पानी दूर हुआ या हम ?

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download-अरुण तिवारी-

ग्लेशियर पिघले। नदियां सिकुङी। आब के कटोरे सूखे। भूजल स्तर तल-वितल सुतल से नीचे गिरकर पाताल तक पहुंच गया। मानसून बरसेगा ही बरसेगा.. अब यह गारंटी भी मौसम के हाथ से निकल गई है। पहले सूखे को लेकर हायतौबा मची, अब बाढ़ की आशंका से कई इलाके परेशान हैं। नौ महीने बाद फिर सूखे को लेकर कई इलाके हैरान-परेशान होंगे। हम क्या करें ? वैश्विक तापमान वृद्धि को कोसें या सोचें कि दोष हमारे स्थानीय विचार.व्यवहार का भी है  ? दृष्टि साफ करने के लिए यह पङताल भी जरूरी है कि पानी हमसे दूर हुआ या फिर पानी से दूरी बनाने के हम खुद दोषी है।

पलटकर देखिए। भारत का दस्तावेजी इतिहास 75,000 वर्ष पुराना है। आज से 50.60 वर्ष पहले तक भारत के ज्यादातर नगरों में हैंडपम्प थे, कुएं थे, बावङियां, तालाब और झीलें थी, लेकिन नल नहीं थे। अमीर से अमीर घरों में भी नल की चाहत नहीं पहुंची थी। दिल्ली में तो एक पुराना लोकगीत काफी पहले से प्रचलित था . ”फिरंगी नल न लगायो” 
स्पष्ट है कि तब तक कुआं नहीं जाता था प्यासे के पास। प्यासा जाता था कुएं के पास।
 कालांतर में हमने इस कहावत को बेमतलब बना दिया। पानी का इंतजाम करने वालों ने पानी को पाइप में बांधकर प्यासों के पास पहुंचा लिया। बांध और नहरों के ज़रिये नदियों को खींचकर खेतों तक ले आने का चलन तेज हो गया। हमें लगा कि हम पानी को प्यासे के पास ले आये। वर्ष 2016 में मराठवाङा का परिदृश्य गवाह बना कि असल में वह भ्रम था। हमने पानी को प्यासों से दूर कर दिया।

हुआ यह कि जो सामने दिखा, हमने उसे ही पानी का असल स्त्रोत मान लिया। इस भ्रम के चलते हम असल स्त्रोत के पास जाना और उसे संजोना भूल गये। पानी कहां से आता है ? पूछने पर बिटिया कहेगी ही कि पानी नल से आता है, क्योंकि उसे कभी देखा ही नहीं कि उसके नगर में आने वाले पानी का मूल स्त्रोत क्या है। किसान को भी बस नहर, ट्युबवैल, समर्सिबल याद रहे। नदी और धरती का पेट भरने वाली जल सरंचनाओं को वे भी भूल गये।आंख से गया, दिमाग से गया। 

पहले एक अनपढ़ भी जानता था कि पानी, समंदर से उठता है। मेघ, उसे पूरी दुनिया तक ले जाते हैं। ताल.तलैया, झीलें और छोटी वनस्पतियां मेघों के बरसाये पानी को पकङकर धरती के पेट में बिठाती हैं। नदियां, उसे वापस समंदर तक ले जाती हैं। अपने मीठे पानी से समंदर के खारेपन को संतुलित बनाये रखने का दायित्व निभाती हैं। इसीलिए अनपढ़ कहे जाने वाले भारतीय समाज ने भी मेघ और समंदर को देवता माना। नदियों से मां और पुत्र का रिश्ता बनाया। तालाब और कुआं पूजन को जरूरी कर्म मानकर संस्कारों का हिस्सा बनाया। जैसे.जैसे नहरी तथा पाइप वाटर सप्लाई बढ़ती गई। जल के मूल स्त्रोतों से हमारा रिश्ता कमजोर पङता गया। ”सभी की जरूरत के पानी का इंतजाम हम करेंगे।” नेताओं के ऐसे नारों ने इस कमजोरी को और बढ़ाया। लोगों ने भी सोच लिया कि सभी को पानी पिलाना सरकार का काम है। इससे पानी संजोने की साझेदारी टूट गई। परिणामस्वरूप, वर्षा जल संचयन के कटोरे फूट गये। पानी के मामले में स्वावलंबी रहे भारत के गांव.नगर ‘पानी परजीवी’ में तब्दील होते गये।

हमारी सरकारों ने भी जल निकासी को जलाभाव से निपटने का एकमेव समाधान मान लिया। जल संसाधन मंत्रालय, जल निकासी मंत्रालय की तरह काम करने लगे। सरकारों ने समूचा जल बजट उठाकर जल निकासी प्रणालियों पर लगा दिया। ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ और ‘रूफ टाॅप हार्वेस्टिंग’ की नई शब्दावलियों को व्यापक व्यवहार उतारने के लिए सरकार व समाजण्ण् दोनो आज भी प्रतिबद्ध दिखाई नहीं देती। लिहाजा, निकासी बढ़ती जा रही है। वर्षा जल संचयन घटता जा रहा है। ’वाटर बैलेंस’ गङबङा गया है। अब पानी की ‘फिक्सड डिपोजिट’ तोङने की नौबत आ गई है। भारत ‘यूजेबल वाटर एकाउंट’ के मामले में कंगाल होने के रास्ते पर है। दूसरी तरफ कम वर्षा वाले गुजरात, राजस्थान समेत जिन्होने भी जल के मूल स्त्रोतों के साथ अपने रिश्ते को जिंदा रखा, वे तीन साला सूखे में भी मौत को गले लगाने को विवश नहीं है।

जल के असल स्त्रोतों से रिश्ता तोङने और नकली स्त्रोतों से रिश्ता जोङने के दूसरे नतीजों पर गौर फरमाइये।

नहरों, नलों और बोरवैलों के आने से जलोपयोग का हमारा अनुशासन टूटा। पीछे.पीछे फ्लश टाॅयलट आये। सीवेज लाइन आई। इस तरह नल से निकला अतिरिक्त जल-मल व अन्य कचरा मिलकर नदियों तक पहुंच गये। नदियां प्रदूषित हुईं। नहरों ने नदियों का पानी खींचकर उन्हे बेपानी बनाने का काम किया। इस कारण, खुद को साफ करने की नदियों की क्षमता घटी। परिणामस्वरूप, जल-मल शोधन संयंत्र आये। शोधन के नाम पर कर्ज आया; भ्रष्टाचार आया। शुद्धता और सेहत के नाम पर बोतलबंद पानी आया। फिल्टर और आर ओ आये। चित्र ऐसा बदला कि पानी पुण्य कमाने की जगह, मुनाफा कमाने की वस्तु हो गया। समंदर से लेकर शेष अन्य सभी प्रकार के जल स्त्रोत प्रदूषित हुए; सो अलग। बोलो, यह किसने किया ? पानी ने या हमने ? पानी दूर हुआ कि हम ??

आइये, पानी से रिश्ता बनायें
नदियों को जोङने, तोङने, मोङने अथवा बांधने का काम बंद करो। रिवर.सीवर को मत मिलने दो। ताजा पानी, नदी में बहने दो। उपयोग किया शोधित जल, नहरों में बहाओ। जल बजट को जल निकासी में कम, वर्षा जल संचयन में ज्यादा लगाओ। नहर नहीं, ताल, पाइन, कूळम आदि को प्राथमिकता पर लाओ। ‘फाॅरेस्ट रिजर्व’ की तर्ज पर ‘वाटर रिजर्व एरिया’ बनाओ। ये सरकारों के करने के काम हो सकते हैं। पानी की ग्राम योजना बनाना, हर स्थानीय ग्रामीण समुदाय का काम हो सकता है। आप पूछ सकते हैं कि निजी स्तर पर मैं क्या कर सकता हूं  ?

संभावित उत्तर बिंदुओं पर गौर कीजिए :

  1. पानी, ऊर्जा है और ऊर्जा, पानी। कोयला, गैस, परमाणु से लेकर हाइड्रो स्त्रोतों से बिजली बनाने में पानी का उपयोग होता है। अतः यदि पानी बचाना है, तो बिजली बचाओ; ईंधन बचाओ; सोलर अपनाओ।
  2. दुनिया का कोई ऐसा उत्पाद नहीं, जिसके कच्चा माल उत्पादन से लेकर अंतिम उत्पाद बनने की प्रक्रिया में पानी का इस्तेमाल न होता हो। अतः न्यूनतम उपभोग करो; वरना् पानी की कमी के कारण कई उत्पादों का उत्पादन एक दिन स्वतः बंद करना पङ जायेगा।
  3. एक लीटर बोतलबंद पानी के उत्पादन में तीन लीटर पानी खर्च होता है। एक लीटर पेटा बोतल बनाने में 3.4 मेगाज्युल ऊर्जा खर्च होती है। एक टन पेटा बोतल के उत्पादन के दौरान तीन टन कार्बन डाइआॅक्साइड निकलकर वातावरण में समा जाती है। लिहाजा, बोतलबंद पानी पीना बंद करो। पाॅली का उपयोग घटाओ।
  4. आर ओ प्रणाली, पानी की बर्बादी बढ़ाती है; मिनरल और सेहत के लिए जरूरी जीवाणु घटाती है। इसे हटाओ। अति आवश्यक हो, तो फिल्टर अपनाओ। पानी बचाओ; सेहत बचाओ।
  5. पानी दवा भी है और बीमारी का कारण भी। पानी को बीमारी पैदा करने वाले तत्वों से बचाओ। फिर देखिएगा, पानी का उचित मात्रा, उचित समय, उचित पात्र और उचित तरीके से किया गया सेवन दवा का काम करेगा।
  6. सूखे में सुख चाहो, तो कभी कम बारिश वाले गुजरात.राजस्थान के गांवों में घूम आओ। उनकी रोटी, खेती, मवेशी, चारा, हुनर और जीवन.शैली देख आओ। बाढ़ के साथ जीना सीखना चाहो, तो कोसी किनारे के बिहार से सीखो। बाढ़ और सुखाङ के कठिन दिनों में भी दुख से बचे रहना सीख जाओगे।
  7. प्याऊ को पानी के व्यावसायीकरण के खिलाफ औजार मानो। पूर्वजों के नाम पर प्याऊ लगाओ। उनका नाम चमकाओ; खुद पुण्य कमाओ।
  8. स्नानघर.रसोई की जल निकासी पाइप व शौचालय की मल निकासी पाइप के लिए अलग-अलग चैंबर बनाओ। गांव के हर घर के सामने सोख्ता पिट बनाओ। छत के पानी के लिए ‘रूफ टाॅप हार्वेस्टिंग’ अपनाओ।
  9. जहां सीवेज न हो, वहां सीवेज को मत अपनाओ। शौच को सीवेज में डालने की बजाय, ‘सुलभ’ सरीखा टैंक बनाओ।
  10. बिल्डर हैं, तो अपने परिसर में वर्षा जल संचयन सुनिश्चित करो। खुद अपनी जल-मल शोधन प्रणाली लगाओ। पुनर्चक्रीकरण कर पानी का पुर्नोपयोग बढ़ाओ। मल को सोनखाद बनाओ।
  11. फैक्टरी मालिक हैं, तो जितना पानी उपयोग करो उतना और वैसा पानी धरती को वापस लौटाओ। शोधन संयंत्र लगाओ। तालाब बनाओ।
  12. कोयला, तैलीय अथवा गैस संयंत्र के मालिक हैं, तो उन्हे पानी की बजाय, हवा से ठंडा करने वाली तकनीक का इस्तेमाल करो।
  13. किसान हैं, तो खेत की मेङ ऊंची बनाओ। सूखा रोधी बीज अपनाओ। कम अवधि व कम पानी की फसल व तरीके अपनाओ। कृषि के साथ बागवानी अपनाओ। देसी खाद व मल्चिंग अपनाकर मिट्टी की गुणवत्ताा व नमी बचाओ। बूंद.बूंद सिंचाई व फव्वारा पद्धति अपनाओ।
  14. जन्म, ब्याह, मृत्यु में जलदान, तालाब दान यानी महादान का चलन चलाओ। मानसून आने से पहले हर साल नजदीक की सूखी नदी के हर घुमाव पर एक छोटा कुण्ड बनाओ। मानसून आये, तो उचित स्थान देखकर उचित पौधे लगाओ। नदी किनारे मोटे पत्ते वाले वृक्ष और छोटी वनस्पतियों के बीज फेंक आओ।
  15. ”तालों में भोपाल ताल और सब तलैया” जैसे कथानक सुनो और सुनाओ। जलगान गाओ। बच्चों की नदी.तालाब.कुओं से बात कराओ। पानी का पुण्य और पाप समझाओ। जल मैत्री बढ़ाओ। असल जल स्त्रोताें से रिश्ता बनाओ।
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IMG_0086-260x3001परिचय -:
अरुण तिवारी 
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता

1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।

1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।

इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।

1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।

संपर्क -:

ग्राम- पूरे सीताराम तिवारी, पो. महमदपुर, अमेठी,  जिला- सी एस एम नगर, उत्तर प्रदेश ,  डाक पताः 146, सुंदर ब्लॉक, शकरपुर, दिल्ली- 92
Email:- amethiarun@gmail.com . फोन संपर्क: 09868793799/7376199844

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