हरियाणा की बिजली कंपनियों को कुल आठ हजार आठ सौ तीस करोड़ रूपये का घाटा वहन करना पड़ रहा है -: देवेन्द्र सिंह

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आई.एन.वी.सी,,
हरियाणा,,
हरियाणा में पिछले दस साल के दौरान बिजली आपूर्ति पर आने वाली लागत में 330 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। जबकि उपभोक्ताओं से वसूली जाने वाली बिजली की दरों में मात्र 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस कारण बिजली आपूर्ति पर आने वाली लागत और वसूली में प्रति यूनिट दो रूपये पचास पैसे का अंतर आ चुका है। परिणामस्वरूप दक्षिण हरियाणा बिजली वितरण निगम और उत्तर हरियाणा बिजली वितरण निगम को कुल आठ हजार आठ सौ तीस करोड़ रूपये का घाटा वहन करना पड़ रहा है।
यह जानकारी आज दक्षिण हरियाणा बिजली वितरण निगम और उत्तर हरियाणा बिजली वितरण निगम के अध्यक्ष व प्रबन्ध निदेशक श्री देवेन्द्र सिंह ने दी। उन्होंने कहा कि प्रदेश में बिजली की खरीद पर आने वाली लागत में पिछले दस साल के दौरान ईंधन में वृद्धि होने, कोयले की कमी होने आदि के कारण 335 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जिससे बिजली आपूर्ति पर आने वाली लागत में 330 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। जबकि इस दौरान बिजली की दरों में मात्र दो बार, (अक्टूबर-2011 में 11 प्रतिशत और अप्रैल-2012 में 16 प्रतिशत) वृद्धि की गई है। उन्होंने बताया कि परिचालन पर आने वाले अपने खर्चों से निपटने के लिए बिजली वितरण निगमों को इतना कर्ज लेना पड़ा है कि मात्र उसके ब्याज के कारण प्रति यूनिट डेढ़ रूपये की लागत बढ़ी है। इस समय प्रदेश में बिजली वितरण निगमों पर लगभग उन्नीस हजार करोड़ रूपये का कर्ज है। उन्होंने कहा कि वित्तीय पुर्नगठन कार्यक्रम (एफ.आर.पी.) के कारण बिजली वितरण निगमों को तीन साल के लिए कर्जो की अदायगी करने के दबाव से राहत मिली है।  राज्य सरकार ने भी कर्जे की पचास प्रतिशत जिम्मेवारी ली है। इस पुर्नगठन के तहत कर्ज की शेष मूल राशि की अदायगी तीन साल के लिए स्थगित कर दी गई है। ऐसा होने से बैंकों ने बिजली वितरण निगमों को पुनः कर्ज देना शुरू कर दिया है। अब आशा है कि एफ.आर.पी. के परिणामस्वरूप प्रति यूनिट औसत राजस्व वसूली और औसत आपूर्ति की लागत में अगले तीन साल के दौरान सकारात्मक बदलाव होगा। उन्होंने कहा कि वित्तीय प्रतिवर्तन के लिए योजना के तहत बिजली निगमों के कर्मचारियों और इंजीनियरों को समग्र तकनीकी और व्यवसायिक घाटे में वर्तमान 30 प्रतिशत से 15 प्रतिशत तक घटाकर लागत में 60 पैसे प्रति यूनिट की कमी लाने की जिम्मेवारी सौंपी गई है। इसके अलावा शहरों और गांवों में  बिजली आपूर्ति प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक योजनाएं तैयार की गई हैं ताकि विश्वसनीय बिजली आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके और आपूर्ति के समय में बढ़ोतरी की जा सके। श्री देवेन्द्र सिंह ने स्पष्ट किया कि ईंधन अधिभार समायोजन (एफ.एस.ए.) ईंधन पर आने वाली अतिरिक्त लागत है जो बिजली उत्पादक कम्पनियों को पहले ही अदा कर दी गई है किन्तु बिजली वितरण निगमों ने अभी उपभोक्ताओं से वसूली नहीं है। इस सम्बन्धित समय के बिजली के बिलों में ईंधन की बढ़ी हुई लागत नहीं लगाई गई होती है जो वास्तव में बिजली खरीदते समय बिजली उत्पादक कम्पनियों को अदा कर दी गई है।  इस प्रकार बिजली वितरण निगमों को उक्त समय के दौरान जो घाटा हुआ है या बिजली खरीद पर अतिरिक्त लागत देनी पड़ी है वो बिजली वितरण निगमों द्वारा ईंधन अधिभार समायोजन के माध्यम से वसूली जाती है। उन्होंने कहा कि एफ.एस.ए. बिजली की दरें नहीं होता। ये तय समय के दौरान वसूली होने पर स्वतः समाप्त हो जाता है। इसके तहत केवल वह बढ़ी हुई लागत वसूली जाती है जो ईंधन की लागत बढ़ने के कारण बिजली उत्पादकों को बिजली खरीद के दौरान अदा की जाती है। उन्होंने बताया कि ईंधन अधिभार समायोजन एक बिजली नियामक आयोग द्वारा स्वीकृत स्वतः लागत वसूलने वाला तंत्र है।  जिसके द्वारा बिजली वितरण निगम बिजली खरीद पर आने वाली उस अतिरिक्त लागत की वसूली की जाती है जिसकी वसूली आधारभूत दरों के माध्यम से नहीं की गई है। ईंधन और बिजली खरीद की लागत को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि वार्षिक दरें तय करते समय प्रकृति के मिजाज का सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है। बिजली नियामक आयोग के समक्ष वार्षिक राजस्व रिपोर्ट जमा करते समय लागत सही अनुमान नहीं दिया जा सकता है क्योंकि यह बिजली वितरण निगमों के नियंत्रण से बाहर है और इन कारकों पर निर्भर करता है (क) पिछले कुछ वर्षो से ईंधन की दरें अप्रत्याशित रही हैं। (ख) मौसम का हाल जैसे कम वर्षा और अधिक गर्मी का मांग पर सीधा प्रभाव पड़ता है। (ग) देश में बिजली की मांग और उपलब्धता में अंतर। उन्होंने बताया कि वित्तीय पुर्नगठन योजना में लगाई गई शर्तों के अनुसार ईंधन अधिभार मासिक आधार पर समायोजित किया जाना चाहिए और किसी भी सूरत में यह समय तीन माह से ज्यादा नहीं होगा। क्यांकि बिजली वितरण निगमों का बिजली खरीद ही मुख्य खर्च होता है व इस पर उनका नियंत्रण भी नहीं है। इसके अलावा बिजली नियामण आयोग द्वारा मान लिए गए अन्य कई खर्च भी होते हैं। किन्तु दरों में ज्यादा उछाल न आए इसलिए उनकी तत्काल वसूली की अनुमति नहीं दी जाती। उदाहरण के तौर पर छठा वेतन आयोग लागू करने के कारण कर्मचारियों को जो बकाया की अदायगी की गई थी वो अगले तीन वर्ष के समय के दौरान वसूली जाएगी। यह एफ.आर.पी. और अपेलेट ट्रिब्यूनल के ऑर्डर में अनिवार्य प्रावधान है। ऐसे वसूलने योग्य सम्पत्ति को विनियामक परिसम्पत्ति कहा जाता है।

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