29 मई एवरेस्‍ट आरोहण की 60वीं वर्षगांठ पर विशेष भारत में पर्वतारोहण*

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मनोहर पुरी **,,

                          आज यह हिसाब रखना कठिन होता जा रहा है कि विश्‍व की सबसे ऊंचे शिखर एवरेस्ट पर कितने लोग आरोहण कर चुके हैं। प्रत्येक आरोहण अभियान के साथ तरह-तरह की विषेशताएं संबद्ध हैं। अनेक प्रकार के रिकार्ड इस चोटी पर बनाये गये हैं। आज से साठ वर्ष पूर्व 29 मई 1953 को दोपहर 11 बजे न्यूजीलैंड के श्री एडमंड हिलेरी और श्री तेनजिंग नोर्गे ने विश्व की सबसे ऊंची चोटी माऊंट एवरेस्ट (8848मी.) का सफलतापूर्वक आरोहण किया था। भोगौलिक कारणों से एवरेस्ट की ऊंचाई प्रतिवर्ष कुछ मिली मीटर बढ़ जाती है। इस समय यह 8850 मीटर के आसपास है। उस समय एवरेस्ट आरोहण का समाचार पाकर पूरा विश्‍व रोमांचित हो उठा था। इस दिन पर्वतारोहण के क्षेत्र में एक नया इतिहास रचा गया था। उससे पहले अनेक अभियान इस श्रेय को प्राप्त करने में असफल हो चुके थे। इसलिए जो रोमांच विश्व को उस समय हुआ वह अद्वितीय था। आज तो न जाने कितने नाम एवरेस्ट के साथ जुड़ गए हैं। हर एक ने अपनी अपनी तरह से कोई न कोई कीर्तिमान भी स्थापित किया है। इस क्षेत्र में भारत के पर्वतारोही भी अन्य देशों के पर्वतारोहियों से पीछे नहीं हैं।

       निसन्देह इस सफल अभियान ने पूरी दुनिया में लगभग वैसी ही हलचल मचा दी जैसी बाद में चांद पर नील आर्मस्ट्रांग के कदम रखने पर मची थी। इस क्षण ने भारतीय युवकों के मन में पर्वतारोहण के प्रति रूझान पैदा किया। देश के अलग अलग हिस्सों में पर्वतारोहण से जुड़ी गतिविधियां बढ़ने लगीं। हिमालय की नैसर्गिक सुन्दरता को ध्यान में रखते हुए स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू एवं पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री बी.सी. राय ने 1954 में दार्जिलिंग में हिमालय पर्वतारोहण संस्थान की स्थापना की। तेनजिंग नोर्गे को उसमें प्रशिक्षण देने के लिए संस्थान का निदेशक बनाया गया।

       इतना सब होने पर भी इस रोमांचक खेल को उतनी गति नहीं मिली जितनी कि अपेक्षित थी। पर्वतों का देश होने के वावजूद पर्वतारोहण भारत के युवाओं के लिए अभी तक एक नया खेल है। भारत वर्ष में विश्व की सबसे युवा और सबसे बड़ी पर्वतमाला हिमालय स्थित है। यहां पर प्रतिवर्ष हजारों विदेशी पर्वतारोही पर्वतारोहण का आनन्द उठाने के लिए आते हैं। स्वतंत्रता से पहले ही दुनिया का सबसे ऊंचा पर्वत हिमालय अपने पांच लाख वर्ग किलोमीटर पर्वतीय प्रदेश और संसार की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट के माध्यम से पर्वतारोहियों को अपनी ओर आकृष्ट करने लगा था। अधिकतर योरूप निवासियों की रूचि एवरेस्ट आरोहण में थी। हिमालय पर इस चोटी का पता 1852 में लगा था। उस समय भारत में जार्ज एवरेस्ट गर्वनर जनरल थे। फलतः विश्व के इस सबसे ऊंचे शिखर का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया गया।

       पर्वतारोहण एक साहसिक क्रीड़ा है। इसे व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिए पर्वत शिखरों पर चढ़ाई के रूप में करता है। इस खेल में आरोही पर्वत की किसी चोटी पर चढ़ने का लक्ष्य निर्धारित करके खेलना प्रारम्भ करता है। इस खेल का मैदान बहुत लम्बा चौड़ा और ऊंचा होता है। एक ही समय में बहुत बड़ी संख्या में खिलाड़ी इसमें खेल सकते हैं। इसमें समय की कोई सीमा नहीं है। न ही किसी दूसरे खिलाड़ी से जीतने अथवा मुकाबला करने की भावना। यह अपने आप में बहुत ही थका देने वाला खेल है। एक खेल के रूप में खेलने पर खिलाड़ी के पर्वतों के साथ नये सम्बन्ध स्थापित होते हैं। उन रिश्तों को नये आयाम मिलते हैं।

       इस बात पर बहुत लम्बा वाद विवाद हुआ है कि पर्वतारोहण खेल है अथवा नहीं। अब यह मान लिया गया है कि इसमें खेल होने के सभी तत्व मौजूद हैं। पर्वतारोहण के नये नये तरीके खोज लिए गए हैं। इसमें प्रयोग होने वाले उपकरणों की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। अब इस खेल को काफी सुरक्षित माना जाने लगा है। अन्य खेलों की भान्ति कुछ मानक नियम भी बना लिए गये हैं।

       यह खेल अनेक बाधाओं से भरा हुआ है। हर कदम पर पर्वतारोही को अपना जीवन जोखिम में दिखाई देता है। वह हर बाधा को पार करते हुए लक्ष्य की तरफ बढ़ता है। दूसरे खेलों की बजाय इसमें बहुत ज्यादा ताकत और साहस की आवश्यकता होती है। मैदान में खिलाड़ी का हौसला बढ़ाने वाला कोई दर्शक नहीं होता। पर्वतारोही का मुकाबला पर्वत से होता है। पहाड़ इतने मजबूत होते हैं कि खिलाड़ी की छोटी सी गलती की बहुत बड़ी सजा देते हैं। एक चूक खिलाड़ी को मौत के मुहं में ले जा सकती है।

       इसके विपरीत यदि किसी ने चोटी पर चढ़ाई कर ली तो भी पर्वत में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आता। हां इससे वह अपनी ताकत,क्षमता,साहस और इच्छा शक्ति को आजमा लेता है। अपने आप में एक बदलाव पाता है। उसे अपने आप पर भरोसा होने लगता है। उसमें नेतृत्व के गुणों का विकास होता है। सहयोग और सद्भाव की भावनाएं पनपती हैं। निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है। ये सारे गुण एक ही साथ किसी दूसरे खेल से प्राप्त नहीं होते। इस खेल को खेलने से व्यक्ति में अहम के स्थान पर नम्रता आती है। अहंकार की जगह आदर की भावना पनपती है।

       एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने के बाद देश में पर्वतारोहण संस्थानों की स्थापना की गई। इच्छा यह थी कि तेनजिंग की सफलता का संदेश पूरी दुनिया में पहुंचाया जाये। साथ ही भारत में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण तकनीकी रूप से दिया जाये। इससे पूर्व भारत में इस साहसिक खेल के सम्बन्ध में कोई विशेष प्रबन्ध नहीं था। इस साहसिक खेल को किसी प्रकार की मान्यता भी प्राप्त नहीं थी।

       आधुनिक पर्वतारोहण का प्रारम्भ 1850 में अल्पस पर्वत में हुआ था।  भारतीय सौ साल बाद इस खेल में आए। 1951 में दून स्कूल के अध्यापक गुरदयाल सिंह ने त्रिशूल शिखर के अभियान का प्रबन्ध किया। उनके नेतृत्व में यह दल चोटी तक पहुंचने में सफल रहा। इससे पहले 1940 में इस स्कूल के दो अध्यापक आर.एल. होल्डवर्थ और जी.ए.के.मार्टिन अपने छात्रों के साथ हिमालय पर आरोहण करने के लिए गये थे। उस समय भारत में रहने वाले यूरोपियन ही इस खेल में रूचि लेते थे।

       पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग की गतिविधियों के फलस्वरूप भारतवर्ष में पर्वतारोहण गति पकड़ने लगा। वहां पर एक निश्चित पाठ्यक्रम बनाया गया। वहां ट्रैकिंग, रॉकक्लाईमिंग और स्नो क्राफ्ट का विधिवत प्रशिक्षण बेसिक कोर्स के रूप में दिया जा रहा है। एडवान्स कोर्स में पर्वतारोहण और उससे से जुड़े अभियानों के संचालन का प्रशिक्षण दिया जाता है।

       भारतीय पर्वतारोहियों के लिए एवरेस्ट एक भारी चुनौती रही है। सबसे पहले 1960 में दार्जिलिंग स्थित संस्थान ने एवरेस्ट के लिए अपना अभियान भेजा। इसके नेता ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह दार्जिलिंग पर्वतारोहण संस्थान के प्राचार्य थे। पहले भारतीय अभियान दल ने पर्याप्त सफलता पाई। उसने 8626 मी. की ऊंचाई पर अन्तिम कैम्प लगाया। मौसम के एकाएक खराब होने के कारण यह दल एवरेस्ट आरोहण नहीं कर पाया। भारतीयों द्वारा दुगने उत्साह से पुनः तैयारी की गई। 1962 में भारतीय दल फिर असफल हुआ। आई. एम. एफ. ने एक अन्य अभियान की योजना बनाई और कैप्टन एम.एस. कोहली के नेतृत्व में तीसरा एवरेस्ट अभियान सफलता पूर्वक पूरा हुआ।

       इस अभियान में कई नए रिकार्ड बनाए गए। सर्वाधिक नौ सदस्य एवरेस्ट के शिखर पर पहुंचे। वे चार अलग अलग दलों में थे। प्रत्येक दल में तीन सदस्यों को रखा गया। आमतौर पर दल में दो ही सदस्य शामिल किए जाते हैं। नवांग गोम्बू दूसरी बार एवरेस्ट पर चढ़ने में सफल रहे। पहली बार वह 1963में एक अमरीकी दल के साथ एवरेस्ट पर चढ़े थे। दल में सबसे अधिक आयु के सोनम ग्यालत्सो 42 वर्ष के थे। सबसे कम आयु के सदस्य सोनम वांग्याल 23 वर्ष के थे। दोनों एक ही रस्से से शिखर पर पहुंचे।

       इन अभियानों के कारण युवा वर्ग पर्वतारोहण में प्रशिक्षण के लिए सामने आने लगा। दार्जिलिंग का संस्थान इस बढ़ती संख्या को प्रशिक्षण देने में स्वयं को असमर्थ पाने लगा। उत्तरकाशी, गुलबर्ग और सिक्किम में भी ऐसे संस्थान स्थापित किए गये। हिमाचल प्रदेश के सुरम्य स्थान मनाली में एक और संस्थान प्रारम्भ किया गया। बाद में गुजरात द्वारा ऐसा ही एक संस्थान राजस्थान के आबू नामक स्थान पर बनाया गया। सेना एंव अर्द्ध सैनिक बलों द्वारा अपने सैनिकों को प्रशिक्षण देने के लिए कुछ संस्थानों की स्थापना की गई। इन संस्थानों में भी दार्जिलिंग वाला पाठ्यक्रम अपनाया गया। कोर्स की अवधि कम कर दी गई।

       इसी बीच भारतीय युवतियों ने भी पर्वतारोहण में रूचि लेनी प्रारम्भ की।  नंदिनी पहली महिला थी जो माउन्टेनियरिंग इंस्टीट्यूट माउंट आबू में प्रशिक्षक के पद पर नियुक्त हुई। इन दिनों बड़ी संख्या में भारतीय महिलायें इन गतिविधियों में रूचि ले रही हैं। बछेन्द्री पाल ने 23 मई 1984 में एवरेस्ट आरोहण करके पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त किया। वह साऊथ कोल के मार्ग से लाटू और अंग दोरजी के साथ एवरेस्ट पर पहुंची। इससे पूर्व अन्य देशों की चार महिलाएं भी एवरेस्ट पर चढ़ चुकी थीं। एवरेस्ट के इस चैथे अभियान में बछेन्द्री पाल के साथ चन्द्र प्रभा अटवाल, हर्षवन्ती विष्ट,रेखा शर्मा, शिरावती प्रभु एंव रीता गोम्बू थी। बाद में दल का एक अन्य सदस्य सोनम पलजोर भी शिखर पर पहुंचने में सफल हुआ। इस प्रकार यह एक महत्वपूर्ण सफलता रही।

       इसमें पहली भारतीय महिला शिखर पर पहुंची। बाद में बड़ी संख्या में महिलाओं ने पर्वतारोहण में रूचि लेनी प्रारम्भ की। सन्तोष यादव ने तीन बार एवरेस्ट आरोहण किया। उसने पर्वतारोहण से सम्बन्धित अन्य गतिविधियों में भी बढ़ चढ़ कर भाग लेना शुरू किया। यह पहला स्त्री पुरुषों का मिश्रित अभियान था।

34 वर्षीय लद्दाख निवासी फो दोरजी बिना आक्सीजन का प्रयोग किए एवरेस्ट आरोहण में सफल रहा। अंग दोरजी भी बिना आक्सीजन चढ़ने वाला दूसरा पर्वतारोही रहा परन्तु वह पहला नेपाली था जिसने बिना आक्सीजन के शिखर पर आरोहण किया। इस अभियान का नेतृत्व कर्नल डी. के. खुल्लर ने किया। इनके अतिरिक्त भी आज अनेक रिकार्ड इस विष्व प्रसिद्ध शिखर के साथ जुड़े हुए हैं:-

       23 मई 2001: शेरपा तेंबा त्शिरी सबसे कम आयु (16 वर्ष 15 दिन) में शिखर पर पहुंचा।

       25 मई 2001: अमरीकी इरिक वेनमायर शिखर पर पहंचने वाला पहला नेत्रहीन व्यक्ति बना।

       22 मई 2003: जापान का यूइचिरो मिथुरा सबसे अधिक आयु में शिखर पर चढ़ा। उस दिन उनकी आयु 70 वर्ष 222 दिन थी। इससे पूर्व यह रिकार्ड जापान के तोमी यासू  इसिकावा के नाम था। उस समय उनकी आयु 65 वर्ष 165 दिन थी। हाल ही में जापान की 73 वर्षीय महिला तामाए वातानाबे ने एक अन्य जापानी पर्वतारोही नोरियुकी मुरागुची और तीन अन्य शेरपाओं -मिंगम, फारु नुनू और फूरबा के साथ तिब्बत के दक्षिणी मार्ग से इस चोटी पर चढ़ने में सफलता पाई थी। उल्लेखनीय है कि सन् 2002 में 63वर्ष की आयु में भी उन्होंने इस शिखर पर आरोहण किया था।

       23 मई 2003: शेरपा पेंबा दोरजी केवल 12 घंटे 45 मिनट में शिखर पर पहुंचा।

       26 मई: शेरपा लेकपा घेलू ने 10 घंटे 46 मिनट में शिखर पर पहुंच कर पेंबा का रिकार्ड तोड़ दिया। इसी दिन भारतीय सेना के छह जवानों सहित 17 सदस्यीय भारत-नेपाल संयुक्त दल शिखर पर पहुंचा।1953 के बाद दक्षिण दर्रे से चढ़ने वाला यह पहला दल था।

       गत वर्ष 22 मई 2011 को दिल्ली के 16 वर्षीय स्कूली छात्र अर्जुन वाजपेयी ने सबसे कम आयु के भारतीय पर्वतारोही के रूप में एवरेस्ट आहरोण किया था। इससे पूर्व यह कीर्तिमान महाराष्ट्र के 18 वर्षीय कृष्ण पाल के नाम था। यहां यह उल्लेख करना भी आवश्‍यक है कि अर्जुन वाजपेयी के आरोहण के कुछ ही घंटों के बाद कैलीफोरनिया के 13 वर्षीय किशोर जॉर्डन रोमेटो ने इस रिकार्ड को अपने नाम कर लिया था। सबसे वृद्ध पुरुष पर्वतारोही के रूप में नेपाल के 77 वर्षीय मिन बहादुर शेरपा का नाम आता है उन्होंने 2007में इस चोटी पर चढ़ने का दावा किया था परन्तु उसे संदिग्ध माना गया था। वैसे एवरेस्ट पर चढ़ने वाले75 वर्षीय युईचिरो के नाम सबसे बुजुर्ग पर्वतारोही होने का रिकार्ड दर्ज है। मजेदार बात यह है कि उन्होंने दो बार हार्ट सर्जरी करवाने के वावजूद यह कार्य किया है।

       अपा शेरपा अब तक 20 बार इस शिखर का सफलतापूर्वक आरोहण कर चुके हैं।

       29 मई 2003: एवरेस्ट शिखर पर प्रथम आरोहण के उपलक्ष्‍य में भारत में विशेष डाक टिकट जारी किया गया।

       इन कीर्तिमानों को देखने से लगता है कि एवरेस्ट के सन्दर्भ में मई मास का विशेष महत्व है। अधिकतर रिकार्ड इस मास में बनाए गए हैं।

       भारत ने पर्वतारोहण के क्षेत्र में पदार्पण करने के बाद बहुत तेजी से एवरेस्ट आरोहण के अभियानों में सफलता प्राप्त की परन्तु जहां तक पर्वतारोहण के तकनीकी विकास की बात है उसमें हम अन्य देशों की अपेक्षा काफी पीछे हैं। अभी तकनीक विकास के क्षेत्र में हमारे लिए बहुत कुछ करना शेष है। पर्वतारोहण से जुड़े उपकरणों के विकास के क्षेत्र में भी हमें काफी आगे आना है।

       इस खेल के विकास के लिए जरूरी है कि पर्वतों पर पर्वतारोहियों की सुरक्षा के पूरे प्रबंध किए जायें। दुर्घटना होने की हालत में उनके बचाव के उपाय किए जायें। पहाड़ों तक सड़क मार्गों का विकास किया जाए। इस खेल से जुड़े प्रमुख स्थलों के समीप हवाई अड्डों का निर्माण इसे लोकप्रिय बनाने मे सहायक हो सकता है।

       सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि पर्वतारोहण के कारण होने वाले प्रदूषण से वातावरण को बचाया जाए। सर्वविदित है कि जिसे हम नष्ट करते हैं उसकी पूर्ति नहीं कर पाते। न ही प्रकृति इस क्षति की पूर्ति पहले वाली गति से कर पाती है। इस लिए पेड़ों और झाडि़यों के कटान पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए। ईंधन के रूप में गैस अथवा मिट्टी के तेल का प्रयोग अनिवार्य किया जाए। हर दल के लिए यह जरूरी कर दिया जाए कि जब वह वापिस लौटे तो अपने साथ सारा कूड़ा भी लाए। यह कूड़ा लौटने पर अधिकारियों को सौंपा जाए। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि उस दल ने पर्वतों पर गंदगी नहीं छोड़ी।

       एवरेस्ट तो एक ही है और विश्व भर के पर्वतारोहियों के सहज आकर्षण का केन्द्र है। इन दिनों एवरेस्ट पर प्रति मौसम लगभग 300 अभियान जा रहे हैं। पहले केवल पांच सात दल ही जाते थे। आज एवरेस्ट तक पहुंचने वाले सभी पन्द्रह रास्ते कूड़े करकट से भरे पड़े हैं। जहां तहां पर्वतारोहियों के शव दिखाई दे जाते हैं। एवरेस्ट आरोहण के चक्कर में अब तक लगभग 200 लोग अपने प्राण गंवा चुके हैं। किसी जमाने में इसे मौत के मैदान के रूप में जाना जाता था। इन शवों को सबसे अधिक भयानक कूड़ा माना जाता है।

       एवरेस्ट के आस पास कई सौ टन कूड़ा छितराया हुआ है। कई बार एवरेस्ट की सफाई का प्रयास भी किया गया परन्तु हालात में कोई सुधार नहीं हुआ। यही हालत हिमालय की अन्य चोटियों की भी है। इस कारण एडमंड़ हिलेरी ने सुझाव दिया था कि कुछ वर्षों तक एवरेस्ट को आरोहण के लिए बंद कर दिया जाए। हिमालय के अन्य शिखरों को भी बारी बारी से कुछ समय के लिए प्रतिबंन्धित किया जा सकता है।

       यदि नेपाल और भारत की सरकारें पहाड़ों के वातावरण की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठायेंगीं तो भावी पीढि़यां भी पर्वतों की नैसर्गिक सुन्दरता का आनन्द उठा पायेंगीं।

       जहां तक भारत का सम्बन्ध है हमें इस गतिविधि को  एक साहसिक खेल के रूप में ही अपनाने की आवश्यकता नहीं है। राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी इस क्षेत्र में काफी काम करना आवश्यक है। निकट भविष्य में इस क्षेत्र में और भी प्रगति होगी ऐसी आशा है।

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*लेखक एक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं 

दावा अस्‍वीकरण – इस लेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के अपने हैं और यह जरूरी नहीं कि  आई.एन.वी.सी  उनसे सहमत हो।

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