मैं अपनी आँखें
ताकि मेरे मरने के बाद भी
देख सके
इस खूबसूरत जहान को
ये मेरी आँखे
पर अब नहीं देना चाहती
किसी को
किसी भी क़ीमत पर
मैं अपनी आँखें
यह बहता लहू
ये सुलगते मंजर
मेरे मरने के बाद भी
क्यों देखे
बेचारी मेरी आँखें

7 उबाल बहाव लेता है

जोश उमंग तरंग
मुट्ठी में बंद सपने
कुछ अपनी आंखों के
कुछ अपनों की आँखों के
कंधे  झूलते बेग में  समेटे
मोटी-मोटी डिग्रियों के ढेर पुलिंदे
बढ़ा रहा जिन्दगी की उस राह पर
हौसलों  के चुस्त क़दम से
देश का युवा
जिस तरफ़ बनता है
उसके सपनों से
देश का भविष्य
तब अचानक लगती हैं
हर क़दम पर ठोकरें
वो ठोकरें जो संभलने नहीं देती
लगने के बाद
हमारी
लचर व्यवस्था के आँगन में जमीं
भ्रष्टाचार की काइयां
फिसलाकर गिरा  देतीं उसें
उठाने की बजाय
उस गिरे हुवे को
जोर से दबाते है नीचे की ओर
राजनीति के पाँव
कभी धकेल देती नीचे
प्रतिस्पर्धा की ऊँची-ऊँची चट्टाने
भीड़  भरी
ऊँची-ऊँची सीढियों से
लुड़कते  अरमान
कशमकश के हालात
क्षण-क्षण टूट रहा है युवा
उसकी टूटन से पैदा होता
क्षोब ,उदासीनता,विद्रोह का ज्वार
और हाँ इसी से  तो पैदा होते हैं
देश में मार काट प्रतिशोध  के हालत
क्या करे युवा
उसके खून में उबाल है
उबाल बहाव लेता है
जब नहीं मिलती सही राहें
तो गलत पर बहता निकलता है  उबाल
कभी पढ़ी है तुमने
युवा चेहरे की नाउमीदी
मैंने पढ़ी
मैंने देखी मैंने जी
संदेह के घेरे में खड़ा वह
पूछता है खुद ही से
बार बार यह प्रश्न
कहाँ कमी रही उसकी मेहनत  में
बिखरे सपने
मरी उमंगें तरंगे
टूट-टूट कर गिरता
देश का आधार स्तम्भ
कभी मिट्टी  में मिल जाता खुद
कभी देश को मिला देता मिट्टी में

invc-newsaasha-pandey-ojhaपरिचय – :
आशा पाण्डे ओझा
कवयित्री , लेखिका ,समाज सेविका 

शिक्षा :एम .ए (हिंदी साहित्य )एल एल .बी,जय नारायण व्यास विश्व विद्यालया ,जोधपुर (राज .)
हिंदी कथा आलोचना में नवल किशोरे का  योगदान में शोधरत

प्रकाशित कृतियां 
1. दो बूंद समुद्र के नाम 2. एक  कोशिश रोशनी की ओर (काव्य ) 3. त्रिसुगंधि (सम्पादन ) 4 ज़र्रे-ज़र्रे में वो है
शीघ्र प्रकाश्य
1.  वजूद की तलाश (संपादन ) 2. वक्त की शाख से ( काव्य ) 3. पांखी (हाइकु  संग्रह )
देश की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं व इ पत्रिकाओं  में कविताएं ,मुक्तक ,ग़ज़ल ,,क़तआत ,दोहा,हाइकु,कहानी , व्यंग समीक्षा ,आलेख ,निंबंध ,शोधपत्र निरंतर प्रकाशित

सम्मान -पुरस्कार
कवि  तेज पुरस्कार जैसलमेर ,राजकुमारी  रत्नावती पुरस्कार  जैसलमेर,महाराजा कृष्णचन्द्र जैन स्मृति सम्मान एवं पुरस्कार पूर्वोत्तर हिंदी
अकादमी शिलांग (मेघालय ) साहित्य साधना समिति पाली एवं  राजस्थान साहित्यअकादमी उदयपुर द्वारा अभिनंदन ,वीर दुर्गादास राठौड़ साहित्य सम्मान जोधपुर ,पांचवे अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन ताशकंद में सहभागिता एवं सृजन श्री सम्मान ,प्रेस मित्र क्लब बीकानेर राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,मारवाड़ी युवा मंच श्रीगंगानगर राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,साहित्य श्री सम्मान संत कवि सुंदरदास राष्ट्रीय सम्मान समारोह समिति  भीलवाड़ा राजस्थान ,सरस्वती सिंह स्मृति सम्मान पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग मेघालय ,अंतराष्ट्रीय साहित्यकला मंच मुरादाबाद के सत्ताईसवें अंतराष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन काठमांडू नेपाल में सहभागिता एवं हरिशंकर पाण्डेय साहित्य भूषण सम्मान ,राजस्थान साहित्यकार परिषद कांकरोली राजस्थान  द्वारा अभिनंदन ,श्री नर्मदेश्वर सन्यास आश्रम परमार्थ ट्रस्ट एवं सर्व धर्म मैत्री संघ अजमेर राजस्थान के संयुक्त तत्वावधान में अभी अभिनंदन ,राष्ट्रीय साहित्य कला एवं संस्कृति परिषद् हल्दीघाटी द्वारा काव्य शिरोमणि सम्मान ,राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर एवं साहित्य साधना समिति पाली राजस्थान   द्वारा पुन: सितम्बर २०१३ में अभिनंदन

सम्पर्क – :
आशा पाण्डेय ओझा , c/o जितेन्द्र पाण्डेय ,उपजिला कलक्टर , पिण्डवाडा 307022 , जिला सिरोही राजस्थान
फोन – : 07597199995 , 09772288424 /07597199995 , 09414495867
E mail – :  asha09.pandey@gmail.com

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