अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर विशेष लेख : संयुक्त परिवार के तानेबाने का मजबूत जोड़

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लेखक कल्याण शर्मा
लेखक कल्याण शर्मा

लेखक ” कल्याण शर्मा “
सूचना तकनीकी विशेषज्ञ

बुजुर्ग घर में उस वटवृक्ष की तरह होते हैं जिसकी छाँव में पूरा परिवार संस्कारित, संरक्षित, प्रसन्नचित्त और प्रगतिशील रहता आया है, मगर वैश्वीकरण की आबोहवा और बदलते मानवीय सरोकारों ने उसे आज ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां। पर ये सवाल उठता है कि पूरी दुनिया कहीं जीवन के हर पड़ाव पर एकांकीपन की गर्त में धंसती तो नहीं चली जा रही? हम कहीं परिवार की धुरी समझे जाने वाले अपने वृद्धजनों और उनके अनुभवों से कहीं जीवन के कठिनतम समयों में संबल देने की विधा रूपी उनके अनुभवों को विलुप्त तो नहीं करते जा रहे ? जिनके अनुभव, संबल और सांत्वना से जीवन के कठिन दौर में भी आसानी से पार पा लेते थे |

इस पूरे परिदृश्य का यदि बहुआयामी विश्लेषण करें तो लगता है कि आज तेजी से बदलते पारिवारिक , सामाजिक परिवेश, जीवनशैली व भौतिकवादी सोच ने भारतीय संस्कृति के आदर्शों को न केवल गहरी क्षति पहुंचाई है, बल्कि हजारों साल के मजबूत पारिवारिक ताने-बाने को विलुप्त होने के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां पर सामाजिक विसंगतियां और एकांकी पन आत्महत्याओं के बढ़ते आंकड़ों को दिखाकर भविष्य की एक नई भयावह तस्वीर देश कर रहा है। “वसुधैव कुटुम्बकम” जैसे उच्च आदर्श जिस संस्कृति में पले, बढ़ें व फले – फुले वहाँ “संयुक्त परिवार प्रणाली” को इस तरह की विनाशकारी कब्र पैर लटकाए देख हर किसी का मन उद्देलित हो उठता है |

आपाधापी पूर्ण सफलता, संपन्नता और शिखर को छूने की लालसा की धूल और धुंध में हम सामाजिक विपन्नता की ऐसी गर्त में धंसते चले जा रहे हैं जहां भौतिक सुख सुविधाएं तो हैं प्रगति की बड़ी कुर्सियां और वाहन के साथ-साथ बड़े बड़े दफ्तर भी मगर यदि कुछ नदारद है तो सुख शांति और अपनेपन के एहसास।भैतिक सुख सुविधाओं को पाने की कीमत पर हमने क्या कुछ खोया है इसका विश्लेषण हमें स्थिति की गंभीरता से रूबरू करवा देगा |

बुजुर्ग न केवल हमारी भावनाओ के कारण सम्माननीय हैं, बल्कि वे अनुभवों की धरोहर हैं, हमारे बच्चे को संस्कारवान बनाने की चलती फिरती पाठशाला हैं, मुश्किल घड़ी में हमारे पथ प्रदर्शक हैं।

तकनीकी ने जीवन को सरल व सुविधा सम्पन्न बनाया है इसमें कोई दो राय नहीं और यहाँ तक सब कुछ ठीक ठाक भी है, परंतु यदि तकनीकी हमारे बुजुर्गो के स्थान पर अतिक्रमण करने लग जाए तो यह ना तर्कसंगत है, ना न्याय संगत और ना ही सामाजिक संगत और धर्म संगत। ऐसी तकनीकी स्वीकार्यता ने, आज बच्चों को मनोरंजन के लिए दादा -दादी व नाना – नानी की कहानियों से दूर ही नहीं बल्कि मोबाइल गेम व कार्टून सीरियलों ने कुसंस्कारी और हिंसक होने के साथ-साथ मनोरोगी बना दिया है। बच्चो में संस्कारों की जगह हिंसक प्रवृतियां विकसित हो रही हैं, एकल परिवार आज हमारे रिश्तों को निगलते जा रहे हैं।

कुसंस्कारों की पराकाष्ठा तो उस समय हो जाती है जब हम देवतुल्य जन्मदात्री माता और पिता को अपने ही घर से बेदखल कर पालतू जानवरों के साथ घर में रहने को अपनी शान समझते हैं। उन्हें वृद्धाश्रमों में अपने जीवन के अंतिम समय को बिताना पड़ता है , वो भी उस समय जब उन्हें हमारी सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है।

अपनी बेबसी , शारीरिक व आर्थिक विवशता के चलते उन्हें जो दर्द और पीड़ा होती है उसे हमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक प्रशासनिक एवं कानूनी दृष्टिकोण से समझते हुए ऐसे सख्त नियम और कानून बनाने की आवश्यकता है कि मानव सभ्यता को जिंदगी के इस पड़ाव पर यह दुख दर्द का दंश न झेलना पड़े।हमें समझने की आवश्यकता है कि बूढ़ा वृक्ष फल नहीं दे सकता पर ठंडी छाँव तो देता ही है।

जिंदगी का यह कैसा तमाशा है जहां हम अपने वर्तमान को चमकाते हुए अपने रचनाकारों को दर्द और पीड़ा के समंदर में धकेल कर अपने स्वयं के भविष्य की नींव को अपने ही कुछ संस्कार होते हुए बच्चों के सामने पेश कर देते हैं। “एक रचनाकार ने क्या खूब कहा है कि, जब एक पोते ने अपने माता-पिता से उसकी दादी को यह कहते हुए सुन लिया कि हम पार्टी में जा रहे हैं, आप पास के मंदिर में शाम का भोजन कर लेना। तिस पर पोते ने अपने ही मां-बाप को जवाब दे दिया कि जब आप वृद्ध हो जाएंगे ना तो मैं अपना घर भी एक मंदिर के पास ही बनाऊंगा ताकि आप मेरी पार्टी के समय पर अपने बुरे वक्त में मंदिर में जाकर भोजन कर सकें। यह सत्य है कि नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है परंतु जीवन का दिखता हुआ सत्य है जो हम सब देख रहे हैं।

वृद्धावस्था जीवन चक्र का एक हिस्सा है, उम्र का एक दौर है यहाँ तक आते – आते व्यक्ति जीवन की हर बारीकियों से मुखातिब हो चुका होता है। जीवन के हर अनुभव, सुख दुःख का भान कर चुका होता है। जीवन के सार तत्वों के साथ-साथ वह स्मृतियों की अकूत सम्पत्ति का धनी होता है।

वृद्धावस्था एक अभिशाप नहीं वरदान है और इस अकूत सम्पदा को पाने और संरक्षित करने के लिए हमें संयुक्त परिवारों की महत्ता को समझते हुए सामाजिक जीवन की पुनर अभियांत्रिकी करनी ही होगी वरना हम मनोरोग की दुनियां के सबसे बड़े रचनाकार होंगे जिसमें लेखक स्वयं भी शामिल है। मां का आंचल और उसका स्नेह दुनिया की सबसे बड़ी पूंजी है और पिता का तो बरदहश्त एक खुले हुए आसमान की उड़ान का आशीर्वाद है।

यह कैसे हो सकता है कि हम इस दौलत और खुले आसमान को अपनी स्वार्थपरता और कुसंस्कारों की दुनियां में बारूद के ढेर पर बिठाकर माचिस के साथ घूमते चलें। आ अब लौट चलें भूमंडलीकृत अपसंस्कृति, प्रगति, विज्ञान और तकनीकी के विकास के साथ भी और विकास के बाद भी।

 



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