अनिल सिन्दूर की कहानी :भाग्यशाली अम्मा

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अनिल सिन्दूर की कहानी : भाग्यशाली अम्मा

                –  भाग्यशाली अम्मा –

मैं अपनी अम्मा के साथ उन दिनों नाना जी के यहां रहा करता था। लेकिन ये बात मैं नहीं जानता था। मैं नाना जी को दादा कह कर बुलाया करता था मेरे मामा भी इसी नाम से उन्हें बुलाते थे। अम्मा ज्यादा पढ़ी लिखी  नहीं थी उस समय दर्जा पांच तक पढ़ा कर ही विवाह कर दिया जाता था। अम्मा किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी इसीलिए उन्हांने नौकरी करने की इच्छा मेरे नाना यानि अपने दादा से रखी। दादा के रिश्ते में ऊची ंपहुंच वाले मैथली दद्दा कुछ लगते थे, जब यह बात दादा ने उनसे कही उन्होंने आश्वासन दिया कि वह जल्द ही कुछ करते हैं।

कुछ दिनों बाद अम्मा बीटीसी करने चली गयीं मैं नानी जिन्हें मैं बाई कहकर बुलाया करता था, के पास रह गया तब मेरी उम्र 3-4 साल की रही होगी। दिन बीतते गए अम्मा बीटीसी की टेªनिंग कर लौट आयीं। बीटीसी की टेªनिंग करने के कुछ ही दिनों बाद अम्मा की नौकरी लड़कियों के प्राइमरी स्कूल मै लग गयी। मैं जब पांच साल का हुआ मेरा भी दाखिला एक प्राइमरी स्कूल में करवा दिया गया।
मेरी अम्मा अब किसी पर बोझ नहीं हैं यह मैंने घर एवं बाहर वालों से कई बार कहते सुना मैं नहीं जानता था ऐसा क्यों कहा जाता है। दादा अपने लड़कों की तरह ही मुझे स्नेह दिया करते थे जिस तरह मामा की हथेली पर दस पैसे रखे जाते थे मेरी हथेली पर भी दस पैसे रख दिए जाते थे मै यही जानता था दादा ही मेरे पिता हैं। एक दिन मेरी गलतफहमी को तोड़ा गया पौर (बैठक) में टंगी एक तस्वीर की ओर इशारा कर बताया गया कि वो तुम्हारे पिता हैं जिन्हें तुम दादा कहते हो वो नाना हैं। तब मैने जाना था कि मैं अपने नाना के घर रहता हूॅं मेरा घर कहीं और है। उस दिन के बाद से दस पैसे के लिए खुलने वाली हथेली  उस अधिकार से नहीं खुली जिस तरह पहले खुला करती थी।

मेरी एक बड़ी बहिन भी है यह भी मुझे मालूम नहीं था। वह हमारी दादी के पास रहती थी। जब अम्मा गर्मी की छुट्टियों मे दादी के पास मुझे लेकर जाती तभी उससे मुलाकात होती। दादी ने तमाम कोशिश मेरे पिता को घर लाने को की लेकिन उनकी तमाम काशिश नाकाम हुई। थक हार कर उन्होंने तय किया कि मुझे और मेरी बहिन को पिता जी जहां रहते थे वहीं चल कर मिलवाया जाय। वह मुझे और बहिन को पिता जी के पास लेकर तमाम बार गयी। लेकिन जो उम्मीद दादी ने लगा रखी थी धूमिल होती गयी। उन्हें उम्मीद थी कि मेरा बेटा अपने बच्चों को प्यार जरूर देगा। मैं जब पहली बार पिता के पास गया मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ कि मैं अपने उस पिता के पास आया हूॅं जो मुझसे दूर रहता है।
मै जब 8वीं कक्षा में पढ़ता तभी मेरी बहिन की शादी तय हो गयी सबको उम्मीद थी कि पिता जी बहिन की शादी मैं जरूर आयेंगे और कन्यादान अम्मा के साथ गॉंठ बांध कर लेंगे। शादी के दिन वह आये उन्होंने अम्मा के साथ गांठ बांध कर बहिन का कन्यादान लिया। सभी बेहद खुश थे विशेष कर मेरी दादी क्यों कि उनका भरोसा उनके बेटे ने तोड़ा नहीं था। पिता जी ने ही शादी का फोटो एलबम्ब तैयार करवाया था लेकिन उस एलबम्ब में लगी फोटो को कुछ इस तरह से खींचा गया था कि अम्मा कहीे दिखाई न दें। अम्मा को फोटो देखकर दुख हुआ था। वह बेवस थी, मूक दर्शक बनी अपनी अवहेलना होते देख रही थी। लेकिन समाज ने पिता जी को सराहा था कि लड़की का कन्यादान जो उन्होंने किया। अम्मा शान्त थीं सब कुछ जानकर भी अनजान, वह जानती थी कुछ भी कहना उनकों अपनो से दूर ही करेगा।

दो साल बाद दादी भी चल बसी। उस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ रहा था। मैने ही दादी को मुखाग्नि दी थी, तमाम इन्तजार के बाद भी पिता जी समय पर घर नहीं पहुॅंच सके थे सभी ने पिता जी को भला-बुरा  कहा था। दादी का हम सभी को छोड़ कर चला जाना बड़ा धक्का था। जो जुड़ाव दादी के कारण पिता जी से था वो भी छूटता सा नजर आने लगा था। अम्मा और मेरी बहिन दोनो ही पिता जी से बेहद नाराज रहती थी। मुझसे जब भी कोई मेरे पिता के बारे में पूछता समझ नहीं आता क्या जबाब दूॅं, निरूत्तर हो जबाब खोजने की कोशिश करता रह जाता क्यों कि जब भी अम्मा से पिता जी के बारे में बात करता वो उदास हो जाती थी। जब मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर घर लौट आया तब तक अम्मा का भी कार्यकाल पूरा हो चुका था। मैं और अम्मा पैतृक कस्बे में दादी के बनबाये हुये मकान में रहने लगे। मैं लौट आया था चुनौतियों का सामना करने को, और समाज तैयार था घावों को कुरेदने को। मैने अपनी पहचान को ही ढाल बनाने की सोचकर अपने नाम के आगे पिता का नाम जोड़ लिया। नाम के इस परिवर्तन पर पिता जी बेहद नाराज हुये। उनकी नाराजगी जायज थी या नहीं मैं उस समय नहीं समझ पाया था। लेकिन तमाम सवालों से छुटकारा पाने को मैने उनकी बात को नहीं माना। अम्मा तटस्थ थीं एक नाम ही तो था जो पिता से एक बेटे को जोड़ता है। पिता की नाराजगी भी समय गुजरते दूर होती चली गयी। मेरे विवाह पर वो घर तो नहीं आये लेकिन बारात में साथ हो लिये थे। मैं खुश था लेकिन बारात लौटते ही वो भी रास्ते से ही लौट गये थे।

सेवानिवृत हो जाने के बाद अम्मा बीमार रहने लगी थी। मैं नौकरी को बाहर न जा सका क्यों कि अम्मा नहीं चाहती थीं कि  मैं नौकरी करने घर से बाहर कहीं जाऊं उन्हें डर था कि कहीं बेटे को भी न खो दें। उनका यह फैसला मैने सिर माथे लिया। लेकिन र्दुभाग्य से मैं व्यापार में सफल नहीं हो सका। अम्मा दुखी थी फिर भी उन्हें सन्तोष था कि उनका बेटा उनके पास था। व्यापार में सफल न होने पर एक समय ऐसा आया कि मुझे नौकरी करनी पड़ी। मेरी परिस्थितियों को देख अम्मा भी न रोक सकी। समय ने उन्हें बेहद कमजोर बना दिया था। पिता जी भी बीमार लगे थे। काफी कमजोर हो गये थे। घर निकलना भी उन्होंने बन्द सा कर दिया था। लेकिन उनका लेखन का कार्य अनवरत जारी था क्यों कि अब उनका वही सहारा था। मै बीमारी के दौरान उनसे मिलने गया उनकी कसमसाहट सब कुछ बयान कर रहा था लेकिन वो लाचार थे। वो अपनी लाचारी छिपा नहीं सके। अम्मा की बीमारी के बारे में मैने उन्हें बताया वह सिर्फ इतना ही कह सके खयाल रखना।

अम्मा की बीमारी दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। वह बीमारी से लड़ने की क्षमता खो चुकी थीं। उन्हें होश ही नहीं रहता था कि वह बिस्तर सोयी हैं या जमीन पर। और एक दिन नवदुर्गा की ंअष्टमी की पूजा का प्रसाद खाने के बाद वह ऐसा सोयीे कि फिर न उठी।  पिता जी को अम्मा के मरने की खबर दी लेकिन वो न आ सके। घर पर जुटे समाज के महिलाओं तथा पुरुषों ने मेरी पीठ पर हाथ रख कहा कि तुम्हारी अम्मा बड़ी भाग्यशाली हैं वह पिता जी के रहते र्स्वगवासी हो गयीं। मै सोचता रह गया यह कैसा भाग्य जीवन भर र्दुभाग्यशाली होने का दंश भाग्यशाली में कैसे बदल गया।

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anil sindur,anil sindoorपरिचय : –
अनिल सिन्दूर
लेखक ,कवि व् पत्रकार

लेखक अनिल सिन्दूर वरिष्ठ पत्रकार हैं 25 सालो से ज्यादा वक़त से पत्रकारिता जगत में पानी कलम का लोहा मनवाते आ रहे हैं !

अभी कानपुर में रह रहे हैं

 International News views corporetion  कार्यरत हैं !

संपर्क :- Mob. No. 9415592770 , email :- anilsindoor2010@gmail.com

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