“ हिंदी मीडियम ” बहाने जिक्रे सरकारी स्कूल

0
28

– जावेद अनीस –

“इस देश में अंग्रेजी कोई जबान नहीं है, यह क्लास है, और क्लास में घुसने के लिए एक अच्छे स्कुल में पढ़ने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है” यह मई 2017 में प्रदर्शित “हिंदी मीडियम” का डायलाग है. “हिंदी मीडियम” क ऐसी फिल्म है जो भारतीय समाज में वर्ग भेद  और स्कूली शिक्षा में विभाजन को दिखाती है. यह हमारे मध्यवर्ग के बड़े प्राइवेट स्कूलों में  अपने बच्चों के दाखिले को लेकर आने वाली परेशानियों के साथ उनके  द्वंद  को भी बहुत बारीकी से पेश करती है और अंत में इस  समस्या का हल पेश करने की कोशिश भी करती है. फिल्म बताती है कि किस तरह से किस तरह से शिक्षा  जैसी बुनियादी जरूरत को कारोबार बना दिया गया है  और अब यह स्टेटस सिंबल  का मसला भी बन चूका है. हमारे समाज में  जहाँ अंग्रेजी बोलने को एक खास मुकाम मिलता है जबकि हिंदी बोलने वाली जमात को कमतर समझा जाता है और उनमें भी एक तरह से हीन भावना भी होती है जिसके चलते वे अंग्रेजी बोलने वाली जमात में शामिल होने होने का कोशिश भी करते रहते हैं . ‘हिंदी मीडियम’ की खासियत यह है की वह एक बहुत ही जटिल और गंभीर विषय को बहुत ही  आसान और दिलचस्प तरीके से पेश करती है. यह एक व्यंग्यात्मक शैली की फिल्म है जो दर्शकों को सोचने को भी मजबूर करती है.

यह शायद पहली फिल्म है जो शिक्षा का अधिकार अधिनियम को लेकर इतने स्पष्ट तरीके से बात हुए उसकी खामियीं को उजागर करती है. ज्ञात हो कि शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के तहत प्राइवेट स्कूलों में गरीब  वंचित वर्ग के 25 प्रतिशत बच्चों को प्रवेश देना अनिवार्य है जिसका खर्च खर्च सरकार उठाती है. लेकिन प्राइवेट स्कूलों द्वारा इसका ठीक से पालन नहीं किया जाता है पालन नहीं किया गया है. इस प्रावधान को लेकर प्राइवेट स्कूलों और अभिभावकों की तरह से यह भी कहा जाता है कि गरीब और वंचित वर्ग के बच्चों को उनके बच्चों के साथ पढ़ना ठीक नहीं है क्यूंकि गरीब वर्गों के बच्चे होते हैं , गाली देते हैं और उनके पढ़ाई और सीखने का लेवल भी कम होता है .

हिंदी मीडियम में  दिखाया गया है कि की कैसे एक अमीर परिवार  इस कानून की खामियों का सहारा लेकर, अपने बच्चे का एडमिशन एक बड़े प्राइवेट स्कूल  में  बी.पी.एल. कोटे से कराने में सफल हो जाता है. यह एक नव-धनाढ्य परिवार द्वारा अपने बेटी की शहर के नामी स्कूलों दाखिला दिलाने को लेकर किये जाने वाले जोड़-तोड़ की कहानी है .

फिल्म की कहानी के केंद्र में राज बत्रा (इरफान खान) और मीता (सबा करीम) नाम की दंपति है जो दिल्ली के चांदनी चौक की रहने वाली है. राज बत्रा कपड़े का व्यापारी है उसने अपने खानदानी बिजनेस को आधुनिक तरीकों से आगे बढ़ाते हुए काफी तरक्की कर ली है . उसके पास कपड़ों का एक बड़ा शो-रूम हो गया है. जिसके बाद यह परिवार  चांदनी चौक छोड़कर वसंत विहार की पाश कालोनी में रहने पहुंच जाते हैं. यहाँ तक तो सब ठीक चलता है इसके बाद यह मीता इसलिए परेशान रहने लगती है क्यूंकि उसके पति को अंग्रेजी नहीं आती है जिसके चलते  वो ‘क्लास’ लोगों में उठने-बैठने में असहज महसूस करती है.

राज व मीता अपनी बेटी पिया को दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ गिने जाने वले पांच अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में प्रवेश दिलाने का फैसला करते हैं और फिर दोनों जी-जान से लग जाते हैं कि किसी भी तरह से  उनकी बेटी का टॉप अंग्रेजी स्‍कूल में दाखिला हो जाए. इसके लिये वे एक कंसल्टेंट की मदद लेते हैं, जो उन्हें अभिभावक के रूप में इंटरव्यू फेस करने की ट्रेनिंग देती है. लेकिन सारी कोशिशें के बावजूद वे नाकाम होते हैं. फिर कंसल्टेंट द्वारा उन्हें सुझाव दिया जाता है कि अपने पसंदीदा स्कूल में बेटी को प्रवेश दिलाने के लिए उन्हे ‘राइट टू एज्यूकेशन’ के तहत हर प्राइवेट स्कूल में तय पच्चीस प्रतिशत गरीबों  के कोटे का सहारा लेना चाहिए. इसके लिए वह गरीब होने के कागजात जुटा लेते हैं. बाद में उन्हें जब पता चलता है कि स्कूल वाले घर देखने भी आएंगे तो वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ एक झुग्गी-बस्ती  में शिफ्ट हो जाते हैं. . जहां उनका पड़ोसी श्याम प्रकाश (दीपक डोबरियाल), उसकी पत्नी व बेटा मोहन रह रहा है. श्याम प्रकाश अपनी तरफ से राज की मदद करने का पूरा प्रयास करता है. जब 24 हजार जमा करने का वक्त आता है, तो श्याम प्रकाश खुद की जिंदगी खतरे में डालकर राज को पैसा देता है. पर जब गरीब कोटे की लाटरी निकलती है, तो श्याम प्रकाश के बेटे को तो स्कूल में प्रवेश नहीं मिलता है, पर राज व मीता अपनी बेटी पिया को मिल जाता है. इसके बाद  राज व मीता अपनी बेटी पिया के साथ वापस अपने पाश मकान में रहने चले जाते हैं. लेकिन अपराध बोध से ग्रस्त होते हैं और इसे दूर करने के लिए वे राज एक सरकारी स्कूल को पैसे देकर उसका  हालात सुधारने में मदद करने लगते हैं लेकिन राज  के अनादर से यह एहसास नहीं जाता है कि उसने किसी गरीब का हक मारा हैऔर अंत में राज व मीता अपनी बेटी पिया को अंग्रेजी स्कूल से निकाल कर श्याम प्रकाश के बेटे मोहन के साथ सरकारी स्कूल में प्रवेश दिला देते हैं.

फिल्में मनोरंजन के साथ-साथ सन्देश देने और नजरिया पेश करने का जरिया भो होती हैं “हिंदी मीडियम”   यह दोनों काम करती है. यह जिस तरह से शिक्षा जैसे सामाजिक सरोकार के मसले को सिनेमा की भाषा में परदे पर पेश करती है वो काबिलेतारीफ है. फिल्म का अंत बहुत की क्रूर तरीके से समाज की मानसिकता को दिखता है जहाँ सामान शिक्षा के बारे में सोचने और बात करने वाले लोग  हाशिये पर रहते हैं. समाज की तरह यहाँ भी नायक अकेला खड़ा नजर आता है

________________

परिचय – :

जावेद अनीस

लेखक , रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता

लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़  कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द  के मुद्दों पर काम कर रहे हैं,  विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !

जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास  मुद्दों पर  विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और  वेबसाइट में  स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !

Contact – 9424401459 – E- mail-  anisjaved@gmail.com C-16, Minal Enclave , Gulmohar colony 3,E-8, Arera Colony Bhopal Madhya Pradesh – 462039.

Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC  NEWS.












LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here