अपर्णा बोस की कविताएँ

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अपर्णा बोस की कविताएँ

एक अद्भुत ख़याल

गर्मियों की इक अलसाई सी दोपहरी,
अचानक एक अद्भुत ख़याल आया।
लगा जैसे मैं अलाद्दीन बन जाऊँ,
और ऊपरवाला बोले , “क्या हुक्म है मेरे आका?”
अपनी ख़्वाहिशों का चिराग घिसकर,
जब चाहे उसे बुलाऊँ,
वो बोले क्या हुक्म है, और मैं माँगती जाऊँ।
बस यहीं आकर थम गया मेरे ख़्वाहिशों का काफिला,
आखिर माँगने की यही फितरत है बड़ी जानलेवा।
सपनों का क्या है, खुली आँखों में भी समां जाएँ,
आँखें तो उनका घर है,कभी  भी आ जाएँ।
डरते तो हम हैं उनहें आकार देने से
इसीलिये तो इंसान हैं,वर्ना हम भी भगवान होते।

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कुछ लोग मुहब्बत करना जानते हैं

कुछ लोग ऐसे होते हैं,
हर चीज़ में मौसिकी  ढूँढ़ लेते हैं।
हर दर्द उनके ज़हन को रुलाता है,
तूफ़ानी रात में बारिश का मज़ा लेते हैं।
प्यार में हार कर भी हँसते हैं,
आँसूं टपकते नहीं जब वो सिसकते हैं।
अँगारों पे बेझिझक चलते हैं,
कुछ लोग मुहब्बत करना जानते हैं……

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काले धुँए में हम तुम

निकली थी मैं अपने दिल को बहलाने
हल्की बारिश की बौछार में
मिट्‍टी की सौंधी खुश्बू लिये
सपनों की तश्तरी लिये
सोचा चलो तोड़ लाऊँ आज
थोड़ी सी चाँदनी अपने लिये
तुम्हारे लिये थोड़ा सा आसमान
और सजा लूँ अपना जहान
तारों से आच्छादित है धरा
टिमटिमाते जैसे अंगूर के गुच्छे
मन किया उन्हें भी तोड़ लाऊँ
मीठी नींद में सो जाऊँ
गगनचुंबी इमारतों की महफिल
शोर शराबा,कैसी भागदौड़
(पर ) बिजली के तारों में चाँद गुम
और काले धूएँ में हम तुम…..

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हमदर्द, हमराही और ?

एक वो चाँद है,जिसे देखकर
बच्चा चैन की नींद सो जाता है
अनपढ़ माँ भी लोरियां गुनगुना लेती  है
एक वो चांद है,जिसकी तुलना
प्रेमी अपनी प्रेमिका से करता है
प्रेमिका उसे पाने का ख़्वाब देखती है
एक वो चाँद है,जिसे देख
शायर शायरी में डूब जता है
ना जाने कितनी गज़लें लिख लेता है
एक वो चाँद है,जहाँ इंसान
पहुँचने का ख़्वाब देखता है
अपने कदमों के निशान बनाना चाहता है
एक वो चाँद है,जिसकी स्निग्ध रोशनी
बुढ़ापे का सहारा बन जाती है
उसकी मधुर छाया में माँ की लोरी याद आती है
एक ही है चाँद,मगर उसकी
प्रेरणायें अनेक हैं
हमदर्द,हमराही और ना जाने क्या- क्या नाम हैं!!

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उम्मीदों की बैसाखी
थकी हुई पलकें
बालिश ढूँढती हुई
पहुँच गयीं जब बिस्तर के पास,
दूर से कुछ टूटने की आवाज़
रात के सन्नाटे को चीरती हुई
आ गयी मेरे कमरे में।
और, कुछ गुपचुप हुई
उसके साथ आँखों की,
इशारों में बात करने लगे
शायद किसी सपने के बारे में।
आँखों को लगा कि
बेहतर होगा मैं सो जाऊँ,
क्योंकि सपने तो नींद में ही आते हैं।
वास्तविकता तो कुछ और ही है!
सपने सिर्फ आँख नहीं, दिल भी देखता है।
आवाज़ को इंतज़ार था
जो टूटा उसकी खबर पहुँचाने की
सो मैं भी लगी बदलने
करवटें झूठमूठ की ।
पलकें परेशान थीं,
आँखें हैरान,
क्योंकि आ गया था वो तन्हा
जिसका उनकी बातों में ज़िक्र था।
बुझा बुझा सा ताकता रहा,
एक टूटा हुआ सपना था मेरा।
मेरे सिरहाने बैठ माँगने लगा
मुझसे मेरे उम्मीदों की बैसाखी।

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आज भी शायद रूह चीख रही होगी

कितनी बार काटेंगे,और जोड़ेंगे?
वहशियत के निशान कितनी बार मिटाएँगे?
जिस्म है, हो सकता है कल ठीक हो जाए
पर रूह का क्या ,उसे कैसे जोड़ेंगे?
कुछ चीज़ें समेट के रखीं थीं
कौन लाएगा उसकी वह रंगीन टोकरी?
जिसमें सपनों को सॅंजो के रखा था
जिसमे छोटी बड़ी मोतियों की माला थी
आशाओं के आशियाने की चाबी
एक सुनहरे रंग की डिबिया में बंद थी
ढूँढती होगी चौराहे पे अपना सारा सामान
देखो आज भी शायद रूह चीख रही होगी
किसने चुराया ,क्यों चुराया
प्रश्नों के उत्तर ढूँढती होगी
देह की हालत से अंजान रूह
उससे मिलने के लिए तड़प रही होगी
बिस्तर पे पड़ा निर्जीव सा, खोखला बदन
उम्मीद तैर रही है आँखों में
साँसों को हिम्मत देता उसका अहँकार
आज भी कह गया उसके कानों में
“इंसान दरिन्दा बन गया तो क्या
विश्वास रखो सर उठाके जीने में”
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arana boseपरिचय : –
अपर्णा बोस

कुछ अपने ही बारे में : कई वर्षों तक ‘पत्नी’, ‘बहु ‘, ‘माँ ‘ इत्यादि किरदारों को निभाते -निभाते अपने भीतर छुपे ‘मैं ‘ के बारे  में बिलकुल भूल गयी थी।  फिर आया इंटरनेट का दौर और साथ ही फेसबुक और ब्लॉगिंग जैसे मंच। बच्चों के बड़े हो जाने के बाद अचानक एक खालीपन घेर लेता है और इस खालीपन को दिशा देना बहुत ही ज़रूरी होता है।  मैंने भी नाना प्रकार के रचनाओं के माध्यम से अपने दिलोदिमाग पर हावी होने वाले भावनाओं को एक सजीव रूप देने का प्रयत्न किया है। पूर्णता को प्राप्त करने की मेरी एक छोटी-सी कोशिश है बस।

 

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