25 जून 1975 आपातकाल – जब लोकतंत्र और संविधान की हत्या हुई।

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 – प्रभात झा –

उस समय कांग्रेस की सरकार थी, इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी। आजाद भारत में 25 जून 1975 को लोकतंत्र की और संविधान की हत्या करने का जो दुस्साहस इंदिरा गांधी ने दिखाया, उसकी याद आते ही आज भी तन-मन सिहर जाता है। देश में अकारण आपातकाल लगा दी गई। अंग्रेजों ने गुलाम भारतीयों के साथ जो सलूक नहीं किया, उससे बदत्तर सलूक इंदिरा गांधी की सरकार ने आम भारतीयों और देश के विपक्षी नेताओं के साथ करना शुरू कर दिया

भारत ने नादिरशाही और हिटलरशाही का ऐसा नंगा नाच पूर्व में कभी नहीं देखा। पूरा देश सकते में था। न बोलने की, न लिखने की, न छापने की, न कानून के शरण में जाने की, न अपनी जिंदगी जीने की, न विरोध करने की और न कार्यपालिका का, न विधायिका का और ना ही न्यायपालिका का  कोई मान था। एक अंगूठे के नीचे देश को लाकर दबा दिया।

इंदिरा गांधी ने पांचवीं लोकसभा का चुनाव रायबरेली से जीता था।  स्व.श्री राजनारायण ने इस चुनाव के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय मे एक याचिका दायर की थी। इस याचिका पर 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायधीश सिन्हा ने इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द घोषित कर दिया। चुनाव रद्द कर छह वर्षों के लिए उन्हें राजनीति से बेदखल कर दिया। बौखलाई इंदिरा गांधी ने इस निर्णय को षडयंत्र करार दे दिया और 25 जून, 1975 रात 12 बजे आपातकाल की घोषणा कर दी। डिफेंस ऑफ इंडिया रूल और मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट (मीसा) लागू कर देश के सभी गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दलों, अनेकों सामाजिक संस्थाओं, राष्ट्रवादी शैक्षणिक संस्थाओं, सामाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, वहीं गैर-कांग्रेसी नेताओं तथा राष्ट्रवादी विचारकों एवं पत्रकारों को रातो-रात गिरफ्तार कर लिया गया।

जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, प्रकाश सिंह बादल, जॉर्ज फ़र्नान्डिस सहित अनेकों नेताओं व कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके जेलों में बंद कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण को दिल्ली में गिरफ्तार किया गया जहां वे इंदिरा सरकार के विरुद्ध एक विशाल जनसमूह का नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ मोरारजी देसाई, राजनारायण, नानाजी देशमुख को भी गिरफ्तार किया गया। वहीं अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी एवं मधु दंडवते को बंगलुरु से गिरफ्तार किया गया जो वहां संसदीय समिति की एक बैठक में भाग लेने  गए हुए थे।

           26 जून की सुबह इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) पर देशवासियों को आपातकाल लगाए जाने की जानकारी दी। आपातकाल लगाने के बाद इंदिरा गांधी ने संविधान की धज्जियां उड़ाना शुरू की। कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और खबरपालिका , लोकतंत्र के इन चारों स्तंभों को बंधक बना लिया गया। देश के आम नागरिकों के सभी मौलिक अधिकार छीन लिए गए। जब विपक्ष के सभी नेता जेल में थे, तब संसद में 41वां संशोधन विधेयक लाया  गया। इस विधेयक ने तो संविधान विधि द्वारा स्थापित न्याय प्रणाली और संसदीय प्रणाली की धज्जियां उड़ा कर रख दीं। सत्ताधारी कांग्रेस ने खुद को संविधान, कानून के ऊपर कर लिया था। व्यक्तिगत और वाक् स्वतंत्रता एवं निजता के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित कर दिया गया। आपातकाल की घोषणा किए जाने के दो दिन बाद 28 जून को प्रेस व मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया गया। समाचार पत्रों पर खबर छापने से पहले सरकार की अनुमति लेने की बंदिश लगा दी गई। और सभी समाचार पत्रो मे सेंसर अधिकारी नियुक्त कर दिये गये।

लोकतंत्र की बहाली का अभियान स्वंय संघ ने अपने हांथों में लिया। अगर यह कहें कि ‘संघ’ गुप्तक्रान्ति का सूत्रधार बना तो यह अतिश्योक्ति नही होगी। संघ को कुचलने के लिए और स्वयंसेवकों के मनोबल को तोड़ने के लिए इंदिरा गांधी और उनके बाबर्ची और ढ़िढ़ोरची  के साथ-साथ दरबारी नेताओं ने न जाने कितने जुल्म किए। हजारों स्वयंसेवक बिना वजह जेलों में ठूस दिए गए, जिससे सैकड़ो स्वयंसेवकों के घर उजड़ और बिखर गए।

इंदिरा गांधी की सरकार कहती थी जेल से बाहर जाना है तो बीस सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करो और जमानत कराओ। यहां यह बताते हुए गर्व होता है कि संघ के स्वयंसेवकों और जनसंघ के नेता और कार्यकर्ताओ ने जेल के सीखचों को कबूल किया पर उन्होने बीस सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन नहीं किया और माफी नही मागी।

उस समय देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही एकमात्र ऐसी संगठित शक्ति थी, जो इंदिरा गांधी की निरंकुशता पर लगाम लगा सकती थी। देश भर में नीचे तक शाखा लगती थी। संभावित प्रतिकार को देखते हुए इंदिरा गांधी ने संघ पर भी प्रतिबंध लगा दिया। लोकतंत्र का पूरी तरह गला घोंट दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भूमिगत नेतृत्व के साथ  गुप्तक्रांती द्वारा देशवासियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने का निर्णय लिया। देशभर की सभी शाखाएं भूमिगत नेतृत्व के साथ जुड़ गए। संघचालक, कार्यवाह, प्रचारक के साथ-साथ संघ के अनेक अनुषांगिक संगठनों जैसे भारतीय जनसंघ,अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद ,भारतीय मजदूर संघ ने आपातकाल विरोधी आंदोलन को ताकत दी। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दलों, निष्पक्ष विचारकों को भी एक मंच पर लाकर लोकतंत्र के पुनर्स्थापन का शंखनाद किया।

अपने संगठन की सर्वश्रेष्ठ परम्परा को कायम रखते हुए संघ ने राष्ट्रहित में काम करने की अपनी कार्यप्रणाली को अक्षुण्ण रखते हुए आंदोलन का नेतृत्व नानाजी देशमुख के माध्यम से जयप्रकाश नारायण के हाथों में सौप दिया, जिन्होंने आपातकाल और इंदिरा गांधी के भ्रष्ट और निरंकुश सत्ता के विरुद्ध सम्पूर्ण क्रांति का नेतृत्व किया। संगठनात्मक बैठकें, जनजागरण हेतु साहित्य का प्रकाशन और वितरण, सम्पर्क की योजना, सत्याग्रहियों की तैयारी, सत्याग्रह का स्थान, प्रत्यक्ष सत्याग्रह, जेल में गए कार्यकर्ताओं के परिवारों की चिंता और गुप्तचरी के माध्यम से संघ के भूमिगत नेतृत्व ने अदम्य साहस और संगठन कौशल का परिचय दिया। देशभर में संघ के सैकडो़ं प्रचारकों को जेल भेजा गया। एक लाख से भी अधिक स्वयंसेवकों को कारावास हुआ।

जुल्म ज्यादतियों का दौर ऐसा था कि संजय गांधी या तत्कालीन कांग्रेस के जिलाध्यक्षों द्वारा जेल भेजे जाने वालों की सूची रात को बनायी जाती थी और सुबह पुलिस उन्हे पकड़कर जेलो मे ठूस देती थी। आप विवाहित हो या अविवाहित, नसबंदी का कोटा पूरा करने की आड़ में न जाने कितने नवविवाहितों और न जाने कितने कुवारों की नसबंदी कर दी गयी। नसबंदी और हदबंदी का ऐसा बुरा दौर कभी नहीं देखा गया।

पूरे देश को बदले की आग में झोंक दिया गया था। संजय गांधी ने आतंक का ऐसा दौर चलाया था कि भारत के आम नागरिकों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था।

 

अखबारों में क्या छपेगा यह न पत्रकार तय करते थे और न ही संपादक। वे जो लिखते थे, उसे सरकारी मीडिया पूरी तरह जांच करती थी, और जब वह अनुमति दे देती थी, तब अखबार छपने जाया करता था। सेंसरशिप के इस दौर ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पूरी तरह समाप्त कर दिया था उस समय कोई ऐसा व्यक्ति सामने नहीं आया, जैसा आजकल असहिष्णुता के नाम पर सामने आ जाते हैं।

इंदिरागांधी के असहिष्णुता और असंवेदनशीलता के साथ-साथ पूरी तरह असंवैधानिक कृत्य का विरोध करने का साहस उन जांबाजों मे कभी नही देखा गया, जो आजकल असहिष्णुता के नाम पर तत्काल बाहर आ जाते हैं।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ के तत्कालीन मालिक रामनाथ गोयनका को इंदिरागांधी ने पी.एम.ओ में बुलाया। इंदिरागांधी ने कहा कि आपका समाचार पत्र आपातकाल का विरोध कर रहा है। आप या तो विरोध करना बंद करें नहीं तो आपका समाचार पत्र बंद हो जाएगा। इंदिराजी के इतना कहने के बाद रामनाथ गोयनका कुर्सी से उठे और कहा कि समाचार पत्र अपना काम करता है वह सरकार का समाचार पत्र नहीं है, बल्कि हम जनता के लिए समाचार पत्र निकालते हैं। बात रही समाचार बंद करने की तो मैंने अपनी जिंदगी की शुरूआत फुटपाथों के व्यवसाय से शुरू की है। मैं वहां तक पुनः जा सकता हूं, पर समाचार पत्र अपना उद्देश्य नहीं बदल सकता। श्री रामनाथ गोयनका के इस अदम्य साहस की सर्वत्र सराहना हुई।

             आपातकाल के दिनों में बंगाल भी मूक दर्शक नही रहा। 14 नवम्बर, 1975 से वहां जो सत्याग्रह शुरू हुआ, उसकी बागडोर संभाली थी मिदनापुर , राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जिला कार्यवाह लहरकान्ति मजूमदार एडवोकेट, तहसील कार्यवाह लक्ष्मीकांत सेन तथा सर्वोदयी नेता क्षितीश राय चौधरी ने सभी तहसीलों में सत्याग्रही जत्थे तैयार किये। तामलुक तहसील में बंगाल प्रांत के पूरे मंत्रिमण्डल की बैठक आयोजित थी। मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय उसकी अध्यक्षता करने वाले थे।  जिस दिन श्री राय तामलुक में आने वाले थे , सभी स्थानों पर “सिद्धार्थ जवाब दो’-“इंदिरा जवाब दो’, “जयप्रकाश आदि नेता जेल में क्यों? “लोकतंत्र का गला क्यों घोंटा गया?’ नारे गूंज रहे थे।

            प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निजी सचिव रह चुके आरके धवन ने देश में आपातकाल के लिए स्वर्गीय सिद्धार्थ शंकर राय को दोषी ठहराया था। जैसाकि आरके धवन  ने एक साक्षात्कार में कहा था ‘आपातकाल का पूरा ताना-बाना पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय  ने बुना था। उन्होंने 8 जनवरी 1975 को पत्र लिखकर आपातकाल की तरह कठोर कार्रवाई करने की सलाह दी थी।  इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद सिद्धार्थ शंकर राय ने दोबारा पत्र लिखकर आपातकाल के लिए उन्हें प्रेरित किया था। वहीं इंदिरा गांधी के लिए कम्युनिस्ट कांग्रेस के संसदीय प्रतिनिधियों से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी। कांग्रेस के साथ 1971 में कम्युनिस्टों  के साथ औपचारिक गठबंधन के फलस्वरूप इंदिरा गांधी की समाजवादी सोच प्रबल हुई। कम्युनिस्टों को राज्यसत्ता द्वारा उदारतापूर्वक उपकृत व  पुरस्कृत किया गया। आपातकाल का समर्थन स्वाभाविक था। कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी बैठक में आपातकाल को अनुशासनात्मक नियंत्रण के लिए न्यायोचित भी ठहराया था।

             आपातकाल के कारण 19 महीने तक लोकतंत्र के सूर्य को उगने ही नहीं दिया। निरंकुश सत्ता ने भारतीय लोकतंत्र को दमन और भ्रष्टाचार के हवाले कैसे कर दिया, इस पर कई पुस्तकें लिखी गई हैं। कैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निरंकुश नौकरशाहों और नेताओं के पास बंदी बना ली गई थी। कैसे न्यायपालिका को कार्यपालिका के हाथों की कठपुतली बनाकर नचाया जा रहा था। देश में किस प्रकार से अराजक तत्व मनमानी करने लगे थे और किस प्रकार से अधिनायकवादी को खुलकर तांडव करने का अवसर मिल रहा था।

               1971 से1974 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पाञ्चजन्य के संपादक दीनानाथ मिश्र ने आपातकाल के दौरान भीषण संकट और दमन झेला। उन्होंने आपातकाल  पर ‘गुप्तक्रान्ति नामक पुस्तक लिखी जो 1977 में प्रकाशित हुई। यह पुस्तक आपातकाल पर एक संपूर्ण तथ्य है। दीनानाथ मिश्र ने अपने पुस्तक में यह दर्शाया है कि ‘उस समय सत्ता के लिए जनता सिर्फ चुनाव जीतने का माध्यम थी उससे आगे कुछ नहीं।‘ वे लिखते हैं ‘जब तक लोकतंत्र द्वारा श्रीमती इंदिरा गांधी को सत्ता पर बनाये रखा गया, तब तक श्रीमती गांधी ने लोकतंत्र को बनाये रखा। जिस दिन लोकतंत्र उन्हें प्रधानमंत्री बनाये रखने में नाकामयाब होने लगा, श्रीमती गांधी ने लोकतंत्र को नाकामयाब कर दिया।’ साथ ही वे यह भी लिखते हैं कि ‘बलात नसबंदी, पुलिसिया कहर, सेंसरशिप तथा अपनों को जेल में यातनाएं सहते देखकर आक्रोशित हुई जनता ने अधिनायकवाद की ध्वजवाहक इंदिरा गांधी का तख्ता पलट दिया। जनता विजयी हुई और देश को पुनः लोकतंत्र मिल गया।‘ यह लोकतंत्र फिर से किसी अधिनायकवादी और निरंकुश सोंच की कठपुतली न बने, यह हर भारतीय का कर्तव्य है।  

            आज भारत दुनिया का न केवल सबसे बड़ा और सबसे सफल लोकतंत्र है। भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की मिसाल पूरी दुनिया में दी जाती है। लेकिन 25 जून 1975 को जो हुआ, भारत का लोकतंत्र और भारतीय जनमानस कभी नहीं भूलेगा। कांग्रेस सरकार और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल के कारनामों से भारतीय लोकतंत्र को जो कलंकित किया वह अक्षम्य था, अक्षम्य है और अक्षम्य रहेगा। आज कांग्रेस भारतीय लोकतंत्र के साथ किये गए उस अपराध की सजा भुगत रही है। जहां लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी, आज दो-तीन राज्यों में सिमट कर रह गई है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों सहित दो-तीन राज्यों को छोड़कर लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्री आपातकाल दमन से निकले हुए लोकतंत्र के सिपाही हैं।

आपातकाल के बाद 1977 में हुए आम चुनावों में देश की जनता ने कांग्रेस और इंदिरा गांधी को उनके किये की सजा दी।  देश में पहली बार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। संविधान के पन्नों को फिर से सहेजा गया। सबसे पहले  सरकार द्वारा 43वें संविधान संशोधन लाकर सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों को उनके अधिकार वापस दिए गए। सर्वोच्च न्यायालय ने भी 42वें संशोधन के कई प्रावधानों को असंवैधानिक करार देते हुए संविधान को उसका मूल स्वरुप लौटाया। इसके बाद 44वां संशोधन लाया गया। न्यायपालिका को दोबारा मजबूती देकर और 42वें संशोधन के दोषों को दूर करने के साथ ही 44वें संशोधन द्वारा संविधान को अपेक्षा से अधिक सशक्त किया गया, ताकि आपातकाल जैसी स्थिति लाकर फिर से भारतीय लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ न किया जा सके। आपातकाल के बाद 1977 में हुए आम चुनावों

लेकिन कांग्रेस को आपातकाल की पूर्ण सजा तब मिली मानी जायेगी जब कांग्रेस मुक्त भारत होगा। कांग्रेस भारतीय लोकतंत्र में एक सोंच है, एक मानसिकता है, जो भारत और भारतीयता का विरोधी है। लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा है। भारत के विश्व महाशक्ति बनाने में बाधक है। भारतीय लोकतंत्र को ऐसी निरंकुश मानसिकता के चंगुल से बचाना हमारा नागरिक कर्तव्य है।

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परिचय – :

प्रभात झा

लेखक व् राजनीतिज्ञ

 

भाजपा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व राज्य सभा सांसद

 

Prabhat Jha was a member of the Rajya Sabha from Madhya Pradesh state in India. He was the Madhya Pradesh Bharatiya Janata Party President in 2010 until December 2012. Presently he is the National Vice President of Bharatiya Janata Party.

 

 

 

He was a journalist before joining politics.

 
 

Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS.   

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