‘हिंदी विलाप’: हकीकत या पाखंड ?

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– तनवीर जाफरी –

INVCNEWS-PIप्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी विगत 14 सितंबर को उत्तर भारत में कई सरकारी व गैर सरकारी विभागों,संस्थानों व संगठनों द्वारा हिंदी दिवस मनाए जाने की औपचारिकताएं पूरी करने के समाचार सुनाई दिए। सोशल मीडिया पर हिंदी दिवस एक-दूसरे को बधाईयां देकर मनाया गया। तमाम हिंदी प्रेमियों ने अपने देश की इस राजभाषा को लेकर अपने नाना प्रकार के विचार व्यक्त किए। किसी ने हिंदी दिवस मनाए जाने को आवश्यक बताया तो किसी ने हिंदी दिवस से संबंधित सरकारी आयोजनों को मात्र एक औपचारिकता या पाखंड बताया। प्रसिद्ध कवि कुमार विश्वास ने व्यंगात्मक लहजे में यह दो लाईने इस अवसर पर पोस्ट की। उन्होंने लिखा-‘संसद से लेकर सडक़ तलक केवल नारे ही शेष मिले। हिंदी का दिवस मनाने को अंग्रेज़ी में आदेश मिले’।। कुमार विश्वास की यह पंक्ति हमारे देश में राजभाषा हिंदी की वास्तविक कद्रदानी की गाथा का बखान करती है। गौरतलब है कि हमारे देश की संविधान सभा में 14 सितंबर 1949 को सर्वसम्मत से यह निर्णय लिया गया था कि हिंदी भाषा ही पूरे भारत की राजभाषा रहेगी। संविधान सभा के इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने के उद्देश्य से तथा भारत के सभी क्षेत्रों में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने हेतु 1953 से पूरे भारतवर्ष में प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर का दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाए जाने की औपचारिकताएं पूरी की जा रही हैं। महात्मा गांधी हिंदी को जनमानस की भाषा कहते थे। 1918 में गांधी जी ने ही सर्वप्रथम हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव दिया था।

परंतु क्या हम हिंदी के प्रति समस्त भारतवासियों का वही प्यार,लगाव, हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार तथा उसकी स्वीकार्यता को लेकर किसी प्रकार की गंभीरता या समर्पण देख रहे हैं? क्या आज कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के सभी नागरिक हिंदी भाषा पढऩा-लिखना व समझना भली-भांति जानते हैं अथवा ज़रूरी समझते हैं? और आम नागरिकों की तो बात ही क्या करनी क्या भारत की संसद में बैठे सभी नेतागण हिंदी का ज्ञान रखते हैं? बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती बल्कि उत्तर भारत के हिंदी दिवस के स्वयंभू ठकेदार जिन्होंने हिंदी भाषा को अपने जीविकोपार्जन का माध्यम बना रखा है क्या वे लोग हिंदी भाषा के साथ न्याय कर रहे हैंं? यहां मेरा तात्पर्य उन अनेक व्यवसायिक मानसिकता रखने वाले तथा कथित हिंदी प्रेमियों से है जो समाचार पत्र-पत्रिका अथवा टीवी चैनल्स या मीडिया के दूसरे माध्यमों के द्वारा हिंदी को व्यवसाय के रूप में प्रयोग तो करते हैं परंतु इसके प्रति पूरी ईमानदारी नहीं बरतते। इसी प्रकार की मानसिकता रखने वाले मीडिया घराने के कई स्वामी ऐसी सोच रखते हैं कि भाषा ऐसी होनी चाहिए जो आम लोगों की समझ में यथाशीघ्र आ सके। गोया उनकी कोशिश यह नहीं होती कि वे हिंदी भाषा में ही किसी भी शब्द को लिखने का प्रयास करें ताकि पाठकगण उस शब्द के हिंदी रूप को पढ़ व समझ सकें।

उदाहरण के तौर पर आज उत्तर भारत के हिंदी क्षेत्रों में चलने वाले कुछ ही समाचार पत्र शायद ऐसे हों जो महाविद्यालय शब्द का प्रयोग करते हों। अन्यथा रेडियो,टीवी से लेकर समाचार पत्र-पत्रिकाओं तक में कॉलेज शब्द का प्रयोग होते हुए ही देखा जाएगा। विश्वविद्यालय के सथान पर यूनिवर्सिटी का प्रयोग करना अधिक सुविधाजनक समझा जाता है। और इंतेहा तो उस समय हो जाती है जबकि हिंदी भाषा में अंग्रेज़ी के इन्हीं आयातित शब्दों को हिंदी के तरीके से बहुवचन में भी बदल दिया जाता है। यानी कॉलेज का बहुवचन कॉलेजों,स्कूल को स्कूलों तथा चैनल को चैनलों बोला व लिखा जाता है। यदि समाचार पत्रों को अधिशासी अभियंता लिखना है तो अनेक समाचार पत्र हिंदी के इस शब्द का प्रयोग करने के बजाए एक्जि़क्यूटिव इंजीनियर लिखना ज़्यादा पसंद करते हैं। वकील के बजाए ऐडवोकेट शब्द का प्रयोग किया जाता है। अध्यापक की जगह टीचर लिखा व बोला जाता है। उपायुक्त को प्रत्येक पढ़ा-लिखा व अनपढ़ व्यक्ति प्राय: डीसी कहकर ही संबोधित करता है। इसी प्रकार पुलिस अधीक्षक को एसपी कहना व लिखना लगभग आम बात है। इस प्रकार के हज़ारों ऐसे उदाहरण हैं जो प्रतिदिन प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों व रेडियो-टीवी उद्घोषकों व समाचार वाचकों के माध्यम से पढ़े व सुने जा सकते हैं। इस वास्तविकता को स्वीकार करने के बाद क्या हमें इस बात का अधिकार है कि हम गैर हिंदीभाषियों खासतौर पर दक्षिण भारत या पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों पर इस बात का देाष मढें़ कि वे राजभाषा हिंदी को स्वीकार क्यों नहीं करते? या हम हिंदी प्रेम के प्रदर्शन को लेकर घडिय़ाली आंसू बहाते नज़र आएं?

बावजूद इसके कि हिंदी भाषा केवल हमारे देश की ही स्वीकार्य राजभाषा है तथा इस विशाल भारतवर्ष में भी प्रत्येक राज्य में लिखी,बोली व समझी नहीं जाती। फिर भी हिंदी,अंगेज़ी व चीनी भाषा के बाद बोली जाने वाली दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। परंतु जो हिंदी भाषा इस समय सबसे अधिक बोली जा रही है निश्चित रूप से यह वही हिंदी है जिसमें अंग्रेज़ी,उर्दू व फारसी के अनेक शब्द समाहित हो चुके हैं।जैसेस्टेशन,पायजामा,स्कूल- कॉलेज,अदालत,मुंसिफ,पंजाब,टेबल,बेड,इनाम ओहदा,असलहा,टीवी,रेडियो,अखबार,मैगज़ीन,होटल,रेस्टोरेट,वेटर,कापी,पेन-पेंसिल पुलिस,इंजीनियर,ऑिफस,कमिश्रर जैसे हज़ारों शब्द ऐसे हैं जो अंग्रेज़ी उर्दू या फ़ारसी भाषा के होने के बावजूद हिंदी भाषा में ऐसे समाहित हुए कि आज इनका प्रयोग करने वाले जो हिंदी साहित्य के विषय में अधिक ज्ञान नहीं रखते वे उपरोक्त इन जैसे तमाम शब्दों को हिंदी का शब्द ही समझते हैं।  यह सही हुआ या गलत यह अलग सी बात है पंरतु यह तो सच है कि ऐसे शब्दों के हिंदी में प्रवेश कर जाने व इनकी आम लोगों में स्वीकार्यता बढ़ जाने की वजह से इन शब्दों की वास्तविक हिंदी ज़रूर कहीं पीछे चली गई है। और ऐसे शब्दों को अपनी आम बोलचाल में प्रयोग करने वाले ‘हिंदी प्रेमी’ लोग अब यह कहते सुनाई देने लगे हैं कि भाषा ऐसी होनी चाहिए जो संवाद स्थापित कर सके और जिसके माध्यम से एक-दूसरे को यह समझाया जा सके कि आिखर कहा या बताया क्या जा रहा है।
हिंदी प्रेम का पाखंड रचने वालों की एक और कड़वी सच्चाई यह है कि यदि आप देश के 99 प्रतिशत स्वयंभू हिंदी प्रेमियों के घरों में झांककर देखें तो उनके परिवार के अपने बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते देखे जाएंगे। बावजूद इसके कि मोबाईल निर्माताओं ने मोबाईल में हिंदी भाषा का विकल्प भारतवर्ष में दे रखा है फिर भी शायद ही पांच प्रतिशत लेाग हिंदी भाषा के विकल्प का प्रयोग करते दिखाई देंगे। हमारे देश में तो हालत ऐसी है कि जो व्यक् िटूटी-फूटी ही सही परंतु यदि वह अंग्रेज़ी बोलना जानता है तो उसी को शिक्षित व्यक्ति समझा जाता है और जो व्यक्ति हिंदी का भरपूर ज्ञान रखता हो उसे अंग्रेज़ी बोलने वाले की तुलना में कम ज्ञानी आंका जाता है। हमें चीन जैसे देश में अंग्रेज़ी भाषा के प्रति इतना मोह दिखाई नहीं देता जितना कि भारतवर्ष में है।

भारत में हिंदी राजभाषा होने के बावजूद आज देश की अधिकांश अदालतें अंग्रेज़ी में ही अपना कामकाज करती हैं। देश के केंद्रीय सचिवालय से लेकर राज्य सचिवालयों तक में अंग्रेज़ी भाषा का ही वर्चस्व है। और कई राज्य ऐसे भी हैं जो अंग्रेज़ी भाषा के बाद अपने राज्य की क्षेत्रीय भाषा को ही प्राथमिकता के तौर पर प्रयोग करते हैं। गोया हिंदी भाषा यहां तीसरे और चौथे नंबर पर चली जाती है। वर्तमान केंद्र सरकार अपने आपको हिंदी ही नहीं बल्कि संस्कृत भाषा का प्रेमी भी दर्शाने की कोशिश करती है। परंतु जब हमारे प्रधानमंत्री देश के विकास व प्रगति को लेकर किसी योजना अथवा नारे की घोषणा करते हैं तो हमें अंग्रेज़ी का भूत वहां भी सर चढ़ कर बोलता दिखाई देता है। मेक इन इंडिया,स्टार्टअप इंडिया,डिजिटल इंडिया, स्किल्ड इंडिया, वाईबे्रंट गुजरात,ज़ीरो डिफेक्ट एंड ज़ीरो इफेक्ट, रिफॉर्म टू ट्रांसफार्म आदि ऐसे नारे,योजनाएं और शब्द हैं जो प्रधानमंत्री के मुंह से प्राय: सुनाई देते हैं। क्या इन शब्दों को हिंदी में रुपांतरित नहीं किया जा सकता?

कुल मिलाकर यदि वास्तव में हिंदी भाषा के प्रति पे्रम दर्शाना है तथा राजभाषा के वास्तविक रूप में इसकी स्वीकार्यता को धरातल पर लाना है तो भले ही हम अपने ज्ञानवर्धन के लिए अन्य भाषाओं को सीखें-पढ़े परंतु हमें प्राथमिकता हिंदी भाषा को ही देनी चाहिए। केवल सरकारी खर्च पर हिंदी प्रेम का ढोंग रचने या हिंदी विलाप का नाटक करने मात्र से ही हिंदी का कल्याण नहीं होने वाला। इस प्रकार का हिंदी विलाप दरअसल हकीकत से कोसों दूर और हिंदी प्रेम के पाखंड का सबसे बड़ा उदाहरण है।

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tanver jafriAbout the Author

Tanveer Jafri

Columnist and Author

Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.

He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.

Contact – :
Email – tjafri1@gmail.com –  Mob.- 098962-19228 & 094668-09228 , Address –  1618/11, Mahavir Nagar,  AmbalaCity. 134002 Haryana

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Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC NEW.

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