– प्रसून शुक्ला –
“आगे बढ़ो, हम भारत के लिए हैं और भारत भारतीयों के लिए है।”
मैडम भीकाजी रुस्तम कामा का यह नारा भारत की आजादी के लिए उनके जज्बे व जुनून को बयां करने के लिए काफी है। 1861 में मुंबई के धनी पारसी परिवार में जन्मी भीकाजी कामा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य केंद्र बिंदु और पहली महिला क्रांतिकारी थी। मैडम कामा स्वतंत्रता की पुजारिन रहीं। स्वभाव से वैश्विक बंधुत्व की पक्षधर रहीं मैडम कामा ने कहा कि राष्ट्रवाद से बढ़कर कुछ भी नहीं है। राष्ट्रवादी मैडम कामा अरविंद घोष की उस धारणा की समर्थक थीं, जिसमें घोष ने कहा था कि राष्ट्रवाद एक ‘नया धर्म’ है, जिसे न तो ब्रिटिश सरकार और न ही भारतीय राजनीतिक जीवन के पहले के उत्तराधिकारी ही दबा सकते हैं।
भीकाजी कामा की भारत के बारे में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समझ भारतीय राजनीति के पुरोधा रहे दादाभाई नौरोजी के निजी सचिव रहने के दौरान काफी बढ़ी। वैवाहिक जीवन को तिलांजलि देने वाली भीकाजी कामा का असली व्यक्तित्व तब निखरा, जब बीमारी के इलाज के लिए 1902 में वह लंदन गईं। लंदन में ही निडर भीकाजी कामा वीरता भाव के कारण क्रांतिकारी वी डी सावरकर और उनके सहयोगियों के साथ जुड़ती चली गईं। राष्ट्र के लिए संघर्ष में मैडम कामा कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी। इसीलिए भारत की आजादी को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए मैडम कामा ने भारत के राष्ट्रीय तत्वों की पहचान सुनिश्चित करने पर बल दिया। जिसके लिए भारत का राष्ट्रीय ध्वज सबसे ज्यादा जरुरी था। इसके लिए भीकाजी कामा ने विनायक दामोदर सावरकर और श्यामजी कृष्णवर्मा संग मिलकर भारत के पहले राष्ट्रीय ध्वज का पहला प्रारूप 1905 में तैयार कराया। जिसकी मान्यता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तब मिली, जब 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में हुई इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस की सातवीं अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में भारतीय ध्वज फहराते हुए मैडम भीकाजी कामा ने अंग्रेजों को खुली चुनौती दे डाली। विदेशी धरती पर भारत का ध्वज फहराने की यह घटना, विदेशों में रहने वाले आजादी के परवानों के लिए मैडम कामा का अनमोल तोहफा रहा। कमल, चांद और सूर्य के साथ तिरंगे के बीच में देवनागरी में वंदे मातरम् लिखा ये तिरंगा भारत के वर्तमान तिरंगे से अलग दिखता था। जो आज भी पुणे के एक लाइब्रेरी में रखा हुआ है।
1906 में अभिनव भारत संस्था का गठन वी डी सावरकर ने लंदन में किया। जो क्रांति के जरिए भारत की आजादी अंग्रेजों से छीन लेना चाहते थे। मैडम कामा भी सावरकर की इस बात से सहमत थीं कि हथियारबंद दुश्मन से लड़ाई हथियारों के सहारे ही की जा सकती है। इसीलिए मैडम कामा क्रांतिकारी साथियों के लिए मालवाहक जहाजों से जाने वाले खिलौनों में हथियार छिपाकर भी भेजती रहीं। कई बार ऐसे हथियार पकड़े भी गये। लेकिन फ्रांस की नागरिकता हासिल होने से भीकाजी कामा अकसर अंग्रेजी सरकार की कार्रवाई से बच जाती थीं। लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया जब यूरोप के सभी देशों की मिलीभगत से भीकाजी कामा को नजरबंद कर लिया गया, फिर भी आजादी के लड़ाई में मैडम कामा का मनोबल कभी भी कम नहीं हुआ।
1909 में जेनेवा से निकली वंदेमातरम् पत्रिका के प्रथम अंक में मैडम कामा ने शिक्षा, सशस्त्र संघर्ष और पुर्ननिर्माण के जरिए स्वतंत्रता का मार्ग सुझा दिया। इसी कारण देशवासी मैडम कामा को भारतीय क्रांति की माता भी कहने लगे। मैडम कामा की आजादी की ललकार इतनी तल्ख रही कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय देशों ने भीकाजी कामा को सालों तक नजरबंद रखा। लेकिन मैडम कामा की कोशिशों के चलते ही जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस और इंग्लैंड के सत्ताधारी वर्ग में भारत की आवाज एक राष्ट्र के तौर पर सुनी जाने लगी। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पक्षधर रहने वाला फ्रांस का प्रेस भी मैडम कामा के सूझबूझ का कायल था। जिसका उदाहरण फ्रांसीसी अखबारों में छपा कामा का वो चित्र था जिसे ‘जोन ऑफ आर्क’ के साथ छापा गया। जो मैडम कामा के तत्कालीन यूरोपीय लोकतांत्रिक समाज में अमिट छाप का परिचायक रहा। अंग्रेजों के खिलाफ भीकाजी कामा ने नारा दिया “आगे बढ़ो, हम भारत के लिए हैं और भारत भारतीयों के लिए है।”
1936 में मृत्यु से पहले मैडम कामा ने 1792 से चली आ रही उस धारणा को भी विदेशी भूमि पर ध्वस्त कर दिया, जिसे अंग्रेजी शिक्षा की अग्रिम भूमिका तैयार करने वाले चार्ल्स ग्रांट, जिन्हें आधुनिक शिक्षा का जन्मदाता भी कहते हैं, ने भारतीयों को नैतिक रूप से गिरा हुआ बताया था। अंग्रेजों की इस धारणा को चूर-चूर करने के लिए मैडम कामा अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैंड गईं। सामाजिक मूल्यों को आजादी की लड़ाई के साथ जोड़ने की भी कोशिश मैडम कामा करती रहीं। चार दशक तक विदेशी भूमि से भारत की आजादी के लिए तन-मन-धन राष्ट्र को सौंपने वाली मैडम कामा आज भी करोड़ों महिलाओं के लिए मिसाल हैं। मैडम कामा को सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए राष्ट्र के पुर्ननिर्माण में लगकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को राष्ट्रवाद की छांव तले बढ़ने पर बल देना होगा।
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प्रसून शुक्ला
वरिष्ठ पत्रकार व् लेखक
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लेखक वरिष्ठ पत्रकार है एवं पूर्व में ग्रुप एडिटर सहारा समय, सलाहकार संपादक ईटीवी, सीईओ और एडिटर इन चीफ न्यूज़ एक्सप्रेस,संपादक मैजिक टीवी के पद पर कार्यरत रहे चुके हैं।
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